Bandh Khidkiya - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

बंद खिड़कियाँ - 19

अध्याय 19

कार्तिकेय की गाड़ी कंपाउंड के अंदर आ रही थी । सरोजिनी को दिखाई दी तो वह हड़बड़ा कर वर्तमान में लौटी।

"रत्नम को मरे दस साल हो गए ‌अभी तक मुझे उसके ऊपर जो नाराजगी थी वह कम क्यों नहीं हुई"उसे खुद को आश्चर्य हुआ।

अभी इतनी सुबह से उसके बारे में सोच कर बैठे रहो तो और किसी काम में मन ही नहीं लगेगा....

कार की आवाज को सुन मुरूगन भागकर गाड़ी में से सब्जियों के थैलियों को उठा कर लाया। अरुणा मुस्कुराते हुए चेहरे से सरोजिनी को देखकर हाथ हिलाते हुए आईं।

"क्यों दादी धूप सेक रही हो ?"बोली।

"मेरे कामों का कोई अर्थ नहीं होता"सरोजिनी कहकर मुस्कुराई। "अंदर रहने के बदले बाहर बैठी हूं।"

कुछ सोचते हुए अरुणा ने उन्हें देखा।

"हमेशा कुछ सोचते हुए रहती हो। इसीलिए कहां बैठी हो यह भी आपको पता नहीं। बहुत तेज धूप हो रही है। अंदर आइए मुझे सिर पर तेल लगाने को कहा था ?"

"मुझे याद है। अभी आ रही हूं।"कहती हुई सरोजिनी उठी।

साथ में आ रहे अरुणा ने हिचकते हुए पूछा "आपको परेशानी तो नहीं होगी दादी?"

"इसमें क्या परेशानी है? पहले तो हर हफ्ते लगाती थी। अभी तो तुम आती नहीं हो।"

"आपकी उम्र हो गई है ना?"

"उम्र हो गई तो क्या? हट्टी-कट्टी तो हूं! मेरी सास का मुझसे काम कराना अच्छा ही रहा। इसीलिए तो मैं अभी भी ठीक हूं। तुम्हें तो मालूम है मेरी एक सौत भी थी। वह खा-खा कर आराम से पड़ी रहती थी। चालीससाल पूरा होने के पहले ही उसे गठिया हो गया। शुगर भी हो गया। हार्ट प्रॉब्लम गया क्योंकि वह हमेशा सोती रहती थी।"

"उन्होंने भी तो आपको दादाजी से ज्यादा परेशान किया था ना?"

सरोजिनी कुछ देर नहीं बोली। फिर धीरे से एक दीर्घ विश्वास छोड़ते हुए बोली "उसे क्या कहें बेटी! यदि घास को भी अधिकार दे दो वह भी कूदेगी। जैसे चूहे को हल्दी की गांठ मिल जाए तो अपने को पंसारी समझने लगता है। यदि मैं उसकी जगह होती तो शायद मैं भी ऐसी रही होती!"

"यह तो पक्का है आप ऐसे नहीं रही होती।"

"तुम ऐसा सोचती हो तो ठीक है। जाकर कोई पुरानी साड़ी पहन के आओ। चौक में एक कुर्सी डालकर बैठो तो मैं तुम्हारे सिर पर तेल लगाऊंगी।"

अरुणा के घने लंबे घुंघराले बालों में तेल लगाते समय "पापी उस लड़के को इस लड़की से समझौता करके रहना नहीं आया।" फिर से उसे दुख हुआ। इस लड़की में उसने, क्या कमी देखी: एक हल्के सोच ने उसकी भावनाओं को आघात किया। मुझे जो अनुभव हुआ था वही इस बच्चे के साथ भी हुआ । इस लड़की की कोमलता को वह दुष्ट समझ ही न सका।

"आपको उनके ऊपर बहुत गुस्सा आया होगा ना दादी ?"

सरोजिनी चकित रहगई।

"किस पर?"

"छोटी दादी पर"

"गुस्सा आए बिना रहेगा क्या? आता था। पर आने से क्या फायदा?कोई उसकी परवाह करें तभी तो उसका सम्मान है?"

थोड़ी देर चुप रही अरुणा फिर बोली "तमाशा जैसे लग रहा है दादी। आपको बांझ कहकर दादा ने दूसरी शादी कर ली। आखिर में छोटी दादी के ही बच्चे नहीं हुए।"

आमने-सामने ना देख कर बड़बड़ा रही जैसे सरोजिनी बोली "अपने घमंड में आदमी जो काम करता है उसके लिए कोई कारण चाहिए क्या?"

"एक बात बोलूं तो आप बुरा तो नहीं मानोगी दादी? आप की जगह मैं होती तो ऐसे एक घमंडी आदमी को बच्चा पैदा करके नहीं देती। मैं उसके पास ही नहीं गई होती।"

धीमी आवाज में रहस्य को बोल रही जैसे अरुणा बोली। परंतु सरोजिनी के अंदर एक ज्वाला सी उत्पन्न हुई। उसके हाथ एक क्षण के लिए स्तंभित हो रुक गए। फिर अपने को संभाल कर बड़े दुखी आवाज में बोली "हां वह एक अपमानजनक जिंदगी ही थी। अभी भी सोचें तो कभी-कभी बहुत तकलीफ होती है।" 

"सिर्फ कभी-कभी?"

सरोजिनी सौम्यता से हंसी। तुम्हारे पास तो शिक्षा है। नौकरी करके अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हो वह सामर्थ्य तुममें है। जिनके पास कुछ भी ना हो वहइस स्थिति में क्या कर सकते हैं।"

"आत्म सम्मान तो हर क्षेत्र में होता है दादी।"

"होता है वह तो सही है और उसके लिए बहुत से दंड भी मिलते है...." कहकर सरोजिनी हंसी।

अचानक अरुणा ने सिर ऊपर करके उन्हें देखा।

"दादी आप कैसे हंसती रहती हो ?"

सरोजिनी को फिर से हंसी आई।

अरुणा के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभरी।

"सिर की मालिश हो गई?" कहकर सरोजिनी ने उसके गाल पर तेल के हाथ को प्यार से लगाया।

"बस दादी आपको थैंक्स। बड़ा आराम मिला।"

अपने हाथों को शिकाकाई से धोकर सरोजिनी अपने कमरे में चली गई।

बच्ची में बचपना तो है फिर भी अरुणा बहुत ही सूक्ष्म बुद्धि वाली लड़की है ऐसा सोच कर उसे आश्चर्य हुआ।

"मैं होती तो उसके पास ही नहीं गई होती...."

सरोजिनी अपने अंदर ही मुस्कुराई। "मेरा खून ही तो तुम्हारे अंदर है" वह धीरे से बड़बड़ाई।

मेरे अंदर भी उस समय विरोध की भावना रहती थी। घर के कामों को एक कर्तव्य जानकर करने पर भी गौरव की बात आती तो मैं नहीं छोड़ती। अपमान होने पर मन में जो चोट पहुंचती वह मेरे अंदर दबी हुई है। मेरा मन जब सूखकर जलने को तैयार हो जाता था तो मैं समझ जाती हूं।

शडैयनकी जिस दिन हत्या हो गई थी। घबराकर मैं जब गई तो उन्होंने मेरी ओर व्यंग्यात्मक रूप से देख एक चांटा मार कर भगा दिया। उसको देख रत्नम बड़ी खुश होकर हंसी । उसी समय मेरे पत्थर बन गए मन में एक आग सी लग गई ‌।

आराम कुर्सी पर आराम से बैठी हुई सरोजिनी ने आंखों को बंद कर लिया।'उस दिन जो बात हुई उसमें मेरी जिम्मेदारी नहीं थी। उसके लिए वह और रत्नम भी इसके जिम्मेदार थे' उसने अपने मन में सोचा।

"मन में कोई दुख तो नहीं है?"दिनकर के इतने वर्षों बाद पूछने पर उसे याद आया।

'नहीं' उसने अपने आपसे कहा। बहुत ही उत्साह से उसका मन खुला।

शडैयन के मरने की बिल्कुल भी परवाह ना कर पूरा परिवार नई लाए मोटर गाड़ी में बैठकर मदुरई के लिए रवाना हो गए। जंबूलिंगम के मार को और रत्नम के व्यंग्यात्मक हंसी से ऊपर शडैयन की हत्या का जंबूलिंगम से कोई संबंध है जैसा उसे संदेह थावह और ज्यादा पक्का विश्वास हो गया जिससे उसे आघात लगा। कितने निकृष्ट गुणों वाला मेरा पति है सोच कर उसे नफरत हुई। पैसे का घमंड और मैं आदमी हूं यह सोच उसे इस तरह से करने को उकसाता है क्या? अचानक उसे दिनकर की याद आई। वह कितना अलग आदमी है! बड़ा जमींदार है यह नाम नहीं होने पर भी खेती, जमीन-जायदाद उसके पास भी है| वह एक अच्छा आदमी और दिलवाला है। वह कितना न्याय प्रिय,शरीफ़ और दिल का साफ आदमी है। उसकी दोस्ती भी इस आदमी को नहीं बदल पाई यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है।‌ इसका कारण पैदा होना और उसका परवरिश ही मुख्य कारण होगा। उसके अम्मा का लाड़-प्यार और पालन-पोषण ही इसका कारण है। "जोतू चाहे वह सब कर सकतेहो"ऐसी शिक्षा दी है तो क्या होगा....

"मरकथम तुम्हारी सहायता और साथ के लिए है हम चार दिन में वापस आ जाएंगे" जब सास यह बोल वहां से सरके तो सरोजिनी ने कोई जवाब नहीं दिया। मुंह खोले तो गुस्सा और रोना फट पड़ेगा उसे लगा।

उनके रवाना होने के थोड़ी देर बाद ही मरगथम का पति घबराहट के साथ आया।

"मरगथम के पिताजी का देहांत हो गया। मेरा साला आया था। हम सब को एक साथ रवाना होना है। आप अकेले रहोगे इसलिए हमें संकोच हो रहा है। शडैयन के मरने की वजह से कोई भी खेत से अभी यहां नहीं आएगा। सुबह माली आ जाएगा। उससे कह कर उसकी पत्नी को काम करने के लिए बोल सकते हैं। आप उसे सोने के लिए भी कह सकते हो। आज रात के लिए ही...."

उसका कलेजा धक सा हुआ। पश्चाताप के साथ ही उसे गुस्सा भी आया। अपने को संभालते हुए "आप लोग रवाना होइए। मेरे बारे में चिंता मत करो। मैं अपने आप को संभाल लूंगी। तुम रवाना हो" वह बोली।

मरगथम की जोर से रोने की आवाज सुनाई दे रही थी। "तुम जाओ" कहकर वह बाहर के दरवाजे को बंद कर दिया।

सब ने मिलकर प्रपंच करके मुझे अकेला छोड़ दिया और इस प्रपंच में मैं निराधार और अकेली हो गई उसे डर लगा। वह अपने आप को संभाल नहीं पाई और वह हिचकी ले ले कर रोने लगी। वह स्वयं को संभाल ना पाने के कारण आने वाले आंसू थे। अंधेरा हो गया इस बात को भी महसूस ना करके वह बैठी रही तो किसी के किवाड़ खटखटाने की आवाज आई।

वह मुंह पोंछकर "कौन?" उसने पूछा।

"मैं दिनकर हूं। दरवाजा खोलो!" उस आवाज को सुन उसमें एक शक्ति आ गई और मन में एक खुशी हुई। बरामदे के बिजली के स्विच को ऑन कर उसने दरवाजा खोला।

वह अंदर आकर चारों तरफ अपनी निगाहें दौड़ा कर, "घर में कोई नहीं है क्या?" पूछा।

"कोई नहीं है। सब लोग मदुरई गए हैं" कह कर उसने सिर झुका लिया।

"मरगथम के घर पर भी ताला लगा हुआ है?"

उसने अपने चेहरे को दूसरी तरफ घुमा लिया।

"उसके पिताजी ने मरने के लिए आज ही समय देखा...."

वह जल्दी से अंदर उठे ज्वाला को संभालना पाने के कारण उसके आंखों से आंसू बहने लगे और वह हाथों से उन्हें ढककर दिल टूट जाए जैसे रोना शुरू कर दिया।

"अरे ! मत रोइये। मत रो" घबराकर वह बोला।

उस आवाज में जो दया की भावना थी उससे उसे और रोना आया।

दो मजबूत हाथों ने उसके कंधों को पकड़ा। शरीर में सिहरन हुई आंसू स्तंभित हो गये अपने हाथों को हटाकर उसने गर्दन ऊंची कर देखा।

"आप रोयें तो मैं सहन नहीं कर पाऊंगा" वह प्यार और नम्रता से बोला। उसकी आंखों में जो दया की भावना थीजिसने उसके अंदर एक नए वेग को उत्पन्न किया।

उसके हाथ को अलग ना करके सर झुका कर उसने कुछ बुदबुदाया।

"अभी रोना ही मेरा साथी है।"

"डरिए मत मैं रहूंगा आपके साथ" जैसे डरी हुई छोटी लड़की को आश्वासन देते हैं वैसेही वह बोला।

फिर धीरे से उसने पूछा "इसके पहले भी आपको अकेले छोड़कर गए हैं ना। आज फिर यह डर औररोना?"

उसको तुरंत शडैयन की मौत की खबर, जम्बूलिंगम का उसे मारना और रत्नम की व्यंगात्मक हंसी एक के बाद एक याद आई।

जम्बूलिंगम ने क्या बोला होगा, उसके इतना हंसने के लिए?

"इसके बदले एक लकड़ी के साथ सोना कहकर शडैयन को लकड़ी बना दिया" बोला होगा?

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