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श्री दुर्गा सप्तशती का महत्व-श्री ललिता प्रसाद शास्त्री दतिया

श्री दुर्गा सप्तशती का महत्व
ललिता प्रसाद शास्त्री
आचार्य
राजराजेश्वरी पीठ दतिया मध्यप्रदेश
ललिता परसाद शास्त्री वर्तमान में देह रूप में नहीं है, लेकिन वे माँ भगवती के बड़े साधक रहे हैं । पीताम्बरा पीठ पर वे आचार्य रहे हैँ। एक बार बहुत बड़े फ़िल्म स्टार द्वारा उन्हें मुम्बई बुला कर अनुष्ठान कराया गया था तो अनुष्ठान की पूर्णाहुति के तीन चार दिन बाद ही फ़िल्म स्टार के बेटे पर आया महा संकट टल गया था।
ऐसे तपस्वी को प्रणाम।
उनके द्वारा यह आलेख अपने जीवनकाल में लिखा गया था जो कि किसी मित्र के मार्फ़त प्राप्त हुआ तो जनहित में प्रकाशित किया जाना उचित समझा ।
रामगोपाल भावुक

श्री दुर्गा सप्तशती का महत्व

सनातन धर्म के विविध सम्प्रदायों में कुछ ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है । शाक्तमार्ग मैं दुर्गा सप्तशती का भी उच्च स्थान है। शाक्तमार्ग में विभिन्न साधना पद्धतियों का प्रचलन है । इस मार्ग में दसमहाविद्याओं एवं अन्य देवियों की साधना से सम्बन्धित प्रचुर साहित्य उपलब्ध होता है । परन्तु दुर्गा सप्तशती का महत्व सभी शाक्त साधक स्वीकार करते हैं। प्राचीनकाल से ही इस ग्रन्थ के द्वारा आत्मकल्याण एवं विभिन्न मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये अनुष्ठान, पाठ आदि का प्रचलन रहा है । वास्तव में शाक्त मत मैं इस ग्रन्थ का महत्व वेद के समकक्ष ही है

दुर्गा सप्तशती के पाठ के विधान के विषय में विभिन्न ग्रन्थों में अनेक मार्ग बताये हैं। कुछ विधान सर्वसम्मत भी हैं। उसी दृष्टि से यहाँ विचार किया जा रहा है । दुर्गा सप्तशती का पाठ सम्पूर्ण रूप से एक ही बैठक में किया जाना चाहिये । चरित्र पूर्ण होने पर थोड़ा विराम किया जा सकता है । परन्तु अधूरा पाठ नहीं करना चाहिये । कुछ अध्याय प्रतिदिन करने के हिसाब से इसका नियम नहीं है । अधूरे पाठ से अनिष्ट भी सम्भव है । परन्तु मध्यम चरित्र का पाठ अलग से किया जा सकता है। कुछ साधकों के मत से केवल चतुर्थ अध्याय का भी पाठ अलग से किया जा सकता है । जैसा कि रहस्यत्रय में कहा गया है

एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयो रिह ।

चरितार्थ तु न जपेत् जपे छिद्र भवाप्नुयात ।।
दुर्गा सप्तशती का पाठ किसी आधार पर पटा आदि पर रखकर करना चाहिए हाथ में पुस्तक लेकर पाठ करना निषिद्ध है । मौन रूप से भो पाठ नहीं करना चाहिए । सभी शब्दउच्चरित हों तथा सुस्पष्ट हों यह आवश्यक है । दुर्गा सप्तशती का पाठ योग्य विद्वान् से सीख कर ही करना चाहिये । गलत पाठ अनष्टि की सम्भावना रहती है । बहुत से लोग अपने आप हो इसके पाठ में प्रवृत्त हो जाते है, इससे लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होती है। दुर्गा सप्तशती के पाठ से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है,यह तो सत्य है,परंतु पाठ नियमानुसार ही होना चाहिए।
दुर्गासप्तशती में सम्पुट का भी विधान है। विभिन्न मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये अलग-अलग सम्पुट- मन्त्रों का प्रयोग होता है, सम्पुट मंत्रों का प्रयोग अनेक ग्रन्थों में दिया गया है। इनका ज्ञान परम्परागत साधकों से भी प्राप्त किया जा सकता है । साधकों से प्राप्त ज्ञान में उनका अनुभव भी समाहित रहता है । सम्पुट मन्त्र का उच्चारण मन में करना चाहिये । बिना सम्पुट मन्त्र के दुर्गासप्तशती का पाठ निष्काम भावना से होता है | सकाम भावना से पाठ करने पर सम्पुट मन्त्र का अवश्य प्रयोग करना चाहिये । स्वास्थ्य, धन प्राप्ति, राजनैतिक कार्यों, ग्रहपीड़ा, निवृत्ति आदि कामनाओं के लिये विभिन्न सम्पुट मन्त्रों का विधान है। दुर्गा सप्तशती सल के पाठ से नवार्ण मन्त्र के जप का बड़ा महत्व है । नवार्ण मन्त्र में ॐ नही लगाना चाहिये । सर्वसम्मत रूप से पाठ का क्रम यह है- प्रारम्भ में गणेश, वटुक के मन्त्रों का जप करना, फिर कवच, अर्गला, कीलक, तन्त्रोक्त रात्रि सूक्त का पाठ करना चाहिये । इसके पश्चात नवार्णमन्त्र का न्यास तथा जप, वाद में सप्तशती के न्यास और 1 अध्याय से 13 अध्याय तक पाठ करना चाहिये । वाद में न्यास और नवार्ण मन्त्र का जप तथा देवीसूक्तम एवं रहस्यत्रय का पाठ करना चाहिये ।

श्री दुर्गा मैं तीन चरित्र है। प्रथम महाकाली चरित्र, द्वितीय महालक्ष्मो चरित्र तथा तृतीय महा- सरस्वती चरित्र । प्रथम चरित्र में मोह का वर्णन है । व्यक्ति जब मोहित होता है तब भगवती की शरण में जाता है । समस्त संसार मोह में वशीभूत हो रहा है | मोह से निवृत्ति भगवती की कृपा से ही सम्भव है । भगवती के पंचकृत्यों में तिरोधान और अनुग्रह भी हैं । भगवती की माया से संसार मोहित हो जाता है, जब वह अनुग्रह करती है तो मोहान्धकार दूर हो जाता है. यह चरित्र महाकाली का है । महाकाली की आराधना उग्र आराधना मानी गई है ।

द्वितीयचरित्र महालक्ष्मी का है । लक्ष्मी जी की प्रधानता तो सर्वविदित ही है । सभी व्यक्ति अहर्निश लक्ष्मी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं । सांसारिक क्रियाकलापों में अर्थ की आवश्यकता होती ही है । शास्त्र कारों ने भी इस सत्य को स्वीकार किया है । दुर्गा सप्तशती में मध्यम चरित्र का बड़ा महत्व है संभवत इस चरित्र के कारण हैं । इसका स्वतंत्र रूप से भो पाठ करने का विधान है। बड़े-बड़े साधक भी लक्ष्मी के वश में हो जाते हैं । इसीलिये संसार में नारायण की अपेक्षा लक्ष्मी आराधना का अधिक प्रचलन है । नारायण का मार्ग तो तपस्या का मार्ग है। नर-नारायण की तपस्या शास्त्र में प्रसिद्ध है । तपस्या प्रधान साधना में कम लोग ही प्रवृत्त होते हैं। इस मध्यम चरित्र के पाठ करने से वैभव की प्राप्ति होती है।
तृतीय चरित्र महासरस्वती का है। इसमें भगवती की कृपा का वर्णन है। वास्तविक सुख महासरस्वती की आराधना से ही सम्भव है। माता की राख्य शरण में आये हुए सुरथ और समाधि को इसी चरित्र में भगवती का साक्षात्कार होता है। मानव जीवन में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की आराधना का महत्व है। परन्तु सम्यक ज्ञान महासरस्वती के साधकों को हो प्राप्त होता है । यही रहस्य इस चरित्र में बताया गया है । सांसारिक दुःखों में लिप्त व्यक्तियों का उद्वार माता की आराधना से ही सम्भव है । वह महासरस्वती के रूप में भक्तों पर कृपा करती हैं और संसार का सही ज्ञान होने पर उनको वर प्रदान भी करती है ।

इस प्रकार दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में अलग-अलग शक्तियों का वर्णन है । वास्तविक दृष्टि से तीनों शक्तियां एक ही है । अनन्त ब्रह्माण्ड की जननी भगवती भक्तों पर कृपा करने के लिये विविध रूपों में प्रकट होती है । इन्हीं शक्तियों का वर्णन दुर्गासप्तशती में किया गया है ।

श्री दुर्गा सप्तशती का महत्व तो अनन्त है । पूर्ण विवेचन करना असम्भव ही है । इस लेख में इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में साधारण जानकारी देने का प्रयास किया गया है । दुर्गा सप्तशती के हवन आदि का विधान शास्त्र ग्रन्थों में दिया गया है । हवन आदि के अभाव में पाठ मात्र से भो सभी मनोकामनाओं को पूर्ति होती है।
दरोगा वाली गली, टिगेलिया दतिया
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