Bandh Khidkiya - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

बंद खिड़कियाँ - 24

अध्याय 24

"आज मेरे और दादी का खाना बाहर है" सुबह नाश्ते के वक्त अरुणा बोली ।

"अरे, मैं तो भूल ही गई" कहकर सरोजिनी मुस्कुराई तो नलिनी प्रश्नवाचक नजरों से उन्हें देखा।

"कहाँ खाना है? होटल ले जा रही हो क्या?"

अरुणा हंसी।

"क्यों अम्मा? हमें खाने पर बुलाने के लिए आदमी नहीं है ऐसा सोचा क्या? शंकर-मल्लिका के घर पर आज हमारा खाना है।"

"ओ" बोली नलिनी थोड़े विस्मय के साथ। "एक दिन उन्हें यहां खाने पर बुला सकते हैं?"

"वही मैंने भी बोला!" सरोजिनी बोली।

"शंकर को देखने से ही आपका चेहरा बदल जाता है। खाने पर और बुला सकते हैं क्या?" अरुणा तुरंत बोली ।

नलिनी ने अपने नीचे के होंठ को काटा अपने को कंट्रोल करने जैसे।

"मैं कुछ भी बोलूं तो तुम बुरा ही मानती हो!" भारी मन से बोली।

"नहीं ! मैं आपके मन के विचारों को अच्छी तरह से समझ गई हूं। आप ही हमेशा मुझे गलत मानती हो।" फटाक से बोली।

"शंकर अकेला आए तो आप निश्चित रूप से उसे खाने के लिए नहीं बोलोगी। मल्लिका साथ में रहे तो गौरव की बात है सोचोगी। क्योंकि आपकी सहेलियों का मुंह ढकने और उनकी आंखें पोंछने के लिए वही आपके लिए सुविधाजनक होगा।"

नलिनी के आंखों में आंसू भर आए उसे देख कार्तिकेय थोड़े सख्त आवाज में बोले।

"अरुणा, क्यों बातों को अनावश्यक लंबा कर रही हो?"

अरुणा ने सिर झुका लिया।

"सॉरी" बुदबुदाई।

"अम्मा का जो डर और संदेह है उससे मैं परेशान हो जाती हूं अप्पा। सचमुच में किसी को लेकर भाग जाती तो अम्मा की सहेलियों को तृप्ति हो जाती मुझे ऐसा लगता है।"

"अरुणा नो!" कार्तिकेय ने डांटा।

"मैंने अभी क्या बोल दिया है इसीलिए इतना परेशान हो रही है?" नलिनी गुस्से से बोली।" उन्हें खाने पर बुलाने के लिए बोलना मेरी गलती थी?"

"इतने दिन बुलाया क्या? बुलाने की अब सूझी क्या? कितनी बार शंकर अपने घर आए हैं? एक बार भी कॉफी पियोगे क्या पूछा था? खड़े होकर एक शब्द भी बोला था? शंकर के मित्रता के कारण ही प्रभाकर को छोड़कर मैं अलग हुई तुम अभी भी सोच रही हो ना?"

अचानक अरुणा के आवेश को बंद नहीं कर सकते ऐसा लगा।

"प्रभाकर से शादी करने के तीसरे दिन ही मेरी यह शादी एक मिस्टेक है मेरे समझ में आ गया आपको पता है? एडजस्ट करके रहना चाहिए मैंने भी बहुत कोशिश की आप इसे कभी समझोगे क्या? मैंने अलग होने का जो फैसला लिया उसका शंकर की दोस्ती से कोई संबंध नहीं आप विश्वास नहीं करोगी, क्योंकि तुम्हारी सहेलियों ने विश्वास नहीं किया। मल्लिका के मन को आप स्वयं जाकर भी बदलने की कोशिश करोगी ! परंतु अच्छी बात है कि वह बहुत होशियार है मुझे अच्छी तरह समझने वाली है"

वह वहां न बैठकर सीधे ऊपर फटाफट चढ़ कर चली गई।

थोड़ी देर सब लोग बिना बोले स्तब्ध रह गए और बैठे रहे।

"अभी मैंने क्या बोल दिया जो उसने मेरे ऊपर आक्रमण कर दिया?" नलिनी स्वयं के अंदर पश्चाताप की आवाज में बोली।

"अभी तुमने जो कुछ कहा उसके लिए उसने ऐसा जबाव दिया उसका ऐसा अर्थ नहीं है!" कार्तिकेय शांति से बोला।

'बहुत दिनों से बोलने की जो सोच रही थी उसको आज बोल दिया बस इतना ही।'

"मुझे समझी नहीं ऐसा हमेशा बोलती है। उसने मुझे समझा है क्या?"

नलिनी की आंखों में आंसू भर गए। सरोजिनी को दया आई।

"नलिनी" बड़ी नम्रता से बोली। "उससे तो तुम बड़ी हो। तुम्हें वह समझे उससे ज्यादा तुम्हें उसे समझना चाहिए वह ज्यादा जरूरी है। उसके ऊपर तुम्हें पूरा विश्वास रखना चाहिए। मेरी लड़की गलती नहीं करेगी एक ऐसा विश्वास रहने से दूसरे लोग कुछ भी बोले तुम्हें फिक्र नहीं होगी। मैं तुम्हें गलत बोल रही हूं ऐसा मत समझो। तुम्हारी परिस्थिति में किसी को भी इस तरह का डर होगा ही। मुझे भी हुआ था। कल उन दोनों को साथ में देखकर ही मेरा मन निर्मल हुआ। मल्लिका और शंकर बहुत ही घनिष्ठ मालूम होते हैं।"

"मेरे समझ में कुछ भी नहीं आता!" नलिनी बड़ी निष्ठुरता से बोली।

"कोई नई परेशानी ना हो तो ठीक है।"

"यही तो बोल रहे हैं! कार्तिकेय भी परेशान हुए। "कोई परेशानी आएगी ऐसे क्यों तुम सोच रही हो? उसको पढ़ने और काम पर जाने में रुचि है ना तुम क्यों असमंजस में पड़ती हो?"

बगीचे में जाकर बैठ रही हूं ऐसे ही बोल कर सरोजिनी उठकर बाहर की तरफ बगीचे में उतरी।

बगीचे में पड़ी हुई बैत की कुर्सी में बैठकर आकाश की तरफ देखती हुई उसके मन में एक ना समझ में आने वाली चंचलता समाई हुई थी। जो रिश्ता पवित्र है और बिना किसी कपट के उसे निभाने पर उस लड़की पर संदेह करें तो उसे कैसा लगेगा ! प्रभाकर से अलग होकर आई यह कितना सही कदम है उसने सोचा यह नलिनी के समझ में नहीं आएगा। यदि वह उससे अलग नहीं होती तो अपने स्वयं के पश्चाताप से उसका और शंकर का रिश्ता दूसरा ही रूप ले लेता....

अब ऐसे मोड आने की जरूरत नहीं। अरुणा स्वयं कमाती है। उसमें स्वयं के पैरों पर खड़े होने की हिम्मत है। एक आदमी की दया प्रेम से वह नहीं डगमगायेगी।

जंबूलिंगम एक प्रेम करने वाला पुरुष होता तो दिनकर के हाथ लगने से सरोजिनी पिघल जाती क्या? सरोजिनी पढ़ी-लिखी होती और स्वयं कमाती तो कहानी दूसरी हो जाती!

कैसे? अरुणा की कहानी जैसे!

उसको हंसी आई। साथ में दुख भी हुआ।

आज निश्चित ही उसके मन में जो चंचलता हो रहीहै है उसका कारण पता नहीं। यदि पुरानी बातों को फिर से याद करें तो उसने कोई बड़ी चीज हासिल की हो ऐसा उसे नहीं लगा। अपने को एक मनुष्य सिद्ध करने के लिए कितने पापड़ उसे बेलने पड़े। इस तरह के बीच के रास्तों को ढूंढने में सोच-सोच कर यह औरतों का जन्म कितना खराब है अपनी जिंदगी को देखती है तो अपमान से उसका जी भर जाता है ।

उस दिन मरकथम ने जो संदेह पैदा किया उसके अंदर एक जीव पनप रहा है, तो उस आश्चर्य में सास में जो अचानक बदलाव आया और उसमें एक शांति और खुशी मिलने से वह आश्चर्य में पड़ी बैठी थी तभी जंबुलिंगम की गाड़ी आने की आवाज में एक नए विरोध के जाल की शुरुआत हुई।

सास मुस्कुराई और लड़के को बुलाने गई।

बड़े उत्साह के स्वर में "आ जम्बू" उसके बुलाने की आवाज साफ आई। "कौन आया है देखो, डॉक्टर साहब आए हैं, रत्नम के बड़े भाई! रत्नम के ऊपर हम झूठा इल्जाम लगा रहे हैं ऐसा कह रहे हैं और तुम में ही खराबी है बता रहें है !"

सासू अम्मा की बातें सांस फूलने से बंद हुई।

"आप लोगों का इस तरह हमें अपमानित करना भगवान को भी नहीं सुहाया साहब ! आइए आप डॉक्टर हो ना, अंदर आ कर देखिए। बड़ी बहू सरोजिनी नहाई नहीं है। आज पूरे 40 दिन हो गए, उल्टी कर रही है। भगवान ही आकर आपके संदेह का जवाब दे रहे हैं जैसे अभी ही मुझे भी पता चला। अब बताइए, मेरे बेटे में खराबी है या आपकी बहन में?"

थोड़ी देर तक दोनों ने किसी तरह का कोई जवाब नहीं दिया। जम्बूलिंगम का चेहरा इस समाचार को सुनते ही किस तरह बदला होगा उसकी कल्पना करके भी सरोजिनी को डर लग रहा था।

कुछ मिनट मौन रहने के बाद रत्नम के भाई आवाज सुनाई दी।

"माफ कीजिएगा, रत्नम को एक बड़ी लेडी डॉक्टर को दिखाया। कोई खराबी नहीं है बोला।"

"वह सब मुझे कुछ नहीं मालूम। मेरी बड़ी बहू नहाई नहीं है, मेरे लड़के के बारे में जो आपने कहा वह गलत है पता नहीं चला? आप रवाना होकर घर जाकर उस अहंकारी को यह बात बताइए। कोई और समय होता तो मैं क्या करती पता नहीं। आज गुस्सा भी नहीं आया। आज मन भरा हुआ है। जम्बू उन्हें रवाना होने को बोलो!" उस आवाज में कितनी खुशी भरी थी! एक बार तो सरोजिनी घबरा गई।

"माफ कर दीजिए!"

"ठीक है रवाना होइए!"

कुछ ही देर बाद गाड़ी रवाना होने की आवाज आई।

फिर से सासू मां का उत्साहित स्वर सुनाई दिया।

"अपने कुल के देवता ने ही सरोजिनी के अंदर प्रवेश किया है जम्बू ! वह आदमी अभी तक संडासी के बीच में मुझे दबा रहा था। उस समय मरगथम आकर मुझसे बोली, "सरोजिनी अम्मा उल्टी कर रही है। वह बेहोश हो रही है। उनको नहाए बहुत दिन हो गया ना?" बोल रही। भगवान आकर बोले जैसे। तुम विश्वास नहीं करोगे, मेरी आंखों में आंसू आ गए! अपमानित करने लायक वह अपने डॉक्टर के घमंड में बात कर रहा था?"

"वह कहां है?" वह कटु शब्दों में बोला।

"झूले में लेटी हुई है। अब तुम उसे परेशान मत करो। रात को बात कर लेना!"

"अभी तो बच गए" सरोजिनी आंखें बंद करके बोली।

"कुछ पीने को चाहिए क्या बच्ची?" सासू मां ने पूछा तो आंखें बंद करके ही "नहीं" बोल दिया। साधारणतया जल्दी सोने चली जाने वाली सासू मां उस दिन उसके साथ मदद करती हुई उसे अच्छी साड़ी पहनने को कहा और सिर में खूब सारा मोगरा के फूलों का गजरा लगाया। जम्बूलिंगम के कमरे में भेजा।

उस बड़े कमरे के अंदर पैर रखते ही उस लंबे नीले वेलवेट के बिछाने चौड़े होकर लेटे हुए जंबूलिंगम को देखते ही उसका डर दूर होकर एक जिद्द और पक्का इरादा उसके अंदर पनपा । 

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