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उड़ाइए महाराज, अब इन्हें भी उड़ाइए
एक बार की बात है, विजयनगर राज्य का स्थापना दिवस निकट था। इसलिए पूरे राज्य में आनंद और उत्साह का वातावरण था। प्रजा मन ही मन अनुमान लगा रही थी, “देखें भला इस बार राजा कृष्णदेव राय किस रूप में इसे मनाते हैं? जरूर इस बार भी कोई न कोई अपूर्व और यादगार कार्यक्रम होगा।”
राजा कृष्णदेव राय ने प्रमुख दरबारियों की एक सभा बुलाई। कहा, “आप लोगों को पता ही है, विजयनगर का स्थापना दिवस हम हर वर्ष धूमधाम से मनाते हैं। इस अवसर पर ऐसे कार्यक्रम होते हैं, जिन्हें प्रजा बड़े चाव से देखती है और वर्ष भर बड़ी पुलक और आनंद के साथ याद करती है। हम चाहते हैं कि इस बार भी यह आयोजन यादगार हो। आप लोग बताइए, इसके लिए क्या-क्या तैयारियाँ की जाएँ?”
इस पर सभी ने अपना-अपना दिमाग लगाया। मंत्री ने राजधानी में अनोखी सजावट करने का सुझाव दिया। बोला, “अहा महाराज, कितना सुंदर दृश्य होगा, अगर इस अवसर पर विजयनगर के हर घर में दीयों की जगर-मगर और सजावट करके दीवावली मनाई जाए। साथ ही हर घर में रंगीन झंडियाँ लगाई जाएँ। प्रमुख राजमार्गों पर फूलों और आम्रपत्तों से तोरणद्वार बनें। वहाँ भी रोशनी की झिलमिल सजावट हो। इससे देश-विदेश से आए अतिथि बहुत प्रभावित होंगे। कहेंगे, विजयनगर में दो-दो दीवाली मनाई जाती हैं। एक जब श्रीरामचंद्र जी वन से लौटे थे और दूसरी तब जब विजयनगर की स्थापना की वर्षगाँठ मनाई जाती है।”
राजपुरोहित ताताचार्य ने इस अवसर पर विजयनगर के विद्वानों, कलाकारों और गणमान्य नागरिकों को शानदार भोज देने की बात कही। मुसकराते हुए बोले, “और महाराज, इस बढ़िया भोज के बाद विजयनगर के गुणवंत लोगों, विद्वानों, लेखकों, कलाकारों और खास-खास लोगों को आप जैसा परम सहृदय सम्राट अपने हाथों से राज्य के सम्मान सहित अंगवस्त्रम भेंट करे, तब तो यह सोने में सुहागा हो जाएगा। एकदम अपूर्व...विलक्षण!”
सेनापति ने इस अवसर पर प्रजा के बीच विजयनगर के वीर, रणबाँकुरे सैनिकों के युद्ध-कौशल के प्रदर्शन की चर्चा चलाई। बोला, “महाराज, इससे एक पंथ दो काज हो जाएँगे। हमारे शस्त्रों और युद्धकौशल के प्रदर्शन से विजयनगर की प्रजा उत्साहित और गौरवान्वित होगी तो दूसरी ओर हमें तंग करने वाले शत्रुओं के कलेजे दहलेंगे और वे सपने में भी हमारी ओर टेढ़ी आँख करना भूल जाएँगे।”
राजा कृष्णदेव राय खुद मौन रहकर सब कुछ सुन रहे थे। सभासदों ने भी अपने-अपने ढंग से बात कही। बहुत-से सुझाव आए। कुछ तो एकदम अजीबोगरीब थे। राजधानी में अपने ढंग की अनोखी रथ-दौड़ कराने से लेकर घुड़सवारी और नई-नई कला-प्रतियोगिताओं का भी सुझाव आया। पर ये सभी काम पहले हो चुके थे। राजा कृष्णदेव राय ने कहा, “ये सभी सुझाव अच्छे हैं। पर हम चाहते हैं, इस बार कुछ नया हो। आप लोग यह बताइए कि इस बार नया क्या हो सकता है?”
सुनकर सारे दरबारी चुप। बिल्कुल नया क्या हो सकता है? किसी की समझ में नहीं आया।
तभी राजा के एक मुँहलगे सभासद राजलिंगम ने कहा, “महाराज, पक्षियों के साथ कुदरत की लीला जुड़ी हुई है। पक्षियों की मुक्ति का अर्थ है, स्वतंत्रता। विजयनगर का स्थापना दिवस भी तो हमारी प्रजा के लिए एक नूतन स्वतंत्रता लेकर आया था। तो क्यों न इस बार आकाश में पक्षियों को उड़ाकर विजयनगर का स्थापना दिवस अनोखे ढंग से मनाया जाए?”
और फिर उसने पूरी योजना बता दी। बोला, “बहेलियों को हम पहले से ही कह देंगे। वे परिंदों के एक हजार एक सौ एक पिंजरे लेकर आएँगे। सारे पिंजरों के मुँह एक ही सुनहरे रंग की रेशमी डोरी से बँधे होंगे। जैसे ही आप उस सुनहरी डोरी को खींचेंगे, सभी पिंजरों के पक्षी एक साथ आजाद हो जाएँगे और मुक्त आकाश में उड़ान भरेंगे। सब ओर उड़ते हुए परिंदे ही परिंदे। सचमुच कितना अद्भुत और विहंगम दृश्य होगा!”
सुनकर दरबारियों के चेहरों पर मुसकान छा गई। राजा कृष्णदेव राय भी खुश थे। तेनालीराम ने विरोध करना चाहा, पर बात हँसी-कहकहों में दब गई।
अगले दिन से धूमधाम से तैयारियाँ होने लगीं। राजधानी में खूब जगर-मगर हुई। फूलों के बंदनवार सजाए गए। पक्षियों को पकड़ने का काम कुछ बहेलियों को सौंप दिया गया।
मुख्य आयोजन वाले दिन जैसे ही राजा कृष्णदेव राय मंच पर आए, उन्होंने एक सुनहरी डोर को खींचा। खींचते ही एक साथ सभी पिंजरों के मुँह खुल गए। एक हजार एक सौ एक पिंजरे थे। उनके खुलते ही असंख्य रंग-बिरंगे पक्षी ‘चीं-चीं’ करते आसमान में उड़ने लगे। फिर गीत-नृत्य के कार्यक्रम हुए। अचानक राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम का ध्यान आया। बोले, “तेनालीराम अभी तक नहीं आया।”
मंत्री बड़े कटाक्ष के साथ बोला, “महाराज, इस बुढ़ापे में उसे ये सब बातें कहाँ अच्छी लगेंगी?” सुनकर वहाँ खड़े दरबारी हँसने लगे। राजपुरोहित ताताचार्य भी मुसकरा रहे थे।
तभी तेनालीराम आता दिखाई पड़ा। हाथ में सफेद कपड़े से ढकी टोकरी लिए। पास आया तो राजा कृष्णदेवराय ने कहा, “यह क्या तेनालीराम?”
“महाराज, आपके लिए अमूल्य उपहार!” कहकर तेनालीराम ने टोकरी का मुँह खोल दिया।
राजा कृष्णदेवराय चौंके, टोकरी में कुछ घायल परिंदे थे। किसी का पंख कटा हुआ था, तो किसी का पंजा। एक-दो परिंदों की आँखों पर तीर लगे थे और आसपास खून जम गया था। सभी परिंदे बुरी तरह डरे और सहमे हुए थे। उनकी आँखें ऐसी लग रही थीं, जैसे वे रो रहे हों और रोते-रोते मदद की गुहार कर रहे हों।
राजा कृष्णदेव राय को कुछ समय में नहीं आया कि भला तेनालीराम यहाँ उन्हें क्यों लाया है। उन्होंने सवालिया निगाहों से तेनालीराम की ओर देखा। तेनालीराम बोला, “महाराज, अब इन्हें भी उड़ाइए!...उड़ाइए महाराज, खूब उड़ाइए!”
“मगर ये तो घायल हैं।” राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर परेशानी झलक उठी। तुरंत उन्हें कुछ ध्यान आया। बोले, “किसने इनकी दुर्दशा की? हम उसे सजा देंगे।”
तेनालीराम बोला, “क्षमा करें महाराज, परिंदों को पकड़ने का आदेश तो आपने ही दिया था, ताकि सभा में सबके सामने इन्हें छोड़ा जाए। सचमुच सभा में इतने बड़े-बड़े सम्मानित लोगों के सामने इन्हें हवा में छोड़ते हुए आपको बहुत आनंद मिला होगा। पर आप शायद भूल गए कि बहेलियों ने जंगल में हाँका किया, जाल बिछाए, तीर भी चलाए, तब ये पकड़े गए। बहुत-से परिंदे घायल हुए, मर भी गए। आपने रँगारंग उत्सव मनाया, और इसकी कीमत इन बेजान परिंदों को चुकानी पड़ी। ये अपनी व्यथा कह नहीं पाते। पर इनकी आँखें इनके दर्द की सारी करुण कहानी कह रही हैं। उसे पढ़ना इतना कठिन नहीं है महाराज! हम चाहें तो उसे साफ पढ़ सकते हैं...!”
सुनकर राजा कृष्णदेव राय चुप। कहा, “तेनालीराम, तुमने हमारी आँखें खोल दीं। आज से ये परिंदे मुक्त हैं, मुक्त रहेंगे। घायल परिंदों का इलाज कराके, इन्हें भी छोड़ दिया जाएगा।”
एक पल रुककर राजा कृष्णदेव राय ने कुछ सोचा। फिर तेनालीराम के पास आकर उसका कंधा थपथपाते हुए कहा, “तुम्हारा दुख मैं समझ रहा हूँ तेनालीराम। और आज मुझे याद आ रहा है, जब हमने राज्य की स्थापना दिवस पर परिंदों को उड़ाने का कार्यक्रम बनाया तो तुमने इसका विरोध किया था। तब मैं समझा नहीं था। अब समझ में आ रहा है कि तुम क्या कहना चाहते थे। वाकई ये परिंदे तो कुदरत की आनंद लीला हैं। अपने आनंद के लिए पहले बहेलियों से इन्हें पकड़वाना और फिर छुड़ाने का नाटक तो भारी क्रूरता है। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज के बाज कभी मेरे शासन में विजयनगर में ऐसा नहीं होगा।”
सुनकर तेनालीराम के चेहरे पर संतोष झलकने लगा। वे चापलूस दरबारी जो थोड़ी देर पहले तक तेनालीराम की खिल्ली उड़ा रहे थे, अब शर्म से पसीने-पसीने थे।
राजा कृष्णदेव राय ने न सिर्फ परिंदों का इलाज करवाकर उन्हें मुक्त उड़ान के लिए छोड़ दिया, बल्कि साथ ही घायल परिंदों के इलाज के लिए उन्होंने एक अस्पताल भी खुलवाया। वहाँ पक्षियों की सेवा का जिम्मा तेनालीराम को मिला।
विजयनगर की प्रजा ने तेनालीराम की उदारता का यह किस्सा सुना, तो खूब वाहवाही की।