आँख की किरकिरी - 17 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

आँख की किरकिरी - 17

(17)

इतने में एक मुरादाबादी थाली में फल-मिठाई और एक तश्तरी में बर्फ-चीनी डाल खुशबू-बसा खरबूजा लिए विनोदिनी आई। महेंद्र से बोली - कर क्या रहे हैं! आखिर बात क्या है, पाँच बज गए और न तुमने मुँह-हाथ धोया, न कपड़े बदले!

 महेंद्र के मन में एक धक्का-सा लगा। उसे क्या हुआ है, यह भी पूछने की बात है? महेंद्र खाने लगा। विनोदिनी जल्दी से महेंद्र के छत पर सूखते कपड़े ला कर तह करने और अपने कुशल हाथों से उन्हें अलमारी में करीने से रखने लगी।

 महेंद्र ने कहा - जरा-रुको तो सही, खा लूँ, फिर मैं भी तुम्हारा हाथ बँटाता हूँ।

 विनोदिनी ने हाथ जोड़ कर कहा - दुहाई है, और चाहे जो करो, हाथ मत बँटाना!

 महेंद्र खा चुका तो उठ कर बोला - अच्छा, मुझे निकम्मा समझती हो खैर, हो जाए आज इम्तहान!

 और महेंद्र ने नाहक ही कपड़े तह करने की कोशिश की।

 विनोदिनी बोली - जनाबेमन, आप रख दीजिए। मेरा काम मत बढ़ाइए!

 महेंद्र बोला - तो तुम काम किए जाओ, मैं देख-देख कर सीखूँ।

 वह अलमारी के सामने विनोदिनी के पास जा कर बैठ गया। विनोदिनी कपड़े झाड़ने के बहाने कभी-कभी महेंद्र की पीठ पर उन्हें पटक कर ढंग से तह लगाने और सहेजने लगी।

 और इस तरह आज का मिलन शुरू हुआ। तड़के से उठ कर महेंद्र ने जैसी कल्पना कर रखी थी, उस अनोखेपन का कोई आभास ही नहीं। महेंद्र फिर भी दुखी न हुआ, बल्कि उसे थोड़ा आराम मिला। अपने काल्पनिक आदर्श को किस तरह वह रूप देता, उसका ढंग क्या होता, क्या कहता, क्या जताता, तय नहीं कर पा रहा था। कपड़े सहेजने के इस हँसी-मजाक में मानो अपने गढ़े एक असंभव और कठिन आदर्श से उसे मुक्ति मिली।

 इतने में राजलक्ष्मी आईं। कहा - महेंद्र, बहू कपड़े सहेज रही है, तू वहाँ बैठा क्या कर रहा है?

 विनोदिनी बोली - जरा देखो तो सही बुआ, नाहक ही मेरे काम में देर कर रहे हैं।

 महेंद्र बोला - अरे रे! मैं तो मदद कर रहा था।

 राजलक्ष्मी बोलीं - हाय मेरी तकदीर! तू और मदद, सुनती है बहू, इसकी सदा की यही आदत है। माँ चाची के लाड़ में पला - कभी जो अपने हाथ से तिनका भी हिलाए!

 विनोदिनी से जब भी बातचीत होती, सिर्फ यही कि इसका क्या किया जाए! यह तो हर बात में अपनी माँ का मुँह देखता रहता है। वह उसकी सेवा का भार विनोदिनी पर डाल कर निश्चिंत थीं, वह इससे भी खुश थीं कि महेंद्र ने विनोदिनी की मर्यादा समझी है। महेंद्र को सुना-सुना कर वह बोलीं - बहू, आज तुमने महेंद्र के गरम कपड़े धूप में सुखा लिए, कल उसके नए रूमालों में उसके नाम का हरफ तुम्हें काढ़ देना पड़ेगा। जब से तुम्हें साथ ले आई हूँ, आदर-जतन तो कुछ किया नहीं, बस काम में ही परेशान करती रही।

 विनोदिनी ने कहा - ऐसा कहोगी बुआ, तो मैं समझूँगी तुम मुझे पराई समझती हो।

 दुलार से राजलक्ष्मी ने कहा - अहा बिटिया, तुम्हारी-जैसी अपनी और है कौन मेरी?

 विनोदिनी कपड़े सहेज चुकी। राजलक्ष्मी ने पूछा - तो अब चीनी का सिरका चढ़ा दूँ कि और कोई काम है तुम्हें?

 विनोदिनी बोली - नहीं बुआ, और कोई काम नहीं है। चलो मिठाइयाँ बना लूँ चल कर।

 महेंद्र बोला - अभी-अभी तो तुम रोना रो गईं कि इसे काम से ही परेशान करती रही और फिर तुरंत काम के लिए खींचे लिए जा रही हो।

 विनोदिनी की ठोड़ी पकड़ कर राजलक्ष्मी ने कहा - मेरी रानी बिटिया को तो काम करना ही पसंद है।

 महेंद्र बोला - आज मैंने सोच रखा था, इसके साथ कोई किताब पढूँगा बैठ कर क्योंकि मेरे पास कोई काम नहीं था।

 विनोदिनी ने कहा - ठीक है बुआ, शाम को हम दोनों भाई साहब का पढ़ना सुनेंगी - क्यों?

 राजलक्ष्मी ने सोचा- महेंद्र बड़ा अकेला पड़ गया है- उसे बहलाए रखना जरूरी है। बोलीं - हाँ, ठीक तो है। खाना बना कर शाम हम लोग पढ़ना सुनने आएँ?

 कनखियों से विनोदिनी ने एक बार महेंद्र को देख लिया। वह बोला - अच्छा। लेकिन उसे कोई उत्साह नहीं रह गया। विनोदिनी राजलक्ष्मी के साथ-साथ चली गई।

 नाराज हो कर महेंद्र ने सोचा - ठीक है, मैं भी कहीं चला जाऊँगा और देर से लौटूँगा। और समय उसने बाहर जाने के लिए कपड़े बदले। बड़ी देर तक वह छत पर टहलता रहा, बार-बार जीने की तरफ ताकता रहा और अंत में कमरे में जा कर बैठ गया। खीझ कर मन-ही-मन बोला, आज मैं मिठाई नहीं खाऊँगा। माँ को यह बता दूँगा कि देर तक चीनी के रस को उबालते रहने से उसमें मिठास नहीं रहती।

 महेंद्र को भोजन कराने के समय आज विनोदिनी राजलक्ष्मी को साथ ले आई। दम फूलने के डर से वे ऊपर नहीं आना चाहती थीं। महेंद्र बहुत गंभीर हो कर खाने बैठा।

 विनोदिनी बोली - अरे यह क्या भाई साहब, तुम तो आज कुछ खा ही नहीं रहे हो।

 परेशान हो कर राजलक्ष्मी ने पूछा - तबीयत तो खराब नहीं?

 विनोदिनी बोली - इतने जतन से मिठाइयाँ बनाईं, कुछ तो खानी ही पड़ेंगी। ठीक नहीं बनीं शायद। तो फिर रहने दो। जिद पर खाना भी क्या! रहने दो!

 महेंद्र बोला - अच्छी मुसीबत में डाल दिया है! मिठाई ही खाने की इच्छा ज्यादा है और अच्छी लग भी रही है; तुम रोको भी तो सुनने क्यों लगा भला।

 दोनों ही मिठाइयाँ महेंद्र रस ले कर खा गया।

 खाना हो गया, तो तीनों महेंद्र के कमरे में आ बैठे। राजलक्ष्मी ने कहा - तूने कहा था न, कोई किताब पढ़ेगा। शुरू कर न!

 महेंद्र बोला - मगर उसमें धर्म और देवताओं की कोई बात नहीं है। तुम्हें अच्छी नहीं लगेगी।

 अच्छी नहीं लगेगी! जैसे भी हो, अच्छी तो राजलक्ष्मी को लगनी ही थी। महेंद्र चाहे किसी भाषा में पढ़े, उसे अच्छी लगनी ही थी। आह, बेचारा महेंद्र, बहू काशी चली गई है। अकेला पड़ गया है। उसे जो अच्छा लगेगा, वह माँ को अच्छा क्यों नहीं लगेगा?

 विनोदिनी बोली - एक काम क्यों नहीं करते भाई साहब, बुआ के कमरे में शांति-शतक पड़ा है, आज वही पढ़ कर सुनाओ। बुआ को भी अच्छा लगेगा और शाम भी मजे में कटेगी।

 महेंद्र ने बड़े ही करुण भाव से एक बार विनोदिनी की तरफ देखा। इतने में किसी ने आ कर खबर दी - माँजी, ललाइन आ कर आपका इंतजार कर रही हैं।

 ललाइन राजलक्ष्मी की दिली दोस्त है। शाम को उनसे गप-शप करने का लोभ छोड़ सकना उनके लिए असंभव है। फिर भी वह नौकरानी से बोलीं - उनसे जा कर कह, आज मुझे महेंद्र से कुछ काम है। कल मगर जरूर आए। मैं उनकी प्रतीक्षा करूँगी।

 महेंद्र झट-पट बोल उठा - तुम उनसे मिल क्यों नहीं आती हो? माँ!

 विनोदिनी बोली - न हो तो तुम रुको बुआ; मैं ही बल्कि उनके पास जाती हूँ।

 राजलक्ष्मी प्रलोभन न छोड़ सकीं। बोलीं - बहू, तब तक तुम यहाँ बैठो - देखूँ, मैं अगर उन्हें रुखसत करके आ पाऊँ। पढ़ना शुरू करो तुम लोग। मेरी प्रतीक्षा की जरूरत नहीं है।

 राजलक्ष्मी का कमरे से बाहर जाना था कि महेंद्र से और न रहा गया। कह उठा - जान-बूझ कर क्यों तुम मुझे इस तरह परेशान करती हो?

 विनोदिनी ने अचरज से कहा - मैंने क्या सताया तुम्हें! मेरा आना गुनाह है क्या? तो फिर क्या जरूरत है, मैं जाती हूँ।

 और वह नाराज-सी हो कर उठने लगी।

 महेंद्र ने उसका हाथ पकड़ लिया। बोला - इसी तरह से तो तुम मुझे जलाया करती हो।

 विनोदिनी ने कहा - अच्छा, मुझे किसी बात की खबर न थी कि मुझमें इतना तेज है। और तुम्हारी जान तो कम कठिन नहीं है, बेहद झेल सकते हो। शक्ल से तो समझना मुश्किल है कि काफी जले-झुलसे हो।

 महेंद्र ने कहा - शक्ल से क्या समझोगी? और जबरदस्ती विनोदिनी का हाथ खींच कर अपनी छाती से लगा लिया।

 विनोदिनी उफ कर उठी जोर से। महेंद्र ने झट उसका हाथ छोड़ दिया। पूछा - दर्द हो गया क्या?

 कल उसका हाथ जहाँ से कट गया था, वहाँ से फिर रक्त बहने लगा।

 अफसोस से महेंद्र ने कहा - गलती हो गई, मैं भूल गया था। लेकिन मैं आज वहाँ पर पट्टी बाँध कर ही रहूँगा।

 विनोदिनी बोली - नहीं-नहीं, कुछ नहीं हुआ। दवा मैं नहीं लगाती।

 महेंद्र बोलीं - क्यों?

 विनोदिनी ने कहा - तुम्हारी डॉक्टरी की मुझे जरूरत नहीं। जैसा है, वैसा ही रहे।

 महेंद्र तुरंत गंभीर हो गया। मन-ही-मन बोला - औरत का मन समझ पाना बहुत ही मुश्किल है।

 विनोदिनी उठ खड़ी हुई। रूठे महेंद्र ने रोकने की कोशिश न की। केवल पूछा - जा कहाँ रही हो?

 विनोदिनी बोली - काम है।

 कह कर वह धीरे से चली गई।

 महेंद्र एक मिनट तो बैठा रहा, फिर उसे लौटाने के लिए तेजी से लपका। लेकिन सीढ़ी तक ही बढ़ कर लौट आया और छत पर जा कर टहलने लगा।

 विनोदिनी प्रतिपल उसे खींचा भी करती, मगर पास नहीं फटकने देती। कोई उसे जीत नहीं सकता, महेंद्र को इस बात का नाज था। इस नाज को आज उसने तिलांजलि दे दी। लेकिन औरों को वह जीत सकता है क्या - उसका यह गर्व भी अब नहीं रहने का? आज उसने हार मान ली, पर हरा न सका। दिल की बाबत महेंद्र का सिर सदा ऊँचा रहा था, वह अपना सानी नहीं समझता था - लेकिन उसी बात में उसे अपना सिर मिट्टी में गाड़ना पड़ा। अपनी जो ऊँचाई उसने खो दी, उसके बदले कुछ पाया भी नहीं।

 फागुन-चैत में बिहारी की जमींदारी से सरसों के फूल का शहद आता है और हर साल वह राजलक्ष्मी के लिए शहद भेजा करता था। इस बार भी भेज दिया।

 शहद का मटका विनोदिनी खुद राजलक्ष्मी के पास ले गई। कहा - बुआ, बिहारी भाई साहब ने भिजवाया है।

 राजलक्ष्मी ने उसे भंडार में रख देने को कहा। बोली - बिहारी बाबू, तुम लोगों की खोज-खबर में कभी नहीं चूकते। बेचारे की माँ नहीं, तुम्हें ही माँ मानते हैं।

 राजलक्ष्मी बिहारी को महेंद्र की ऐसी एक छाया समझा करती थीं कि उसके बारे में विशेष कुछ जानती न थीं। वह उसका बिना दाम का, बिना जतन का और बिना चिंता का फरमाबरदार था। विनोदिनी ने उन्हें उसकी माँ के बारे में जो बताया, वह बात उनके मर्म को छू गई। सहसा उन्हें लगा - सच ही, बिहारी की माँ नहीं, वह मुझे ही माँ मानता आया है। याद आया, दु:ख-परेशानी में, रोग-शोक में बिना बुलाए, बिहारी सदा चुपचाप निष्ठा के साथ उनकी सेवा करता आया है। उन सेवाओं को राजलक्ष्मी नि:श्वास-प्रश्वास की तरह ग्रहण करती रही हैं और उनके लिए किसी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की बात उनके मन में भी न आई। लेकिन बिहारी की खोज-खबर किसी ने न रखी। अन्नपूर्णा जब तक थीं, खोज-खबर रखती थीं। राजलक्ष्मी सोचा करती थीं कि बिहारी को वश में रखने के लिए अन्नपूर्णा आडंबर फैलाती है।

 उसाँस ले कर राजलक्ष्मी ने कहा - बिहारी कोख के लड़के-जैसा ही है।

 कहते ही उनके जी में आया कि बिहारी अपने लड़के से भी ज्यादा करता है और उसने अपनी भक्ति सदा एक-सी रखी। खयाल आते ही एक लंबा नि:श्वास बरबस उनके अंतर से निकल पड़ा।

 विनोदिनी बोली - उन्हें तुम्हारे हाथ की रसोई बड़ी प्रिय है।

 स्नेह-भरे गर्व से राजलक्ष्मी बोलीं - मछली का शोरबा तो उसे और किसी के हाथ का रुचता ही नहीं।

 कहते-कहते उसे याद आया - उधर बहुत दिनों से बिहारी नहीं आया।

 विनोदिनी ने कहा - यही तो मैं सोच रही थी, बुआ! मगर विवाह के बाद आपके बेटे-बहू को ले कर इस कदर डूब गए हैं कि हित-मित्र कोई आ कर भी क्या करे?

 बात राजलक्ष्मी को ठीक लगी। बीवी को पा कर महेंद्र ने अपने सारे हितैषियों को दूर हटा दिया। बिहारी का रूठना तो ठीक ही है - आए भी क्यों वह? बिहारी को अपनी ही जमात का आदमी समझ कर उसके प्रति उनकी संवेदना बढ़ गई। वह विस्तार से विनोदिनी को बताने लगी कि छुटपन से बिहारी ने बिना किसी स्वार्थ के महेंद्र का कितना उपकार किया है, उसके लिए कितनी बार कितनी तकलीफें झेली हैं उसने - और, बेटे के लिए उन्हें अपनी जो शिकायत थी, बिहारी के विवरण से वह उसका समर्थन करने लगी। कुछ दिनों में अपनी बहू को पा कर महेंद्र अगर अपने सदा के साथी की ऐसी उपेक्षा करे, तो दुनिया में न्याय-धर्म फिर कहाँ रहा?

 विनोदिनी बोली - कल रविवार है। तुम बिहारी बाबू को भोजन पर आमंत्रित करो। वह खुश हो जाएगा।

 राजलक्ष्मी बोलीं - ठीक कहा तुमने, महेंद्र के हाथ से कह कर किसी से न्योता भिजवा देते हैं।

 विनोदिनी - नहीं, न्योता तुम खुद भेजो, बुआ।

 राजलक्ष्मी- तुम्हारी तरह मैं क्या लिखना-पढ़ना जानती हूँ।

 विनोदिनी - न सही, तुम्हारी तरफ से मैं ही लिखे देती हूँ।

 राजलक्ष्मी के नाम से विनोदिनी ने खुद लिख कर न्योता भेजा।