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शिव की नगरी से प्रसाद लाया हूँ
राजा कृष्णदेव राय साधु-संतों की बहुत इज्जत करते थे। इसलिए दूर-दूर से साधु-महात्मा विजयनगर में आते। राजा कृष्णदेव राय उनकी खूब सेवा-सत्कार करते थे। इसलिए सभी वहाँ से प्रसन्न होकर लौटते थे।
एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में लंबी, सफेद दाढ़ी वाले एक साधु बाबा आए। वे बहुत बूढ़े और कृशकाय थे, पर चेहरे पर दिव्य तेज। आते ही उन्होंने दोनों आँखें बंद कर, कुछ देर ‘ओम नमः शिवाय’ का पाठ किया। फिर आँखें खोलकर प्रसन्न भाव से बोले, “महाराज, शिव आप पर प्रसन्न हैं। उनकी कृपा से आपके राज्य में प्रजा हमेशा सुखी रहेगी। कभी किसी चीज का संकट न होगा और दूर-दूर तक आपका यश फैलेगा।”
सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने बड़े आदर से सिर झुकाकर, बूढे साधु बाबा को प्रणाम किया। फिर विनम्र भाव से बोले, “मैं अपनी और विजयनगर की समस्त प्रजा की ओर से आपका स्वागत करता हूँ। कृपया आप आसन ग्रहण करें।”
साधु महाराज के लिए सुंदर मृगछाला का आसन बिछाया गया। उस पर विराजमान होकर उन्होंने कहा, “महाराज, मैं इस बार दक्षिण की परिक्रमा पर निकला तो बड़ा मन था कि एक बार विजयनगर अवश्य जाऊँ। राह में जो भी मिला, उसने यही कहा कि प्रजावत्सल राजा कृष्णदेव राय रात-दिन प्रजा की चिंता करते हैं। तो उत्सुकता और बढ़ गई। सोचा, आपको आशीर्वाद देकर ही मैं आगे जाऊँगा।...आज यहाँ आकर मन शीतल हो गया।”
कुछ देर तक साधु बाबा प्रेमपूर्वक राजा कृष्णदेव राय से बात करते रहे। विजयनगर की प्रजा के बारे में भी पूछा। फिर उन्हें कुछ याद आया। बोले, “महाराज, मैं शिव की पवित्र नगरी हरिद्वार से प्रसाद लाया हूँ। लीजिए, अपने सभी सभासदों में बँटवा दीजिए।”
कहकर साधु ने अपने झोले में हाथ डाला और दो बताशे निकालकर राजा कृष्णदेव राय के हाथ में रख दिए।
सुनकर राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न हो उठे। बोले, “शिव की नगरी हरिद्वार से आया प्रसाद तो अमृत से बढ़कर है।” पर तभी उन्हें खयाल आया कि इन दो बताशों को सभी सभासदों में कैसे बँटवाया जाए?
उन्होंने तुरंत राजपुरोहित ताताचार्य से कहा, “आप इन बताशों को सभी में बँटवा दें।”
सुनकर राजपुरोहित भी अचकचाए। फिर मुसकराते हुए कहा, “महाराज, यह चमत्कार तो हमारे यहाँ सिर्फ तेनालीराम ही कर सकते हैं। वे चाहें तो इन्हें सभी दरबारियों में बँटवा सकते हैं।” इस पर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा।
तेनालीराम ने उठकर बड़ी विनय से साधु बाबा को प्रणाम किया, और राजा कृष्णदेव राय से वे दोनों बताशे लिए। फिर एक सेवक को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा। सेवक दौड़ा-दौड़ा गया। ठंडे पानी से भरा एक घड़ा ले आया। साथ में चीनी और गुलाब का गाढ़ा सुगंधित शर्बत।
पानी में चीनी घोलकर गुलाब का शर्बत मिलाया गया। इसी बीच तेनालीराम ने चुपके से अपने हाथ से दोनों बताशे तोड़कर उसमें डाले और अच्छी तरह घोल लिया। राजा कृष्णदेव राय, साधु बाबा और सभी दरबारी बड़े कौतुक से देख रहे थे कि तेनालीराम को अचानक यह शर्बत बनाने की क्या सूझी?
तेनालीराम की हर बात नई होती थी, जो सबको चकरा देती थी। इस बार भी दरबारी हैरान थे, तेनालीराम कर क्या रहा है? कहाँ तो प्रसाद बँटवाने की बात थी, और कहाँ यह आयोजन...? कुछ दरबारियों ने संकेत में राजा कृष्णदेव राय से कहा कि वे तेनालीराम से पूछें, वह किस चक्कर में उलझ गया? पर वह निश्चिंत होकर अपने काम में जुटा था।
कुछ देर बाद उसने फिर सेवक के कान में कुछ कहा। उसके इशारे पर कई सेवक एक साथ दौड़े। झट बहुत सारे साफ-सुथरे कुल्हड़ ले आए।
तेनालीराम ने घड़े में रखे शर्बत को खुद अपने हाथ से साफ-सुथरे कुल्हड़ में डालकर सबसे पहले राजा कृष्णदेव राय को दिया। कहा, “लीजिए महाराज, गुलाब का यह ठंडा सुगंधित शर्बत पीजिए।”
“पर प्रसाद...? तेनालीराम, तुम तो साधु बाबा का प्रसाद सबको बँटवाने वाले थे न!” राजा कृष्णदेव राय ने चौंककर कहा।
“हाँ महाराज, वही तो है यह!” कहकर तेनालीराम ने बताशे तोड़कर शर्बत में मिलने की बात बताई, तो राजा कृष्णदेव राय और सभी सभासद चकित हुए।
इसके बाद वही शर्बत साफ-सुथरे कुल्हड़ों में डालकर मंत्री, पुरोहित और सभी सभासदों में बँटवाया गया। साधु बाबा को भी एक कुल्हड़ भरकर सुगंधित शर्बत दिया गया। सभी ने खुश होकर गुलाब का सुगंधित शर्बत पिया और तारीफ की।
तेनालीराम हँसकर बोला, “महाराज, इस शर्बत के साथ-साथ सभी को बराबर प्रसाद भी मिल गया।”
साधु बाबा के चेहरे पर भी आनंद का भाव था। उन्होंने तेनालीराम की बुद्धिमत्ता की खूब तारीफ करते हुए, उसे आशीर्वाद दिया। फिर हँसकर बोले, “महाराज, एक रहस्य की बात आपको बताऊँ। मेरे यहाँ आने का उद्देश्य आपको आशीर्वाद देने के साथ-साथ तेनालीराम से मिलना भी था। काशी नरेश ने एक बार मुझसे कहा था कि बाबा, एक बार आप विजयनगर जरूर जाएँ। वहाँ एक बड़ा चमत्कारी पुरुष है तेनालीराम, जो हर असंभव को संभव कर देता है। काशी नरेश की यह बात सुनकर मुझे बड़ी जिज्ञासा थी कि आखिर कौन है यह तेनालीराम? आज उसे आँखों से देख लिया और उसकी चतुराई भी। अब मैं खुशी-खुशी यहाँ से जा रहा हूँ।”
सुनकर तेनालीराम का चेहरा खिल गया। राजा कृष्णदेव राय और दरबारी भी खुलकर उसकी खूब प्रशंसा कर रहे थे।