Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 24

24

चिक-चिक बोले काठ की चिड़िया

विजयनगर में हर साल राजा कृष्णदेव राय का जन्मदिन खूब धूमधाम से मनाया जाता था। इस बार भी राजा का जन्मदिन आया, तो हर तरफ चहल-पहल थी। जगह-जगह सुंदर बंदनवार लगाए गए। घरों, गलियों और बाजारों में केले के पत्तों, रंग-बिरंगी झंडियों और दीपमालाओं से सजावट की गई। राजधानी में जगह-जगह फूलों के द्वार बनाए गए, जिन पर फूलों की पंखुड़ियों से ही राजा का प्रशस्तिगान करते हुए, शुभकामनाएँ दी गई थीं। बीच में बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में लिखा था, “विजयनगर को स्वर्ग के समान सुंदर और खुशहाल बनाने वाले, राजाओं के राजा कृष्णदेव राय चिरजीवी हों!”

विजयनगर के हर घर-द्वार पर फूलों की ऐसी सजावट थी कि राजा कृष्णदेव राय की यह सुंदर राजधानी फूलों की नगरी में बदल गई थी।

प्रजा के उत्साह का ठिकाना न था। अपने प्रिय राजा की खुशी के लिए सब अपने-अपने जतन कर रहे थे। यहाँ तक कि हाथों में रंग-बिरंगे फूलों के गुलदस्ते लिए छोटे-छोटे बच्चों ने भी सुबह-सुबह प्रभातफेरी निकालकर विजयनगर की हवाओं में आनंद और उल्लास की लहर घोल दी थी। जब बच्चों का यह जुलूस राजमहल में पहुँचा, तो राजा कृष्णदेव राय तेजी से चलते हुए खुद बाहर आए और बच्चों से फूलों के गुलदस्ते लेकर, सबको अपनी ओर से स्वादिष्ट मिठाई और सुंदर उपहारों से लाद दिया।

देखकर बच्चों की आँखों में चमक आ गई। वे ऐसा ही खिला-खिला मुँह लेकर घर पहुँचे और राजा कृष्णदेव राय की तारीफों के पुल बाँध दिए। देखकर छोटे-बड़े सभी निहाल।

शाम को मुख्य कार्यक्रम था। राज उद्यान में लगे विशाल रेशमी पंडाल में शाही समारोह का आयोजन हुआ। नगर के जाने-माने लोग, व्यापारी, लेखक, कलाकार, संगीतकार सभी उसमें शामिल हुए। विदेशों से आए राजा कृष्णदेव राय के मित्र, विद्वान और राजनयिक भी। सभी एक से एक सुंदर उपहार लेकर आए। दरबारियों में भी बेशकीमती उपहार देने की होड़ थी। सब ओर रंगों और खूबसूरती का आलम। पर...पर तेनालीराम कहाँ था?

राजपुरोहित ताताचार्य ने मंत्री की ओर इशारा किया, मंत्री ने सेनापति की ओर। सेनापति की निगाहें बारीकी से चारों ओर तलाशने लगीं, पर तेनालीराम किसी को नजर न आया।

तेनालीराम गायब था। कैसी विचित्र बात...? यह तो फायदा उठाने का स्वर्णिम अवसर था।

मंत्री कैसे चूकता? वह फौरन उठकर राजा कृष्णदेव राय के पास पहुँचा। उनके कानों में फुस-फुस करके बोला, “महाराज, सभी लोग आ गए। यहाँ तक कि विदेश से आए अपने विशिष्ट अतिथि, विद्वान और राजनयिक भी। पर तेनालीराम कहीं नजर नहीं आ रहा!”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय को हैरानी हुई। बोले, “ऐसा कैसे हो सकता है? वह मनमौजी है, आसपास कहीं घूम रहा होगा। जरा किसी को बोलो कि वह खोज लाए हमारे मौजी बाबा को।” कहते-कहते उनके होंठों पर हँसी आ गई।

“सब जगह दिखवा लिया, महाराज। तेनालीराम कहीं नहीं है।” मंत्री ने आँखें चमकाईं।

तब तक सेनापति और राजपुरोहित ताताचार्य भी वहाँ आ गए थे। मंत्री की बात सुनकर सेनापति ने थोड़ी तेज धार लगा दी, “महाराज, असल बात तो यह है कि तेनालीराम सदा का कंजूस है। चमड़ी चली जाए पर दमड़ी न जाए। सोचा होगा, इस मौके पर कौन उपहार लेकर जाए? आराम से घर बैठो। इतने बड़े कार्यक्रम में महाराज को कहाँ पता चलेगा कि कौन आया, कौन नहीं!”

राजपुरोहित ताताचार्य ने ठिठोली की, “सही है महाराज, एकदम सही।...तेनालीराम सदा से ऐसा ही है। आपके लिए उपहार लाने की बात सुनकर बेचारे की नानी मर गई होगी!”

अभी राजपुरोहित ताताचार्य की बात पूरी हुई भी न थी कि तभी बड़ी विचित्र सी ‘डुग-डुग’ की आवाज सुनकर सब चौंके। सामने देखा तो खूब बड़ा सा हरा पग्गड़ पहने तेनालीराम एक खिलौना-गाड़ी को डोरी से खींचता चला आ रहा था। उसी खिलौना गाड़ी से डुग-डुग, डुग-डुग की यह विचित्र आ रही थी, जिससे पूरा पंडाल गूँज उठा था।

देखकर राजा कृष्णदेव राय समेत सब हँसने लगे।

मंत्री ने शिकायती लहजे में कहा, “देखिए महाराज, तेनालीराम ने यह क्या तमाशा किया। इतने भव्य कार्यक्रम की भद पीट दी!”

पर तेनालीराम के चेहरे पर ऐसी संतुष्टि और आनंद का भाव था कि राजा कृष्णदेव राय समझ गए, कि कोई न कोई तो ऐसी बात है, जो सिर्फ तेनालीराम ही बता सकता है।

मगर तेनालीराम वहाँ होकर भी कहाँ था? वह तो अपनी उस डुग-डुग गाड़ी में ही खोया हुआ था।...

पंडाल में आते ही उसने काठ की गाड़ी को एक तरफ खड़ा किया। उसमें से सुनहरे रंग का एक सुंदर डिब्बा निकाला। आगे बढ़कर विनम्रता से उसे राजा को भेंट किया। उत्सुकता से राजा ने उसे खोला तो अंदर से काठ की एक छोटी सी, लाल चिड़िया निकली।

मंत्री ने हँसकर कहा, “महाराज तेनालीराम को आपके जन्मदिन पर भेंट करने के लिए यही एक नायाब तोहफा मिला!”

पर मंत्री की बात खत्म होते ही चिड़िया मीठी ‘चिक-चिक’ की आवाज करते हुए उड़ी। उड़ते हुए सारे पंडाल में घूमने लगी। घूमते-घूमते बोली, “जन्मदिन मुबारक हो महाराज... जन्मदिन मुबारक! आप चिरजीवी हों महाराज, और प्रजा को आनंदित करते हुए, खुद भी आनंद से जिएँ।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय और दरबारी हैरान थे।

कुछ देर बाद तेनालीराम की हिलती हुई उँगली थमी, तो लाल चिड़िया उछलकर उसकी हथेली पर आ गई। उसे राजा को भेंट करते हुए तेनालीराम बोला, “महाराज, बचपन में मैंने पार्वती अम्माँ को देखा था। हमारे गाँव की वह बूढ़ी स्त्री अनोखी कलाकार थी और ऐसी उड़ने वाली काठ की रंग-बिरंगी चिड़ियाँ बनाती थी। ये चिड़ियाँ एक पतली सी डोरी के सहारे उड़ती थीं, जो आँख को नजर नहीं आती थीं। पार्वती अम्माँ तो अब रहीं नहीं। पर पिछले दिनों गाँव गया, तो उनकी बनाई हुई यह चिड़िया उनकी बेटी कावेरी ने मुझे भेंट की। पार्वती अम्माँ की यह अनोखी कला बची रहे, इसलिए यह अद्भुत खिलौना आपको भेंट कर रहा हूँ!”

“पर तेनालीराम इस चिड़िया ने तो मुझे जन्मदिन की शुभ कामनाएँ भी दीं। तो क्या यह चिड़िया बोलती भी है...?” राजा कृष्णदेव राय ने हैरानी से कहा।

“महाराज, यह काम पार्वती अम्माँ की बेटी कावेरी का है। उसने चिड़िया के पंखों के साथ रेशम की एक बहुत पतली सी डोर बाँध दी है। चिड़िया के पंखों के कंपन से ये शब्द पैदा होते हैं। कावेरी का कहना है कि वह जल्दी ही बोलने वाली चिड़ियाँ बनाया करेगी, जिससे विजयनगर की कलाओं की दूर-दूर तक धूम मचेगी।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने गद्गद होकर कहा, “यह अनोखा उपहार हमेशा मेरे साथ रहेगा। इसमें बचपन की खुशियाँ जो हैं!”

फिर उन्होंने मुसकराते हुए बताया, “मुझे याद है, बचपन में माँ ने मुझे भी ऐसी ही एक सुंदर चिड़िया उपहार में थी। शायद वह भी पार्वती अम्माँ की ही बनाई हुई हो। मैं दिन भर उससे खेलता और बातें करता था। आज तेनालीराम ने मेरा वही बचपन मुझे लौटा दिया।”

राजा कृष्णदेव राय ने उसी दिन इनाम के रूप में एक सहस्र मुद्राएँ पार्वती अम्माँ की बेटी के पास भिजवा दीं। साथ ही एक छोटा सा पत्र भी था। उसमें राजा ने लिखा था, “प्रिय कावेरी बहन, मेरा बचपन पार्वती अम्माँ के बनाए खिलौनों के साथ बीता है। आज वह बचपन फिर याद आ गया। पार्वती अम्माँ को याद करते हुए एक सहस्र मुद्राएँ भिजवा रहा हूँ। इन्हें स्वीकार करें। कभी किसी सहायता की जरूरत हो, तो अपना भाई समझकर, बिना किसी हिचक के बताएँ।”

विजयनगर में जिसने भी यह बात सुनी, तेनालीराम की खूब प्रशंसा की, क्योंकि उसी ने तो विपत्ति में पड़ी कावेरी की तरफ राजा का ध्यान खींचा था।

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