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रात को सपने में दिखाई दी वह मूरत
राजा कृष्णदेव राय ने विजयनगर में बहुत-से भव्य मंदिर बनवाए। कई पुराने जीर्ण-शीर्ण मंदिरों का भी उद्धार किया। जब भी उन्हें किसी प्राचीन मंदिर का पता चलता, वे स्वयं वहाँ पहुँचकर उसके जीर्णोद्धार का काम करवाते। फिर पूजा करके देवताओं का आशीर्वाद भी ग्रहण करते।
एक बार की बात, विजयनगर में खुदाई के समय राजा कृष्णदेव राय को एक प्राचीन मंदिर का पता चला। पता चला कि कई पीढ़ी पहले उनके पूर्वजों ने इसे बनवाया था। मंदिर काफी जीर्ण हालत में था। राजा ने उस मंदिर की जगह नया भव्य मंदिर बनवाने का आदेश दिया।
एक से एक मशहूर कारीगरों को बुलाकर यह जिम्मा सौंपा गया। लंबे समय तक निर्माण-कार्य चलता रहा। जब मंदिर बनकर तैयार हुआ, तो सवाल उठा कि मंदिर के लिए मूर्ति कहाँ से लाई जाए?
राजा ने दरबारियों से चर्चा की। सबने अपने-अपने सुझाव दिए। किसी ने कहा, मथुरा से मूर्तिकारों को बुलाकर मूर्ति बनवाई जाए, तो किसी ने काशी के संगतराशों को बुलवाने का सुझाव दिया। राजपुरोहित ताताचार्य ने कहा, “महाराज, अपने राज्य में भी कुशल मूर्तिकार हैं। आप कहें, तो मैं उनसे बेजोड़ मूर्ति बनवाकर ले आऊँ?”
एक पुराने दरबारी रंगाचार्य को अपने गाँव के एक शिल्पकार की याद आई। बोले, “आप कहें तो उससे पूछकर बताऊँ। वह वाकई सुघुड़ मूर्तिकार है।”
पर राजा को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने तेनालीराम से पूछा, “तुम बताओ, मूर्ति कहाँ से लाई जाए?”
तेनालीराम मुसकराया। बोला, “महाराज, कल रात मुझ सपने में वह मूर्ति दिखाई दी। मुझे लगा कि वह मूर्ति कह रही है, मैं मंत्री जी के घर आ गई हूँ। मुझे वहाँ से लाकर मंदिर में प्रतिष्ठा करवाओ। फिर देखते ही देखते वह मंत्री जी के घर-आँगन में जमीन के अंदर चली गई! वह मूर्ति बड़ी भव्य और अद्भुत है महाराज! मैंने तो आज तक कार्तिकेय की ऐसी सुंदर मूर्ति कोई और देखी नहीं। उसका मुखमंडल ऐसा था, जैसे प्रकाश निकल रहा हो। अगर खुदाई करवाई जाए तो...”
राजा ने उत्सुकता से कहा, “पर ठीक-ठीक जगह कैसे पता चले?”
तेनालीराम मुसकराया। बोला, “महाराज, यह तो मंत्री जी ही बता सकते हैं।”
सुनकर मंत्री के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उसने बता दिया कि आँगन में कहाँ मूर्ति गड़ी है। उसी समय कुछ सैनिक और राज कर्मचारी मंत्री जी के घर गए। जमीन में दबी मूर्ति ले आए। वह कार्तिकेय की अष्ट धातु की रत्नजड़ित मूर्ति थी। देखकर राजा समेत सभी चकित थे।
ठीक समय पर मंदिर में मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई। कुछ अरसे बाद राजा कृष्णदेव राय ने पूछा, “तेनालीराम तुम्हें मूर्ति का पता कैसे चला?”
तेनालीराम ने मुसकराते हुए कहा, “महाराज, आँख-कान खुले रखकर! फिर उसने बताया, “मुझे तो पहले ही दिन पता चल गया था कि मंदिर के साथ एक मूर्ति भी निकली है। पर मंत्री जी ने उसे अपने घर ले जाकर दबा दिया। खुदाई करने वाले मजदूरों ने मुझे आकर यह बात बता दी। मैंने सोचा, समय पर ही आपको बताऊँगा। जिन मजदूरों ने मंत्री जी के घर उस मूरत को दबाया था, उन्होंने भी आकर मुझे सब कुछ सच-सच बता दिया था। वह मूर्ति तो बाहर आनी ही थी। बस, यों समझिए कि मैं सही समय का इंतजार कर रहा था...!”
खुश होकर राजा ने मंदिर की देखभाल का जिम्मा भी तेनालीराम को ही सौंप दिया।