बंद खिड़कियाँ - 21 S Bhagyam Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बंद खिड़कियाँ - 21

अध्याय 21

सरोजिनी ने अनजाने में ही शंकर की पत्नी मल्लिका को देखा।

मल्लिका, शंकर, और अरुणा को देख वह हल्की मुस्कुराई। हल्का सा संकट उस मुस्कुराहट के पीछे छाया जैसे है ऐसे सरोजिनी को लगा।

वह मल्लिका के पास जाकर उसके कंधे को पकड़ कर वह बोली "मल्लिका हो ना?" कहकर हंसी। "तुम्हारे बारे में अरुणा हमेशा बड़प्पन से बोलती है"।

मल्लिका के चेहरे पर एकदम से प्रकाश दिखाई दिया।

"मुझे देख कर उस पर विश्वास करने लायक कुछ है बड़ी अम्मा?"

"सिर्फ देखने के बदले अच्छी तरह से घुले मिले तो ही उस पर विश्वास करें या नहीं पता चलेगा!" कहकर सरोजना हंसी। "तुम लोगों को एक दिन खाने पर बुलाना है ऐसा मैं अरुणा से बोल रही हूं।"

अरुणा और शंकर आपस में धीमी आवाज में बात कर रहे थे। मल्लिका उनकी और देख कर दूसरे क्षण साधारण भावना से पूछी "फिर अभी तक क्यों नहीं बुलाया?"

उसका स्वभाव सरोजिनी को पसंद आ गया।

"तुम्हें शंकर के साथ रहने के लिए इतवार का दिन ही मिलता है। उस दिन तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए ऐसा अरुणा कहती है"। ‌

उस समय मल्लिका के चेहरे पर बड़ी खुशी दिखाई दी।

"यह सब बेकार की बात है ! वह तो एकदम कंजूस है" कहकर वह हंसी। "अरुणा! मुझे एक फ्री का खाना मिल रहा है तुम उसे क्यों खराब कर रही हो?" वह बोली।

"मैं क्यों खराब करूं?" आंखों को फैलाकर अरुणा हंसी। "शंकर नाराज होंगे इसीलिए नहीं बुलाया!"

"हां इतवार को भी मल्लिका ने खाना नहीं बनाया तो वह खाना बनाना भूल जाएगी!" शंकर बोला।

अरुणा फिक से हंस पड़ी।

इन लोगों को साफ मन से बिना कपट के बात करते देख सरोजिनी को बहुत अच्छा लगा।

"ठीक है तुम मुझे मत बुलाओ । तुम और दादी कल हमारे घर खाना खाने आ जाओ" मल्लिका बोली।

"हां यह अच्छा आईडिया है" शंकर बोला।

"तुम्हें क्यों परेशानी। तुम तो नौकरी करने वाली हो! इतवार के दिन करने के लिए बहुत से काम होते हैं !" सरोजिनी बोली।

"यह सब कोई बात नहीं है वह सब संभाल लेगी !" शंकर बोला। "मैं हूं ना!"

फिर से सब लोग हंसे। मल्लिका बड़ी तृप्ति के साथ शंकर को देख सरोजिनी से हंसते हुए बोली "सच है बड़ी अम्मा शंकर मेरी बहुत मदद करते हैं!"

"मैं इसकी बुआ का लड़का हूं। इसीलिए यह मुझे थोड़ा ज्यादा ही सम्मान देकर बात करती है!"

मल्लिका ने प्रेम से उसके पीठ पर मारा।

"ऐसा नहीं करूं तो इसके भाव बढ़ जाएंगे!" 

वे लोग गुलाब के पौधों को देखते हुए चल रहे थे तभी अरुणा मौन हो गई सरोजिनी ने ध्यान दिया।

पुरस्कृत पौधों को देखकर खत्म होने के बाद रवाना होते समय अरुणा के चेहरे पर एक उत्साह दिखाई दिया।

"फिर कल का खाना तुम्हारे घर पक्का है ना?" मल्लिका को देख कर बोली |

"खाना तो मैं दूंगी। मस्ती तुम करोगी" कहकर मल्लिका हंसी।

"मिर्ची थोड़ी ज्यादा ही डालेगी" शंकर बोला।

"चलो दादी चलते हैं " अरुणा बोली फिर उनको देखकर, "आप लोग कितना भी डरा दो हम तो खाना खाने आएंगे ही!"

"व्हाट इज द स्प्रिट !" कहकर शंकर, सरोजिनी के कार में बैठते ही दरवाजे को बंद कर मुस्कुराया।

कार रवाना होकर कुछ दूर जाने तक सरोजिनी मौन रही। अरुणा के होठों पर हंसी धीरे-धीरे गायब हो गई। उसके माथे पर तीव्र चिंता की लाइने दिखाई दी।

"वह लड़की मल्लिका बहुत अच्छे स्वभाव की लगती है" सरोजिनी आगे बोली "वह बहुत मजाकिया है!"

"हां!" मुस्कुराते हुए अरुणा बोली "बहुत अच्छी लड़की है और होशियार भी। हां शंकर जैसे एक पति मिल जाए तो जिंदगी को मजाकिया ढंग से काट सकते हैं। शादी के बाद नहीं बदलने के लिए उनके साथी का अच्छा होना है दादी। ठीक है ना?"

"सच है" धीमी आवाज में बोली।

"मेरी शादी होने के बाद बहुत ही जल्दी हंसना मैं भूल गई थी दादी।"

"यह देखो तुम्हें इन बातों को भूल जाना चाहिए" सरोजिनी बोली। फिर थोड़ी कठोरता से "तुम्हारी शादी हुई थी उसी को भूल जाओ। अभी पहले जैसे हंस सकती हो।"

"ऐसे रहने के लिए तो मैं कोशिश कर रही हूं दादी। पर वह इतना आसान नहीं है। मैं भूल जाऊं पर दूसरे मुझे भूलने नहीं देंगे ऐसा लगता है।"

"उसके बारे में तुम्हें चिंता नहीं करनी चाहिए। कितने दिन दुनिया बोलेगी? इसके अलावा दुनिया बोले तो क्या है?"

थोड़ी देर मौन रहकर गाड़ी चला रही अरुणा उसकी तरफ मुड़कर, "थैंक्स दादी" कहकर मुस्कुराई। "आपका सहारा ना होता तो मैं इस घर में अभी जिस उत्साह से हूं वैसे नहीं रह सकती थी ।"

सरोजिनी बिना कुछ जवाब दिए बाहर देख रही थी। फिर संकोच से बोली "थोड़े दिन के लिए तुम शंकर और मल्लिका से बिना मिले रहो तो अच्छा है मुझे लगता है!"

"क्यों?" आश्चर्य से पूछी। "आपने भी औरों जैसे सोचना शुरु कर दिया क्या?"

"नहीं, उन्हें देख-देख कर अपने को जो नहीं मिला उसके बारे में सोच ज्यादा हो सकती है।"

"नॉनसेंस दादी!" अरुणा हंसी। "इस तरह की कोई भी बात मुझे नहीं लगती।"

"नहीं तो फिर ठीक है" बोली।

"कल खाने के लिए भी जाना उन्हें परेशान करना ही हुआ। मुझे जाना है ऐसा नहीं लगता है।"

इसके बाद किसी भी विषय में बात नहीं करना है ऐसे सोच सरोजिनी मौन रही।

"आपसे एक बात पूछ सकती हूं?" धीरे से हंसती हुई पूछा।

"कुछ नया क्या पूछने वाली हो?"

"हां आप बड़ी होशियार हो... समझ गईं।"

"किसे?"

"मेरे प्रश्न को - वह दिनकर आपसे सहानुभूति रखते थे ना?"

उसने कुछ पहले सोचा भी था तो भी उसे आश्चर्य हुआ।

"यह कैसा प्रश्न है अभी?" ऐसा कहकर छोड़ दे ऐसी हंस दी।

"ऐसे ही पूछ रही हूं। वे आपसे सहानुभूति रखते थे इसीलिए तो दादा नाराज थे ऐसा मुझे संदेह है।"

"वह सब कुछ नहीं है बच्ची" सरोजिनी बोली ।

"तुम्हारे दादा जी को पता नहीं मुझे देखना ही बुरा लगता था।"

"क्या बात है मुझे बहुत आश्चर्य है दादी। आप छोटी उम्र में बहुत सुंदर रहीं होगीं। नम्रता का आपका स्वभाव अलग, मेरी जैसे जबान चलाने वाली आप बिल्कुल नहीं रहीं होगीं!"

सरोजिनी थोड़ा सोच कर आराम से बोली।

"एक पुरुष को तृप्त करना है तो सारी बातें उसकी रूचि के अनुसार होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है। उस जमाने में मुख्य रूप से आदमियों को सब अधिकार मिला हुआ था। किसी भी औरत को छोड़कर वह दूसरी शादी अपनी इच्छा अनुसार करने के लिए स्वतंत्र होता था और आंखें बंद करके कुछ भी कर सकता था। उनकी रूचि के अनुसार मुझे चलना नहीं आया। फिर क्या? मेरी सुंदरता और मेरी नम्रता से ही उन्हें नफरत हो गई होगी?"

"उस जमाने में दूसरे आदमियों से बात करने का अवसर मिलता था ? या पर्दे में रहते थे क्या?"

वह बहुत ही चतुराई से सब बातों को खोद खोद कर पूछ रही थी सरोजिनी चेत गई। उसे हंसी भी आई।

"नहीं, पर्दा जैसे ही रहती थी। त्योहार के दिनों भीड़ में ही देखते थे। वह भी अक्सर रिश्तेदारों की ही होती थी । घर में कोई खाने आ जाए तो बिना सिर उठाए ही खाना परोसना होता था।"

"फिर उस दिनकर दादा से कभी बात नहीं की?"

"उस साहब को तुम छोड़ोगी नहीं लगता है!" कहकर सरोजिनी हंसी।

"गलत है तो नहीं पूछूंगी!"

"तुम्हारे पूछने में कोई गलती नहीं है। पर मुझे ही बोलने के लिए कोई विषय नहीं है। एक दो बार बात की होगी। तुम्हारे दादा घर पर ना रहे उस समय वे आए होंगे ।"

अरुणा उसे मुड़कर देख मुस्कुराए।

"अब मैं आपसे खोद खोद कर नहीं पूछूंगी दादी!"

सरोजिनी को अजीब सा लगा। मेरी बातों से इसने क्या ग्रहण किया होगा? दिनकर को देखने इसे भी ले जाना बहुत बड़ी गलती है ऐसा उसे परोक्ष रूप से लगा।

मेरे मन की रहस्यों को किसी को भी खोलकर नहीं बताना चाहिए ऐसा मैंने एक व्रत लिया है‌ । इसी कारण भी मुझे उसे नहीं भूलना है। मैं बुढ़ापे में अपनी स्मृति भी खोने लग जाऊं तब भी इस बात को मुझे बाहर नहीं निकालना है। एक लाइन को रखकर उसका पूरा तोरण बना दे इस तरह की सूक्ष्म बुद्धि इस लड़की की है....

घर पहुंचने तक जो शपथ ली सरोजिनी के मन को उसने विश्व रूप धारण करवा दिया।

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