इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 25 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 25

25

लेकिन इतने भिखारी आए कहाँ से?

राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा था। राज्य की समस्याओं पर गंभीरता से विचार हो रहा था। दरबारी प्रजा की परेशानियों और उन्हें दूर करने के उपायों की चर्चा कर रहे थे। कभी-कभी आपस में तर्क-वितर्क भी होने लगता। राजा कृष्णदेव राय मुसकराकर इसका आनंद लेते। वे चाहते थे कि सभी दरबारी खुलकर अपनी बात कहें, ताकि सही निर्णय हो सके।

शाम होने को थी। राजा कृष्णदेव राय दरबार खत्म करना चाहते थे, पर कुछ सोचकर बोले, “अभी थोडा समय है। अगर आप लोग किसी और समस्या की चर्चा करना चाहें, तो उसका स्वागत है।”

कहकर राजा ने सभी दरबारियों की ओर देखा। पर अब तक सब लोग थक गए थे। सोच रहे थे, कब दरबार खत्म हो और वे घर जाएँ। तभी एक दरबारी ने कहा, “महाराज, एक विचित्र समस्या है। आप कहें तो सामने रखूँ?”

“हाँ-हाँ क्यों नहीं?” राजा कृष्णदेव राय ने उत्सुकता से कहा।

दरबारी ने कहा, “महाराज, इधर मैं देख रहा हूँ कि राजधानी में भिखारियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। आप प्रजा की भलाई के लिए इतना कुछ करते हैं। फिर भी राज्य में भिखारी बढ़ रहे हैं, यह तो हैरानी की बात है।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय चिंतित हो गए। उन्हें भी लग रहा था कि इधर भिखारियों की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। पर इसका कारण उन्हें समझ में नहीं आ रहा था।

सब दरबारी भी यही बात सोच रहे थे। एक नए दरबारी ने कहा, “महाराज, एक बात मेरी समझ में नहीं आती। अगर ये लोग काम करना चाहें, तो क्या इन्हें काम नहीं मिल सकता?”

“ऐसी तो कोई बात नहीं है।” राजा बोले, “विजयनगर में काम करने वाला आदमी भूखा तो नहीं मर सकता और न उसे भीख माँगने की जरूरत है। पर फिर भी, भिखारी इतने बढ़ गए हैं तो कोई न कोई बात तो है...!”

मंत्री ने कहा, “आप चिंता न करें महाराज। मैं नगर कोतवाल से कहता हूँ कि वह भिखारियों से पूछकर असल बात का पता लगाएँ।...जल्दी ही समस्या का हल निकल आएगा।”

“हाँ, कुछ न कुछ तो करना ही होगा।” राजा कृष्णदेव राय ने गंभीर होकर कहा, “कहाँ तो विजयनगर साम्राज्य की समृद्धि की चर्चा सारी दुनिया में होती है, और कहाँ भिखारियों का यह रेला...? कितनी विचित्र बात है।”

राजा कृष्णदेव राय के कहने पर सभी दरबारी इस समस्या पर अपनी राय प्रकट कर रहे थे। पर तेनालीराम चुप था। राजा ने उसकी ओर देखकर कहा, “तेनालीराम, तुमने इस बारे में कुछ नहीं कहा। क्या तुम्हें नहीं लगता कि इधर भिखारियों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है? हम प्रजा की भलाई के लिए इतनी योजनाएँ बनाते हैं। क्या उनका लाभ प्रजा को नहीं मिल रहा?...या फिर कोई और बात है?”

“यही तो रहस्य है, महाराज।” तेनालीराम मुसकराया, “मैं इतनी देर से माथा खुजा रहा हूँ, पर रहस्य की डोर है कि उलझती ही जाती है। उसका दूसरा छोर नहीं मिल रहा।”

राजा कृष्णदेव राय कुछ कहते, इससे पहले राजगुरु ताताचार्य बोले, “महाराज, तेनालीराम को तो यों ही पहेलियाँ बुझाने की आदत है। पता नहीं, बात को कहाँ से कहाँ ले जाता है। छोड़िए इसे, समस्या का हल तो नगर कोतवाल ही कर पाएगा। मंत्री जी नगर कोतवाल को बुलाकर थोड़ी सख्ती करने को कहें, तो आपको राजधानी में भिखारी नजर न आएँगे।”

आखिर राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री को समस्या हल करने का जिम्मा सौंप दिया।

कुछ दिन बीते, पर भिखारियों की संख्या कम होने के बजाय उलटे बढ़ गई। पहले मंदिरों के सामने भिखारियों की लंबी-लंबी पाँतें नजर आती थीं। अब वे बाजार और मुख्य सड़कों पर भी नजर आने लगे। नगर के लोग भीख माँगने पर उन्हें कुछ न कुछ दे दिया करते थे। इससे सड़कों पर खासी भीड़भाड़ होने लगी। कुछ चोर-लुटेरे भी भिखारियों के वेश में बैठे रहते। किसी को अकेला देखकर लूटपाट करते। सिपाहियों के आने पर वे इधर-उधर छिप जाते, फिर कहीं और दिखाई देने लगते। राजा के पास शिकायतें पहुँचतीं।

आखिर परेशान होकर राजा ने तेनालीराम से कहा, “तुम पता लगाओ, हमारे राज्य में इतने भिखारी आए कहाँ से?”

तेनलीराम मुसकराया। बोला, “महाराज, यही तो मैंने आपसे कहा था। समस्या की डोर उलझी हुई है, और उसका दूसर सिरा कहाँ है, यह नजर नहीं आता।...पर अब हे दयानिधान, वह दूसरा छोर भी मिलेगा, जरूर मिलेगा।”

उसी दिन से तेनालीराम ने वेश बदलकर राजधानी में घूमना शुरू किया। न वह घर जाता, न राजदरबार में ही दिखाई देता। राजा चिंतित थे, भला तेनालीराम कहाँ चला गया?

कुछ दरबारियों ने कहा, “महाराज, हमने तो उसे फुटपाट पर फटे-पुराने चीथड़े पहने देखा है।” कुछ ने कहा, “इतना ही नहीं महाराज, वह तो अजीब पागलपन वाली हरकतें कर रहा था। देखकर हमें डर लगा।”

एक दरबारी ने कहा, “महाराज, तेनालीराम शायद किसी दुर्घटना में घायल हो गया है। मैंने उसे सड़क किनारे बैठे देखा है। उसके सारे शरीर पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। पैरों से खून निकल रहा था।”

राजा कुछ कहते, इससे पहले ही मंत्री बोला, “महाराज, ये लोग सही कह रहे हैं। कहने में लज्जा आती है, पर मैंने तो उसे हाथ में कटोरा लिए भीख माँगते देखा है। और भिखारियों की तरह वह भी सड़क किनारे बैठा सूखे टुक्कड़ चबा रहा था।...अगर वह दुर्घटना में घायल हो भी गया, तो महाराज, उसे दर-दर भीख माँगने के बजाय सीधा आपके पास आना चाहिए था।”

राजपुरोहित ताताचार्य बोले, “महाराज, बहुत हुआ तेनालीराम का नाटक। अब उसे कान पकड़कर राजदरबार से बाहर कर दिया जाए। ओछे आदमी की यही सजा होती है।”

सुनकर राजा कृष्ण सोच में पड़ गए। बोले, “तेनालीराम ऐसा करेगा, यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। पता नहीं, इसे हुआ क्या है?”

इसके बाद एक दिन गुजरा, दूसरा दिन गुजरा। तीसरे दिन राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा ही था कि तेनालीराम तेज-तेज चलता हुआ आया। बोला, “महाराज, सबसे बड़े भिखारी का पता चल गया। उसको पकड़ लें, तो सारी बात पता चल जाएगी।”

“पर...वह है कहाँ?” राजा कृष्णदेव राय ने हैरान होकर कहा।

“महाराज, इसकी जानकारी तो मंत्री जी ही दे सकते हैं।” तेनालीराम बोला, “क्योंकि वह मंत्री जी के गाँव से आया उनका दूर का रिश्तेदार पुंतैया है। मंत्री जी के घर रहता है और उनकी शह पर ही यह धंधा कर रहा है। लोगों से भीख मँगवाता है, फिर उसमें आधा हिस्सा खुद हड़प लेता है।...”

“महाराज, तेनालीराम की झूठी बातों में न आएँ। इसे तो अनाप-शनाप बोलने की आदत है।” मंत्री ने बुरी तरह चिढ़कर कहा।

तेनालीराम बोला, “महाराज, आप पता कर लें, पिछले सात दिन मैं न घर में था, न दरबार में। भिखारियों के बीच भिखारी बनकर रहा। उन्हीं के साथ सड़कों पर सोया, खाया-पिया, बातें कीं। सब कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा है। पर मैं बताऊँ, इससे पहले मंत्री जी के घर पर तलाशी ली जाए। मुझसे पुंतैया जो सिक्के ले गया है, उन पर मैंने लाल रंग से निशान लगा दिए हैं।”

राजा ने सैनिकों को भेजकर पुंतैया को मंत्री के घर से पकड़वाया। उसके पास तेनालीराम के दिए सिक्के भी मिल गए।

तेनालीराम मुसकराकर बोला, “महाराज, भिखारियों से पैसे लेकर धंधा करने वाला, सबसे बड़ा भिखारी पकड़ा गया। अब आप देखिएगा, कुछ दिनों में बाकी भिखारी भी नजर न आएँगे।”

और सचमुच अगले दिन से ज्यादातर भिखारियों ने भीख माँगना छोड़, मेहनत-मजदूरी का काम अपना लिया। राजा कृष्णदेव राय ने उनके ठहरने के लिए अलग निवास बनवाए। उन्हें कंबल और वस्त्र बाँटे गए। साथ ही सबके लिए सस्ते और अच्छे भोजन का प्रबंध किया गया।

कल तक जो भीख माँगते थे, वे सब अब निश्चिंत होकर काम करते और राजा कृष्णदेव राय को दुआएँ देते थे। पूरे विजयनगर में अब कोई भिखारी नजर नहीं आता था।