Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 9

9

नन्हे दीयों की खिलखिलाहट

राजा कृष्णदेव राय के दरबार में दीवाली का उत्सव बड़ी धूम-धाम के साथ मनाया जाता था। दीवाली पर राजमहल ही नहीं, पूरे विजयनगर में ऐसी भव्य सजावट और ऐसी अद्भुत जगर-मगर होती के लोग पूरे साल भर उसे याद करते और सराहते। राजधानी में जगह-जगह कदली पत्रों से तोरण-द्वार बनते। रंग-बिरंगी झंडियों से बंदनवार सजाए जाते। कभी-कभी राजा कृष्णदेव राय पड़ोसी राज्यों के भूपतियों को भी इस भव्य आयोजन में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते। ऐसे अवसरों पर तो विजयनगर का दीवाली उत्सव सचमुच दर्शनीय हो जाता। अतिथि राजा भी राजा कृष्णदेव राय की महिमा, उदारता और आतिथ्य की भूरि-भूरि सराहना करते हुए घर जाते।

इस बार भी दीवाली नजदीक थी और प्रजा की निगाहों में बेहद उत्सुकता थी कि इस बार राजा कृष्णदेव राय पूरे विजयनगर में दीवाली पर कैसी जगर-मगर करते हैं। हर बार दीपोत्सव में कुछ न कुछ नई बात देखने को मिलती थी। पता नहीं, इस बार विजयनगर की प्रजा को दीवाली की कौन सी नई और मनोरम झाँकी देखने का आनंद मिलने वाला था?

खुद राजा कृष्णदेव राय भी यही सोच रहे थे। दीवाली का उत्सव नजदीक था और वे कुछ तय नहीं कर पाए थे कि इस बार उसे कैसा रूप दिया जाए, जिससे दीपोत्सव का हर्षोल्लास कुछ और बढ़ जाए।

आखिर कुछ सोचकर उन्होंने राजदरबार में कहा, “मेरा मन है कि इस बार दीवाली कुछ अलग तरह से मनाई जाए। आप लोग बताइए कि ऐसा क्या हो सकता है, जिससे हमारी प्रजा को आनंद मिले और दीवाली का उत्सव यादगार बन जाए?”

इस पर दरबारियों में उत्साह की तरंग सी छा गई। सबने तरह-तरह को सुझाव दिए। मंत्री बोला, “महाराज, यह तो सभी जानते हैं कि दीपावली लक्ष्मी-पूजन का पर्व है। तो क्यों न इस दीवाली पर हम सचमुच लक्ष्मी जी को प्रसन्न करें? इसके लिए उचित होगा कि दीपावली पर राजकोष के दुर्लभ हीरे-मोतियों की प्रदर्शनी लगाकर हम भी अपनी राजलक्ष्मी का प्रदर्शन करें। इससे लक्ष्मी जी तो प्रसन्न होंगी ही, साथ ही प्रजा के मन में विजयनगर राज्य के लिए गर्व की भावना उत्पन्न होगी।”

राजपुरोहित ताताचार्य ने कहा, “महाराज, जिस तरह बाहर दीवाली की जगर-मगर होती है, ऐसे ही हमारे दिलों में भी दीपों का पवित्र उजाला फैलता है। जिनके मन प्रकाशित होते हैं, ऐसे विद्वान दूर-दूर तक उजाला फैलाते हैं। इसलिए मेरा विचार है कि दीपावली पर दूर-दूर से अपने राज्य के बड़े विद्वानों को बुलाकर उनका सम्मान किया जाए। आखिर उन्हीं के कारण तो पूरे विश्व में विजयनगर की कीर्ति का उजाला फैल रहा है।”

सेनापति गजेंद्रसिंह ने कहा, “महाराज, मेरा तो सुझाव यह है कि इस अवसर पर अपने पड़ोस के राजाओं को बुलाकर उनके सम्मान में कोई विशेष आयोजन हो। इससे हमारी शक्ति बढ़ेगी और दबदबा भी। सारी दुनिया हमारी धाक मानेगी।”

बड़ी भारी तोंद वाले एक भोजनभट्ट दरबारी पुंगीदास ने हँसते हुए कहा, “महाराज, बहुत दिनों से राज्य की ओर से दावत नहीं दी गई। इस दीपावली पर छत्तीस व्यंजनों की ऐसी बढ़िया दावत हो कि लोग कभी भूल न पाएँ!”

पुंगीदास ने बात इस तरह आनंद में लीन होकर कही थी कि सुनकर सब जोर से हँस पड़े। राजा कृष्णदेव राय भी मुसकराए, पर उनकी मुख-मुद्रा अब भी गंभीर थी।

वे कुछ देर सोचते-विचारते रहे। पर उन्हें कोई सुझाव नहीं जँचा। बोले, “ऐसा तो पहले भी हो चुका है। हम चाहते हैं कि इस बार कुछ अलग-सा कार्यक्रम हो। कुछ नयापन हो, जिससे हमारी प्रजा आनंदित हो, साथ ही दीवाली का संदेश दूर-दूर तक जाए।”

तेनालीराम मुसकराता हुआ बोला, “फिर तो महाराज एक ही बात हो सकती है। वह यह कि हर बार तो दीवाली पर रात में दीए जलते हैं, पर इस बार दिन में ही सब ओर दीयों का उजाला किया जाए।”

सुनकर सब दरबारी हँसने लगे। मंत्री बोला, “महाराज, तेनालीराम तो बिल्कुल ही सनक गया है। लगता है, बूढ़ा होने के कारण इसकी अक्ल भी बूढ़ी हो गई है। इसीलिए बहकी-बहकी बातें कर रहा है। भला दिन में उजाला कैसे हो सकता है?”

“हो सकता है, महाराज।” तेनालीराम बोला, “मेरा सुझाव है कि इस बार आप राजधानी के बच्चों के साथ दीपावली मनाएँ। हँसते-खिलखिलाते बच्चों के बीच आप दीपावली का उत्सव मनाएँगे, तो लगेगा कि दिन में ही चारों ओर दीयों का प्रकाश फैल गया है। इसके लिए राजउद्यान में बच्चों का एक अनोखा मेला लगाया जाए। उसमें बच्चे अपने ढंग से मंच की सजावट करके मनचाहे कार्यक्रम पेश करें। मेरा यह भी सुझाव है कि उसमें किसी बड़े का दखल न हो। तब वाकई लगेगा कि बच्चों की एक हँसती-खिलखिलाती दुनिया बस गई है। उन बच्चों के साथ हँसते और बातें करते हुए आप भी कुछ देर के लिए बच्चे बन जाएँगे।...और तब आप खुद अपनी आँखों से देखेंगे कि दिन में दीए कैसे जलते हैं!”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुसकरा उठे। बोले, “ठीक है तेनालीराम, तो इस अनोखे मेले की देखभाल का जिम्मा तुम्हारा रहा। देखना है कि इस बार तुम क्या जादू करते हो?”

तेनालीराम हँसकर बोला, “महाराज, मैं तो बुड्ढा हूँ। पर कहते हैं, बूढ़ों की बच्चों की बच्चों से दोस्ती बड़ी अच्छी हो जाती है। इसलिए मुझे यकीन है कि मैं सब सँभाल लूँगा। यह उत्सव अनोखा और यादगार होगा।”

उसी दिन पूरे विजयनगर में घोषणा की गई कि राजा कृष्णदेव राय इस बार बच्चों के साथ मिलकर दीपावली मनाना चाहते हैं। दीवाली वाले दिन राजउद्यान में बच्चों का अनोखा मेला लगेगा, जिसमें वे अपने-अपने मन के कार्यक्रम पेश कर सकते हैं। कार्यक्रम की तैयारी के लिए बच्चे तीन दिन पहले ही राजउद्यान में आ जाएँ। वहीं उनके ठहरने और खाने-पीने का इंतजाम किया गया है। कार्यक्रम की तैयारी के लिए एक अलग से सतरंगा शिविर भी बनाया गया है, जहाँ सभी तरह की सुविधाएँ हैं।

सुनते ही बच्चों में उत्साह की लहर-सी छा गई। दीवाली से तीन दिन पहले राजउद्यान बच्चों से पूरी तरह भर गया। जैसे बच्चों की एक अलग दुनिया बस गई हो। सब उसी दिन से खूब तैयारी करने लगे। किसी ने दीपों पर कविता बनाई तो किसी ने मजेदार कहानी सुनाने की तैयारी कर ली। मंच पर नाटक और मनोहर नृत्य पेश करने वाले बच्चे भी थे। कुछ बच्चों ने प्रदर्शन के लिए रंगों और तूलिका से बड़े ही सुंदर चित्र और कलाकृतियाँ भी तैयार कीं।

दीवाली पर बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था। सुबह से ही बच्चे अच्छे और रंगारंग कपड़े पहनकर राजउद्यान पहुँचने लगे। सब अपने-अपने कार्यक्रमों की तैयारी में लगे थे। कुछ बच्चे मिलकर मंच की सजावट में लग गए। कार्यक्रम पेश करने का जिम्मा भी एक बच्चे ने ही सँभाला।

राजा कृष्णदेव राय के कुतूहल की भी सीमा न थी। वे भी जल्दी से तैयार होकर मंत्री, राजपुरोहित ताताचार्य, सेनापति गजेंद्रसिंह और प्रमुख दरबारियों के साथ वहाँ आए तो कुछ बच्चों ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। पहले उन्होंने मेले में घूमकर बच्चों के चित्रों और कलाकृतियों की अद्भुत नुमाइश देखी। कई जगह उनके पाँव जैसे ठिठक-से गए। फिर वह अपने आसन पर आकर बैठे तो बच्चों का कार्यक्रम शुरू हो गया। पहले एक बच्चे ने बड़े मधुर स्वर में राजा कृष्णदेव राय के लिए स्वागत-गान गाया, ‘आइए सम्मान्यवर, पधारिए सम्मान्यवर!’ फिर एक छोटी-सी बच्ची ने 'आ गई दीपावली...खिल गई कली-कली!’ गीत गाया। उसके बाद एक से एक सुंदर कार्यक्रम मंच पर पेश किए जाने लगे।

बच्चों को पहली बार अपने मन से सब कुछ करने का मौका मिला था। तेनालीराम ने तो बस इशारा भर किया था। कार्यक्रम खुद बच्चों ने ही मिलकर तैयार किए थे। वे खूब मस्ती से भरकर अपनी अनूठी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। इतने में अचानक दीपनृत्य की घोषणा हुई। कैसा दीपनृत्य होने जा रहा था, किसी को इसकी कल्पना नहीं थी। पर जब एक साथ इक्कीस बच्चों ने बच्चों ने दीपों जैसी पोशाक पहनकर अनूठा दीप-नृत्य किया तो राजा कृष्णदेव राय विभोर हो उठे। मंत्री, सेनापति गजेंद्रसिंह और राजपुरोहित ताताचार्य भी आनंदमग्न होकर वाह-वाह कर रहे थे।

फिर सब बच्चों ने मिलकर ‘आँधी और नन्हा दीया’ नाटक पेश किया। नाटक में काली रात की आँधी में जलते हुए एक नन्हे दीए की कहानी दर्शाई गई थी। एक छोटा बच्चा दीया बना था जो सबको खुशियाँ बाँटना चाहता था। एक खूब बड़ा-सा काला राक्षस आँधी बनकर उसे डराता था, जिसके बड़े विशालकाय और डरावने सींग थे। पर बच्चा डरा नहीं। आखिर में बहुत-से नन्हे-नन्हे बच्चे उसके साथ आकर खड़े हो गए और नन्हे दीए की लंबी कतार बन गई। सब ओर उजले दीयों की लड़ियाँ नजर आने लगीं। एक दीया बुझता तो दस दीए और जल जाते।

नाटक खत्म होते ही राजा कृष्णदेव राय इतने रोमांचित हो उठे कि बिल्कुल एक बच्चे की तरह जोर-जोर से तालियाँ बजाने लगे।

आखिर में एक छोटे बच्चे ने कहा, “अब जरा ध्यान से सुनिए। कार्यक्रम के अंत में हम चाहते हैं कि विजयनगर राज्य का सबसे बड़ा बच्चा मंच पर आकर एक बढ़िया-सी कहानी सुनाए।”

सुनकर सब हैरान थे। भला कौन है विजयनगर का सबसे बड़ा बच्चा और वह कौन सी रोमांचक कहानी सुनाने वाला है? राजा कृष्णदेव राय भी बड़ी उत्सुकता से इधर-उधर देख रहे थे।

इतने में एक छोटा-सी बच्ची राजा कृष्णदेव राय के पास आकर बोली, “आप कहाँ देख रहे हैं? आपको तो मंच पर बुलाया जा रहा है। चलिए, चलकर सबको अपनी कहानी सुनाइए।”

राजा चौंके, “मैं? पर बुलाया तो किसी बच्चे को है ना...!”

“हाँ महाराज, आप ही तो हैं वह, जिनका दिल बच्चों जैसा निर्मल है।” राजा के पास बैठा तेनालीराम हँसता हुआ बोला, “तभी तो आप अभी कुछ देर पहले एक छोटे बच्चे की तरह उमंग से भरकर तालियाँ बजा रहे थे। अब जल्दी से चलिए, मंच पर आपका इंतजार हो रहा है।...वरना क्या पता, बच्चे नाराज होकर आपको कोई कठोर दंड दे दें। आखिर आज तो सारी कमान बच्चों के हाथ में है। आपकी भी...!”

इस पर राजा कृष्णदेव राय हँसते हुए मंच पर आए और बचपन की शरारत का एक किस्सा सुनाने लगे। उन दिनों उनके दूर के रिश्ते के मामा जी घर आए, जिनकी दाढ़ी-मूँछें बहुत बड़ी-बड़ी थीं। बचपन में कृष्णदेव राय को उन्हें देखकर कुछ अजीब लगता और वे चुपके से उनकी दाढ़ी खींचकर भाग जाते थे। बाद में मामा जी ने उन्हें खूब सारा कलाकंद खिलाकर और अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाकर मोह लिया। तब कहीं वे अपनी दाढ़ी बचा पाए! ...राजा कृष्णदेव राय ने इतने मजेदार ढंग से बचपन का यह किस्सा सुनाया कि बच्चे हों या बड़े, हँसते-हँसते सब लोटपोट हो गए।

बाद में बच्चों ने राजा कृष्णदेव राय से बड़े मजेदार सवाल पूछे, राजा ने हँसते हुए उनका जवाब दिया। सुनकर बच्चों ने खूब तालियाँ बजाईं।

आखिर में बच्चों को पुरस्कार देना था। तेनालीराम बोला, “यह काम भी मेरे खयाल से राज्य के सबसे बड़े बच्चे को ही करना चाहिए।”

राजा कृष्णदेव राय हँसते हुए अपने आसन से उठे और बच्चों को पुरस्कार के रूप में एक से एक सुंदर और बेशकीमती उपहार दिए। बच्चों की खुशी का ठिकाना न था।

तब तक शाम उतरने लगी थी। हलका अँधेरा छाने लगा था। राजा ने सब बच्चों की मदद से खुद तेल-बाती डालकर दीए जलाए। फिर सबने मिलकर ढेर सारे मेवों वाली स्वादिष्ट खीर और एक से एक बढ़िया मिठाइयाँ खाईं। बच्चे राजा कृष्णदेव राय को अपने बिल्कुल पास देखकर रोमांचित थे और उनसे खूब खुलकर बातें कर रहे थे। हर बच्चे का चेहरा खुशी से इस तरह दमक रहा था, कि लगता, वह भी एक नन्हा सा दीया है।

एकाएक राजा को तेनालीराम की बात याद आ कि इस बार दीपावली पर दिन में दीए जलाए जाएँ। उन्होंने देखा तेनालीराम दूर खड़ा मंद-मंद मुसकरा रहा है। राजा ने इशारे से उसे पास बुलाकर कहा, “सचमुच तेनालीराम, तुम्हारी बात ठीक थी। आज मैंने वाकई देख लिया कि दिन की रोशनी में भी कैसे दीए जलते हैं!”

राजा कृष्णदेव राय इतने प्रसन्न थे कि कार्यक्रम खत्म होते ही तेनालीराम से बोले, “तुमने बड़ी अनोखी बात सुझाई तेनालीराम। दीपावली पर इतना आनंद पहले कभी नहीं आया था। बच्चों के बीच बैठकर मैं भी अपने बचपन में पहुँच गया। पहली बार बच्चों के बीच बैठकर ही मैंने जाना कि दीयों की निर्मल उजास क्या होती है!”

उसी दिन राजा कृष्णदेव राय ने घोषणा की कि अब वे हमेशा बच्चों के साथ ही दीवाली मनाया करेंगे। ताकि दीपावली पर रात में ही नहीं, दिन में भी खुशियों के दीए जलें। हाँ, उन्होंने इतना और जोड़ दिया कि आगे से इस बाल मेले का आनंद लेने के लिए विजयनगर की प्रजा को भी आमंत्रित किया जाएगा, ताकि वे भी इन नन्हे दीयों की जगर-मगर देकर आनंदित हों।

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