Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 3

3

राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में

तेनालीराम की एक बड़ी खासियत यह थी कि बड़ी से बड़ी परेशानी के समय भी उसके चेहरे पर हमेशा हँसी खेलती रहती। राजपुरोहित के यहाँ से लौटकर भी उसकी यही हालत थी।

सच तो यह है कि तेनालीराम राजपुरोहित द्वारा किए गए अपमान को भूला नहीं था। रात-भर उसके भीतर दुख की गहरी आँधी चलती रही। उसे अफसोस इस बात का था कि राजपुरोहित को उसने कितना ऊँचा समझा था और कितना आदर-मान दिया था। पर उन्होंने तो एकदम स्वार्थी व्यक्ति की तरह आँखें फेर लीं। तेनालीराम का विश्वास जैसे टूट-सा गया था।

वह रात भर सोचता रहा कि राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में जाने पर कैसी परिस्थिति आएगी? इतने बड़े-बड़े विद्वानों और सभासदों के बीच कैसे वह अपना परिचय देगा? कहीं वहाँ भी उसके लिए कोई मुसीबत तो नहीं आ जाएगी?

रात भर तेनालीराम इसी उधेड़-बुन में रहा। लेकिन सुबह उठा तो उसका मन तरोताजा था। उसने सोचा, ‘मुझे इतना अधिक सोच-विचार करने की क्या जरूरत है? जैसी परिस्थिति होगी, वैसे ही बोलूँगा। राजा कृष्णदेव राय अवश्य मेरी सूझ-बूझ की दाद देंगे।’

अगले दिन सुबह-सुबह तेनालीराम राजा कृष्णदेव राय के दरबार की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचा तो पता चला, दरबार में बड़े-बड़े विद्वान आए हुए हैं और गहरा चिंतन चल रहा है। यह संसार क्या है? इसे लेकर सभी विद्वान अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

जब सभी लोग बोल चुके तो एक त्रिपुंडधारी विद्वान खड़ा हुआ। बोला, “महाराज, मैं काशी से आया हूँ। मुझे सभी लोग पंडिताचार्य कहकर बुलाते हैं। शायद इसलिए कि काशी तो क्या, दूर-दूर तक मुझसे बड़ा विद्वान कोई और नहीं है। मैंने यहाँ आए हुए विद्वानों की बातें सुनीं, लेकिन मेरा तो यह मानना है कि इस संसार को ज्यादातर लोग समझ ही नहीं पाए। यह संसार असल में एक सपना है। हम न चलते हैं, न बोलते हैं, न खाते-पीते हैं, न देखते और सुनते हैं। हमारा चलना-फिरना, बोलना, देखना-सुनना ऐसा ही है जैसे कोई सपने में ये काम कर रहा हो। असल में तो कोई न चलता है, न बोलता है, न खाता-पीता है। यह सब उसी तरह मिथ्या हैं, जैसे सपना! यह दुनिया सपने के सिवा कुछ नहीं है।”

काशी से आए पंडिताचार्य आखिरी विद्वान थे, जिनके प्रवचन के बाद सभा विसर्जित होनी थी। तब तक राजसेवकों ने शुद्ध घी में बने मोतीचूर के लड्डू, स्वादिष्ट मालपूए और एक से एक बढ़िया व्यंजन वहाँ लाकर रखने शुरू कर दिए थे, ताकि उन्हें सभी लोगों में बाँटा जा सके।

राजदरबार में स्वादिष्ट पकवानों की गंध फैली हुई थी। राजा कृष्णदेव राय ने हँसते हुए कहा, “अब जल्दी ही हम लोग स्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेंगे। इस बीच अगर आप में से किसी को उपस्थित विद्वानों के विचारों को लेकर कोई जिज्ञासा हो, तो पूछ लें।”

उसी समय तेनालीराम उठ खड़ा हुआ। बोला, “महाराज, मैं तेनाली गाँव से आया रामकृष्ण हूँ। लोग मुझे तेनालीराम कहकर पुकारते हैं। अगर इजाजत दें तो मैं पंडिताचार्य जी के महान विद्वतापूर्ण व्याख्यान को लेकर सिर्फ एक बात कहना चाहूँगा।”

राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को बोलने की इजाजत दे दी। इस पर तेनालीराम ने चेहरे पर बड़े गंभीर हाव-भाव लाकर कहा, “महाराज, काशी के पंडिताचार्य जी का व्याख्यान वाकई बड़ा अद्भुत था। उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। इसलिए मैं दूर से ही उन्हें प्रणाम कर लेता हूँ। पर महाराज, इसके साथ ही मेरा एक निवेदन और भी है। उसे कहते हुए थोड़ा संकोच हो रहा है। अगर आप आज्ञा दें तो मैं कहूँ।”

राजा कृष्णदेव राय तेनालीराम के बात कहने के ढंग से बड़े प्रभावित हुए। बोले, “हाँ, हाँ, कहो तेनालीराम। तुम क्या कहना चाहते हो? बिल्कुल निस्संकोच होकर कहो।”

तेनालीराम ने मुसकराते हुए बड़ी कौतुकपूर्ण मुद्रा में कहा, “महाराज, मेरा निवेदन है कि अभी-अभी जो बढ़िया लड्डू, मालपूए और स्वादिष्ट व्यंजन हम सभी को मिलने वाले हैं, वे काशी से आए हमारे आदरणीय पंडिताचार्य जी को न दिए जाएँ।”

“क्यों, क्यों...ऐसा क्यों?” राजा कृष्णदेव राय चौंके।

“महाराज, यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ,” तेनालीराम बोला, “क्योंकि पंडिताचार्य जी के हिसाब से तो इन स्वादिष्ट व्यंजनों को खाना ऐसा ही मिथ्या है, जैसे कोई सपने में खा रहा हो। लिहाजा हम लोग तो इन स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद लेंगे और पंडिताचार्य जी बैठे-बैठे कल्पना कर लें कि वे सपने में उन्हें खा रहे हैं!”

बात की चोट गहरी थी। सुनकर राजा कृष्णदेव राय, दरबारी और सभा में आए विद्वान एक पल के लिए चौंके, फिर सब एक साथ ठठाकर हँस पड़े। देर तक वह हँसी राजदरबार में गूँजती रही। सब हैरान थे, राजदरबार में आए इस अजनबी युवक ने कितना गहरा व्यंग्य किया था और उसकी बात में कितनी चतुराई थी।

राजा कृष्णदेव राय ने उसी समय तेनालीराम को पास बुलाकर कहा, “मैं तुम्हें अपने राजदरबार में रखना चाहता हूँ, ताकि तुम्हारी बातों की सूझ-बूझ और चतुराई का आनंद सभी लें।”

तेनालीराम सिर झुकाकर बोला, “महाराज, मैं तो तेनाली गाँव से यही सपना लेकर कई दिन, कई रातों से चलता हुआ यहाँ आया हूँ। आपने मुझे इतना मान-सम्मान ही नहीं, आश्रय भी दिया, यह बात कभी भूलूँगा नहीं।”

इस पर सभी ने तालियाँ बजाकर और वाह-वाह करते हुए राजा कृष्णदेव राय के निर्णय की प्रशंसा की। तेनालीराम ने देखा कि वाह-वाह करने वालों में राजपुरोहित ताताचार्य भी थे। देखकर उसके चेहरे पर अजीब-सी व्यंग्यपूर्ण मुसकान आ गई।

इस बीच, बेचारे पंडिताचार्य शर्मिंदा होकर न जाने कब वहाँ से प्रस्थान कर चुके थे।

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED