इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 5 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 5

5

आया बीच में पहाड़

विजयनगर सम्राट राजा कृष्णदेव राय बड़े वीर और प्रतापी राजा थे। उनकी वीरता का डंका दूर-दूर तक बजता था। कहा जाता है कि उनके धनुष की टंकार से दिशाएँ काँपती थीं। पर पड़ोसी देश फिर भी निर्लज्जता से कुछ न कुछ उत्पात करते रहते थे। वे राजा कृष्णदेव राय की की कीर्ति और यश को सहन नहीं कर पाते थे। इसलिए मन ही मन उनसे ईर्ष्या करते थे और जब-तब उन्हें परेशान करने का कोई न कोई मौका खोज ही लेते थे। राजा कृष्णदेव राय इससे चिंतित रहते थे।

एक बार की बात है, सीमा पर शत्रु राजा की गतिविधियाँ तेज हो गईं। वैसे तो पड़ोसी देश नीलपट्टनम के दबे-छिपे षड्यंत्र चलते ही रहते। पर इस बार वहाँ का शासक राजकीर्ति बार-बार बीहड़ जंगलों और चोर रास्तों से अपनी सेनाएँ भेजकर विजयनगर की सेना और प्रजा को अशांत किए हुए था। शत्रु सैनिक कभी भी आक्रमण कर देते और फिर बहुत-से दुश्मन के जासूस विजयनगर में घुसपैठ करने में कामयाब हो जाते। वे यहाँ आकर प्रजा को विद्रोह के लिए भड़काते और जगह-जगह लूटपट और तोड़-फोड़ करते। इसी कारण चोरी-डकैती और अपराध की घटनाएँ भी बढ़ गईं।

नीलपट्टनम की सेना के आकस्मिक आक्रमण और चोरी-छिपे घुसपैठ के जवाब में जब विजयनगर की सेना जवाब देने के लिए आगे आती, तो शत्रु सैनिक एकाएक भाग खड़े होते। कुछ पीछे हटकर सुरक्षित स्थान पर खड़े हो जाते। विजयनगर की सेना वापस लौट आती। पर कुछ समय बाद फिर से शत्रु की नापाक गतिविधियाँ शुरू हो जातीं। कुत्ते की टेढ़ी पूँछ की तरह शत्रु भी टेढ़ा था। कभी दुम दबाकर भागता, कभी फिर तनकर आ जाता। इस बात से राजा कृष्णदेव राय बहुत परेशान थे।

उन्होंने दरबारियों से पूछा, “शत्रु सीधे-सीधे लड़ना भी नहीं चाहता और हमें शांति से बैठने भी नहीं दे रहा। उसका एकमात्र उद्देश्य हमें परेशान करता है, ताकि हमारी प्रजा सुख की साँस न ले सके। अब आप लोग बताइए, इन परिस्थितियों में क्या उपाय करना चाहिए?”

राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर चिंता का भाव था। लंबे समय से चली आ रही पेशानी का अब वे स्थायी हल खोजना चाहते थे। इसीलिए दरबारियों के साथ बैठकर वे इस समस्या पर विचार कर रहे थे।

सभी दरबारी अपनी-अपनी सलाह दे रहे थे। राजपुरोहित ताताचार्य ने तो यहाँ तक कहा कि “महाराज, शत्रु देश की गतिविधियाँ समाप्त करने का बस एक ही तरीका है कि उसका अंत कर दिया जाए। जब हम उसे जीत लेंगे, तभी ये दुष्टता भरे षड्यंत्र खत्म होंगे।”

राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री की ओर देखा तो उसने भी कहा, “महाराज, लगता है, अब तो युद्ध जरूरी हो गया है।”

सेनापति ने जोश में आकर कहा, “आप हमें आज्ञा दें महाराज, हमारी सेना शत्रुओं को गाजर-मूली की तरह काट डालेगी।”

राजा कृष्णदेव एक क्षण चुप रहे। फिर उन्होंने कहा, “मंत्री जी और सेनापति जी, मुझे आप लोगों की बात पर भरोसा है। युद्ध लड़कर मैं इस दुष्ट राजा को छठी का दूध याद दिला सकता हूँ। पर मेरा विचार है कि युद्ध तो किसी भी प्रजा-वत्सल राजा का आखिरी हथियार होना चाहिए। अगर मैं युद्ध में ही अपनी सारी शक्ति झोंक दूँगा तो प्रजा की भलाई के काम कब होंगे? इस तरह रक्तपात उचित नहीं है। प्रजा तो अमन चाहती है, सुख-शांति चाहती है। और ऐसे ही राज्य में कला और संस्कृति रह सकती है, जिसमें अमन और शांति हो।”

“तब तो महाराज, ये रोज-रोज की परेशानियाँ हमें झेलनी ही होंगी।” मंत्री ने कहा, “हम इतने लंबे समय से देख रहे हैं कि शत्रु के घुसपैठिए हमारे देश में उपद्रव करने से बाज नहीं आ रहे। हमने उन्हें सही पाठ नहीं पढ़ाया तो वे काबू में नहीं आएँगे।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय गंभीर हो गए। बोले, “हाँ, समस्या गंभीर है, इसका हल तो खोजना ही होगा। मैं चाहता हूँ कि बिना लड़े ही समस्या का हल हो जाए। और अगर लड़ना ही जरूरी हो, तो इस बार ऐसा युद्ध हो कि दुश्मन फिर आगे कभी सिर न उठा पाए।”

कहते-कहते राजा गंभीर हो गए। कुछ सोचकर उन्होंने कहा, “कल इस समस्या पर हम लोग आगे विचार करेंगे। फिर जो भी हल समझ में आएगा, वैसा करेंगे। आप सब लोग इस बारे में अच्छी तरह सोच-विचार करके आइए।”

अगले दिन दरबार में फिर से इस समस्या पर विचार शुरू हुआ। सबने अपनी-अपनी राय दी। बहुत-से सभासद तुरंत युद्ध छेड़ने की बात कर रहे थे। पर तेनालीराम की राय अलग थी। उसने कहा, “महाराज, हमारी समस्या शत्रु सैनिकों की घुसपैठ है। पर इसका तो बड़ा आसान इलाज है कि सीमा पर काँटेदार तारों के साथ एक ऊँची दीवार खींच दी जाए।”

“पर क्या इससे शत्रु की घुसपैठ वाकई रुक पाएगी?” राजा कृष्णदेव राय ने पूछा।

“महाराज, उस दीवार के इस ओर बीच-बीच में हमारे सैनिक भी तो होंगे। दीवार खिंच जाने पर वे शत्रु सेना के घुसपैठिओं को आसानी से काबू कर सकते हैं। हमारी मुश्किल बस यही तो है कि शत्रु सेना आक्रमण की ढाल के सहारे अपने सैनिकों की घुसपैठ करा देती है। शत्रु के जासूस हमारे देश में जगह उपद्रव और उत्पात करते हैं। अपराध की घटनाएँ होती हैं। सीमा पर दीवार खिंच जाने से यह सब कुछ शांत हो जाएगा।”

राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न होकर बोले, “तेनालीराम की बात में दम है।”

आखिर तय हुआ कि सीमा पर दीवार खड़ी कर दी जाए, जिससे शत्रु सैनिक राज्य में घुसकर उपद्रव न कर पाएँ। सीमा पर दीवार खिंचवाने का काम तेनालीराम को सौंपा गया।

अगले दिन से ही तेनालीराम ने राजकोष से धन लेकर अपना काम शुरू कर दिया। सुबह से लेकर शाम तक वह अपनी निगरानी में दीवार बनवाता। फिर सैनिकों को पहरे पर बैठाकर घर चला जाता। अगले दिन फिर काम शुरू हो जाता। उसकी व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी।

कुछ दिन बाद राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को बुलाकर पूछा, “अभी कितना काम हुआ? कितनी दीवार बन गई, कितनी और बननी है?”

तेनालीराम बोला, “महाराज, अभी देर है। काम पूरा होने में अभी समय लगेगा।”

पर राजा के मन में गहरी व्यग्रता थी। कुछ दिन बाद उन्होंने फिर तेनालीराम को बुलाकर पूछा, “तेनालीराम, काम पूरा हुआ या नहीं?”

तेनालीराम गंभीर था। बोला, “महाराज, अभी देर है।”

“क्या बात है तेनालीराम?” राजा कृष्णदेव राय को गुस्सा आ गया। बोले, “कब तक दीवार पूरी होगी? यह जरा सी दीवार तुमसे पूरी नहीं हो पाई। खजाने से पैसा तो काफी निकाला गया था, क्या वह कम पड़ गया? या तुम्हें अभी तक कारीगर नहीं मिले? बताओ, बात क्या है?”

सुनकर तेनालीराम एक क्षण के लिए चुप रहा। फिर बोला, “महाराज, दीवार तो कब की बन जाती, लेकिन बीच में पहाड़ आ गया। यही मुश्किल है।”

“पहाड़!...मगर वहाँ पहाड़ तो कोई नहीं है। तुम क्या कह रहे हो तेनालीराम? होश में तो हो!” राजा चकरा गए।

“चलिए महाराज, अभी दिखा देता हूँ वह पहाड़।” तेनालीराम ने शांत स्वर में कहा।

राजा कृष्णदेव राय उसी समय तेनालीराम, मंत्री, सेनापति और कुछ प्रमुख दरबारियों को लेकर सीमा पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि दीवार आधी बनी है, पर उसका आगे और ऊपर का काफी हिस्सा गिरा दिया गया है।

उन्होंने इधर-उधर देखा और पूछा, “तेनालीराम, पहाड़ कहाँ है? मुझे तो नहीं दिखाई पड़ रहा।”

“अभी दिखाई पड़ेगा, महाराज!” कहकर तेनालीराम ने इशारा किया। तुरंत सैनिक गए और पास ही बनी एक कोठरी से आठ-दस लोगों को पकड़कर ले आए। सबके हाथों में हथकड़ियाँ थीं। तेनालीराम बोला, “देखिए महाराज, यह रहा पहाड़।”

“पर पहाड़...! कैसे?” राजा ने हैरान होकर पूछा।

“महाराज, ये शत्रु देश के जासूस हैं, पर हमारी दीवार के लिए ये पहाड़ इसलिए बन गए कि हम दीवार बनाते हैं तो ये हर बार गिरा जाते हैं। और जब-जब इन्हें पकड़ा जाता है, ये फिर छूट जाते हैं।”

“फिर छूट जाते हैं, कैसे?” राजा ने अचंभे से भरकर पूछा।

“यह तो महाराज मंत्री जी से पूछिए। क्योंकि उन्हीं के आदेश से ये हर बार जेल से छूटते हैं। आप चाहें तो कारागार निरीक्षक को बुलवाकर पूछ लें कि इन्हें कौन कहाँ जाकर छुड़वा देता है!...सच्ची बात तो यह है महाराज, कि हमारे देश में भी इन घुसपैठियों के बहुत-से शुभचिंतक और हितैषी हैं और वे दुर्भाग्य से, मंत्री जी के भी मित्र हैं।”

सुनकर राजा ने मंत्री की ओर देखा। मंत्री के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसने सिर झुकाकर कहा, “माफ कीजिए, महाराज मुझसे भूल हुई।”

पता चला कि मंत्री की बहुत-से षड्यंत्रकारियों से मित्रता थी और इसका लाभ शत्रु को हो रहा था। पर मंत्री अपने फायदे के आगे राज्य के हित को भूल गया था।

“मंत्री जी, राजधर्म निभाइए, वरना आपको भी वहीं भेज दिया जाएगा, जो देश के दुश्मनों की सही जगह है।” राजा ने क्रोध में आकर कहा।

सुनकर मंत्री थर-थर काँपते हुए राजा कृष्णदेव राय के पैरों पर गिर पड़ा। बोला, “क्षमा करें महाराज! अब यह भूल कभी नहीं होगी...कभी नहीं।”

उस दिन के बाद दीवार तो बड़ी तेजी से पूरी हुई ही, शत्रु की गतिविधियाँ भी खत्म हो गईं। साथ ही घुसपैठियों का साथ देने वाले लोगों को भी देशद्रोह की सजा मिल गई। पहाड़ अब राई हो चुका था, इसलिए कि अंदर के दुश्मन का भेद मिल गया था।

विजयनगर में जिसने भी यह किस्सा सुना, तेनालीराम की जी भरकर प्रशंसा की। सब ओर उसकी वाहवाही होने लगी। साथ ही राजदरबार में भी उसका सिक्का जम गया था।