इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 8 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 8

8

दिखाया तीतर ने कमाल

राजा कृष्णदेव राय के दरबार में बड़े-बड़े विद्वानों के साथ ही अनेक विद्याओं के जानकार और कलावंत लोग भी आया करते थे। राजा उनका सम्मान करते थे और उन्हें कीमती पुरस्कार देकर विदा करते थे। इसी तरह वे तरह-तरह के घोड़ों और पशु-पक्षियों के भी बड़े शौकीन थे। अच्छी नस्ल के घोड़ों और तरह के पशु-पक्षियों की उन्हें बहुत अच्छी जानकारी थी। अगर कोई सुंदर पशु-पक्षी लेकर दरबार में आता तो राजा खुश हो जाते थे। लाने वाले को उचित मूल्य देकर वे उन पशु-पक्षियों को अपने दरबार में रख लेते थे। फुर्सत के क्षणों में इनसे वे मनबहलाव करते थे। साथ ही दरबारियों को भी बड़ी रुचि से उनकी विशेषताओं के बारे में बताते थे।

एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में नील पर्वत के घने जंगल में रहने वाला एक चिड़ीमार मुत्तू आया। वह आदिवासी था और उसकी वेशभूषा भी निराली थी। उसने पक्षियों के परों का रंग-बिरंगा मुकुट पहना हुआ था। वस्त्र भी कुछ अलग ढंग के। साथ में तीर-कमान भी था। उसके पास बहुत-से छोटे-छोटे तीतर थे। चिड़ीमार मुत्तू ने कहा, “महाराज, तीतरों की लड़ाई मशहूर है। सिखाए जाएँ तो ये तीतर बड़े लड़ाकू बन सकते हैं।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय को हँसी आ गई। बोले, “वाह मुत्तू, यह तो तुमने अच्छी बात कही। अगर ये सचमुच लड़ाकू हो जाएँ, तब तो इन्हें सीमा पर दुश्मन से लड़ने भी भेजा जा सकता है!”

सुनकर दरबारी हँसने लगे, मुत्तू भी।

राजा कृष्णदेव राय ने मुत्तू से वे सभी तीतर खरीद लिए और उसे ढेर सारा पुरस्कार देकर विदा किया।

दरबार में उस दिन काम कुछ कम था, इसलिए तीतरों की बात छिड़ी तो लंबी चलती गई। अचानक राजा कृष्णदेव राय को चुहल सूझी। उन्होंने एक-एक तीतर दरबारियों को दिया। कहा, “आप अपने-अपने तीतर को लड़ना सिखाइए। देखें, किसका तीतर जीतता है?”

इस पर सारे दरबारी अचकचाए। सोच रहे थे, “यह कैसी मुसीबत गले पड़ी?” फिर एक मुश्किल यह थी कि अकेला तीतर भला कैसे लड़ना सीखेगा? पर यह बात भला राजा से कौन कहे?

राजा कृष्णदेव राय भी मंद-मंद मुसकराते हुए दरबारियों की ओर देख रहे थे। अचानक उन्होंने सेनापति गजेंद्रपति की ओर इशारा करते हुए कहा, “आपका तीतर तो सबसे लड़ाकू साबित होना चाहिए सेनापति जी। आप कोशिश कीजिए कि यह सारे दाँव-पेच सीख जाए। हमें बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा है उस घड़ी की, जब हम आप सबके तीतरों का कमाल देख पाएँगे।”

इस पर सेनापति ने कुछ हैरान-परेशान होकर कहा, “महाराज, अकेला तीतर कैसे लड़ना सीखेगा?” बाकी दरबारियों ने भी अपने-अपने ढंग से यही कहा।

राजा कृष्णदेव राय बोले, “यही तो देखना है। आपमें से कोई अपना तीतर किसी दूसरे को नहीं देगा। और मैं यह भी चाहता हूँ कि आप खुद अपने तीतर को लड़ना सिखाइए किसी और की मदद मत लीजिए। मैं तीतर के जरिए आपकी होशियारी और युद्ध-कला देखना चाहता हूँ।”

दरबारी भला क्या कहते! वे मुँह लटकाए हुए अपना-अपना तीतर घर ले आए। सबकी हालत बुरी थी। दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था। घर के लोगों ने पूछा, तो सबने अपने-अपने ढंग से एक ही बात कही, “पता नहीं, हमारे राजा कृष्णदेव राय को कभी-कभी क्या हो जाता है? कब कौन सी मुसीबत खड़ी कर दें, कुछ पता ही नहीं चलता।”

कुछ दिन बीते। अचानक एक दिन राजा कृष्णदेव राय को तीतरों की बात याद आ गई। पूछा, “क्या आप लोगों ने तीतरों को लड़ना सिखा दिया? मैं समझता हूँ, तीतरों को लड़ाई के दाँव-पेच सिखाने के लिए इतना समय काफी है।”

सुनकर सभी दरबारी चुप। मंत्री ने धीरे से कहा, “महाराज, बहुत कोशिश की। लेकिन अकेला तीतर लड़ना सीख ही नहीं सकता।”

दूसरे दरबारियों के चेहरे भी लटके हुए थे। सभी ने मंत्री की हाँ में हाँ मिलाई। एक नया दरबारी देव कुंडलम बोला, “महाराज, मैंने इस बीच अपने सभी शास्त्रों का अध्ययन किया है। कहीं भी अकेले तीतर को लड़ना सिखाने की विधि नहीं लिखी। तो बताइए, मैं उससे कैसे सिखाता?”

राज पुरोहित ताताचार्य ने भी कहा, “हाँ महाराज, देव कुंडलम ठीक कह रहा है। किसी भी शास्त्र में ऐसी कोई विधि नहीं लिखी।”

राजा कृष्णदेव राय कुछ देर सोचते रहे। फिर उन्होंने तेनालीराम से पूछा। तेनालीराम ने कहा, “महाराज, किस शास्त्र में क्या लिखा है, यह तो मैं नहीं बता सकता। पर हाँ, मेरा तीतर तो लड़ाई के कितने ही दाँव-पेच सीख चुका है।”

सुनकर सारे दरबारियों ने एक साथ कहा, “ऐसा हो ही नहीं सकता महाराज! ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता। तेनालीराम सरासर झूठ बोल रहा है।”

राजा कृष्णदेव राय बोले, “ठीक है, कल तेनालीराम अपना तीतर लाएगा, दूसरे दरबारी भी। तेनालीराम का तीतर बाकी सभी तीतरों से एक-एक कर लड़ेगा। हार गया, तो तेनालीराम को सजा मिलेगी। जीता तो तेनालीराम को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ इनाम में मिलेगा।”

सुनकर दरबारी मन ही मन खुश हुए। सोचने लगे, “अब होगी तेनालीराम की किरकिरी!”

सेनापति ने कहा, “एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तो बेचारे को कभी सपने में भी नहीं मिली होंगी। चलो, इसी बहाने रात में एक अच्छा सपना तो देख लेगा! भले ही नींद खुलने के साथ वह हवा हो जाए।”

मंत्री ने दरबारियों को चेताते हुए कहा, “तेनालीराम जरूर कोई चालाकी करेगा। तुम लोग सतर्क रहना। तुरंत इस बारे में राजा को बताना, ताकि उसकी खूब बेइज्जती हो।”

अगले दिन शाम के समय राजा के बगीचे में सभी दरबारी तीतर लेकर पहुँचे। तेनालीराम भी अपना तीतर लेकर आया।

लड़ाई शुरू हुई। लेकिन यह क्या! देखते ही देखते तेनालीराम का तीतर दूसरे तीतरों पर बिजली की तरह झपटा। उसमें कमाल की तेजी और बाँकपना था। गरदन एकदम सीधी तनी हुई। चुस्ती-फुर्ती भी गजब की!...थोड़ी ही देर में उसने एक-एक कर सभी को पछाड़ दिया। देखकर सभी दरबारियों के चेहरे फक पड़ गए। किसी के मुँह से आवाज तक नहीं निकली। सब सोच रहे थे, “कहीं तेनालीराम ने इस तीतर पर जादू तो नहीं कर दिया। वरना अकेला तीतर भला कैसे लड़ सकता था?”

राजा कृष्णदेव राय भी हैरान थे। बोले, “कमाल है तेनालीराम! पर तुमने ऐसा कैसे कर दिखाया? खुद मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ।”

तेनालीराम मंद-मंद हँसी के साथ बोला, “महाराज, ऐसी कोई ज्यादा मुश्किल तो नहीं आई। असल में सुबह-शाम मैं तीतर को आईने के आगे छोड़ देता था। तीतर अपनी परछाईं को दूसरा तीतर समझ झपटता। जल्दी ही इसने लड़ाई के दावँ-पेच सीख लिए।...और फिर उसका कमाल तो आपने देख लिया!”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुसकराए। दरबारियों की ओर देखकर बोले, “देखा आपने, इसीलिए तो हमें तेनालीराम की जरूरत है।”

उन्होंने एक लाख स्वर्णमुद्राओं से भरी थैली तेनालीराम को इनाम में दी। इस पर तेनालीराम तो ठठाकर हँस रहा था, मगर बाकी दरबारियों की जो हालत थी, उसकी कल्पना आप खुद कर लीजिए!