इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 19 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 19

19

दूर देश से आया निशानेबाज

राजा कृष्णदेव राय कलाकारों और हुनरमंदों की बहुत इज्जत करते थे। इसलिए दूर-दूर से सैकड़ों कलावंत विजयनगर के राजदरबार में अपनी कला और कौशल का प्रदर्शन करने के लिए आते थे। राजा कृष्णदेव राय दरबारियों के साथ बैठकर उनकी अनोखी कला और हस्तलाघव का आनंद लेते। साथ ही खूब इनाम भी देते थे। जो भी कलाकार और हुनरमंद अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए विजयनगर आता, वह राजा कृष्णदेव राय की उदारता से गद्गद होकर जाता। दूर-दूर तक विजयनगर के महान राजा की कलाप्रियता का गुणगान करता।

एक दिन की बात, राजा के दरबार में एक लंबा-सा आदमी आया। एकदम काला रंग। माथे पर कुंडली मारे सर्प का चिह्न। कानों में बड़े-बड़े कुंडल। उसने विचित्र-सा रंग-बिरंगा चोगा पहना हुआ था। उस पर शेर, भालू, हिरन, हाथी तथा कुछ और जंगली जंगली जानवरों की आकृतियाँ बनी हुई थीं। सिर पर पक्षियों के रंग-बिरंगे पंखों का मुकुट। उसके पास बाँस का बना बहुत बड़ा धनुष और कुछ तीर भी थे। उसकी विचित्र वेशभूषा देखकर राजा कृष्णदेव राय मुसकराने लगे। दरबारी भी बड़े कौतुक से उसे देख रहे थे।

आते ही विचित्र वेशभूषा वाला वह आदमी घुटनों तक झुककर राजा कृष्णदेव राय को प्रणाम करके बोला, “महाराज, मेरा नाम बेगू बाँका है। मैं पड़ोसी देश मेखलपुट्टी से आया हूँ। वहीं के जंगली कबीले का हूँ और बचपन से वहीं जंगलों में तीर चलाने का अभ्यास कर रहा हूँ। तीर-कमान में मेरा कोई सानी नहीं है। मेरा निशाना आज तक कभी चूका नहीं। लोग कहते हैं, मेरा तीर चलता बाद में है, अपने निशाने को भेदता पहले है। सुना है, महाराज, आप कलाओं के कद्रदान हैं। महा प्रतापी राजा हैं। राजाओं के भी राजा! आप कहें तो आपके आगे मैं अपनी अद्भुत कला का प्रदर्शन करूँ? आप जरूर उसे देखकर मुग्ध हो उठेंगे।”

बेगू बाँका की बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न हो गए। बोले, “तुम विजयनगर की कीर्ति सुनकर किसी आशा से यहाँ आए हो। तुम्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। अभी शाही अतिथिशाला में विश्राम करो। कल शाम को हम तुम्हारी धनुर्विद्या का कमाल देखेंगे। एक से एक बढ़िया निशानेबाज विजयनगर में भी है। हम देखना चाहेंगे, बेगू बाँका उनसे अलग क्या कमाल कर दिखाता है?”

इस पर बेगू बाँका बोला, “नहीं, महाराज! क्षमा करें, मैं शाही अतिथिशाला में नहीं रुकूँगा। राजधानी के बाहर अपने साथियों के साथ मैंने तंबू डाल लिया है। वहाँ काफी खुली जगह है। मैं उसी तंबू में रहकर निरंतर अभ्यास करूँगा, ताकि आपके सामने अपनी तीरंदाजी का कमाल दिखा सकूँ। मेरे साथ कबीले के और लोग भी हैं, जो इस अभ्यास में मदद करेंगे। मैं आज वहाँ जाते ही अपना अभ्यास शुरू कर दूँगा, ताकि मेरा प्रदर्शन आपको और विजयनगर की प्रजा को आनंदित कर सके। आपसे बस एक ही प्रार्थना है महाराज, कि कोई मेरे उस एकांत अभ्यास में बाधा न पहुँचाए।”

“ठीक है, जैसा तुम चाहते हो, वैसा प्रबंध हो जाएगा!” राजा कृष्णदेव राय ने कहा। फिर तेनालीराम की ओर इशारा करते हुए कहा, “तेनालीराम तुम्हारे इस अभ्यास के लिए पूरी व्यवस्था कर देगा। तुम्हें कोई कठिनाई हो, तो उससे कह सकते हो।”

फिर राजा ने तेनालीराम से कहा, “बेगू बाँका शाही अतिथि है। इसके तीरंदाजी के अभ्यास में कोई मुश्किल न हो, इसका जिम्मा तुम्हारा है।”

तेनालीराम मुसकराया। बोला, “ठीक है महाराज। हमारे बाँके धनुर्धर अतिथि के लिए अनुकूल व्यवस्था हो जाएगी।”

फिर राजा कृष्णदेव राय ने बेगू बाँका की तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए भी पूरी तैयारियाँ करने के लिए कहा। यह तय हुआ कि अगले दिन शाम को राजमहल के सामने वाले खेल के विशाल मैदान में, बेगू बाँका अपनी अनोखी धनुर्विद्या का प्रदर्शन करेगा।

“विजयनगर की प्रजा तीरंदाजी के हुनर की कद्रदान है। खासकर बच्चे और युवा लोग तीरंदाजी का कमाल देखने के शौकीन हैं।” राजा कृष्णदेव राय ने कुछ सोचते हुए कहा, “इसलिए हो सकता है, हजारों की संख्या में प्रजा बेगू बाँका का कौतुक देखने के लिए उपस्थित हो जाए। सबके बैठने का उचित प्रबंध हो, यह भी देखना होगा। साथ ही प्रजा कुछ दूरी पर रहे, ताकि बेगू बाँका के शर-संधान में कोई बाधा न आए।”

“आप चिंता न करें महाराज। बेगू बाँका का तीरंदाजी का प्रदर्शन अगर कमाल का होगा तो इसकी तैयारियाँ भी कमाल की होंगी।” तेनालीराम मुसकराया।

अगले दिन शाम के समय विशाल मैदान में शामियाना लगाकर राजा कृष्णदेव राय और दरबारियों के बैठने का इंतजाम किया गया। सामने एक पेड़ पर सफेद रंग के चाँदी के बने सात सुंदर, चमकीले पत्ते लटकाए गए। वे दूर से चम-चम करते तारों जैसे नजर आते थे। उनमें से हर पत्ते के बीच में अँगूठी से भी छोटा काले रंग का एक-एक गोला था। धुनर्धारी बाँका को उन गोलों पर ही निशाना लगाना था।

राजधानी में चारों ओर बेगू बाँका और उसके तीर-कमान की ही चर्चा थी। लोग कहते, “हमने तीर चलाने वाले तो बहुत देखे। पर लगता है, यह बाँका तो एकदम बाँका ही है!” लिहाजा दूर-दूर से लोग उसका कमाल देखने के लिए टूट पड़े। आसपास के गाँवों से भी स्त्री-पुरुष और बच्चों के झंड के झुंड आ रहे थे।

पूरे विजयनगर में बड़े ही उत्साह, उत्सुकता और आनंद का माहौल था।

ठीक समय पर बेगू बाँका मैदान के उत्तरी किनारे पर बने एक छोटे-से मंच पर आकर खड़ा हो गया। उसने अच्छी तरह हाथों में तीर और धनुष को पकड़कर, निशाना साधते हुए तीर चलाया। निशाना एकदम सही लगा। चाँदी का पत्ता अपनी जगह पर था, पर उसमें बने काले गोले वाला हिस्सा उड़ता हुआ गायब हो गया।

इसी तरह बेगू बाँका ने दूसरा निशाना लगाया। फिर तीसरा, फिर चौथा। यों एक-एक कर छह पत्ते उसने बड़ी होशियारी से छेद दिए। लग रहा था, उसके तीरों में कोई जादू है। बेगू का एक भी तीर निशाने से भटका नहीं था और न तिल भर इधर से उधर हुआ था। प्रजा साँस रोककर देख रही थी कि अब बेगू बाँका का तीर सातवें पत्ते को भी बिल्कुल सही जगह भेद पाता है या नहीं?

बेगू बाँका ने बात की बात में धनुष पर तीर चढ़ाया और निशाना साधने लगा। लोगों को ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे। सभी इंतजार कर रहे थे कि तीर छूटेगा और वह चाँदी के आखिरी पत्ते को भी छेदता हुआ निकल जाएगा। कुछ लोग उत्तेजना में आकर शर्त बद रहे थे कि बेगू इस बार भी कामयाब होगा कि नहीं!

पर यह क्या? बेगू बाँका तो अचानक बिजली की-सी तेजी से पलटा और उसका पैना तीर दिशा बदलकर, राजा कृष्णदेव राय की ओर मुड़ गया।

अरे, यह क्या...? निशाना ठीक राजा की ओर!

सब भौचक्के! ‘अरे-अरे, यह क्या अनर्थ हो रहा है? कहीं हमारे प्यारे राजा कृष्णदेव राय के प्राणों पर संकट तो नहीं...!’

पर तीर छूटता, इससे पहले ही अचानक उतनी ही तेजी और फुर्ती से, किसी का जोर का झन्नाटेदार हाथ पड़ा। सबके देखते-देखते बेगू बाँका झटके से जमीन पर आ गिरा और फिरकनी की तरह लुढ़कने लगा। उसका तीर-कमान भी दूर जा पड़ा था।

बाँका ने उठकर भागने की कोशिश की। तभी “पकड़ो, पकड़ो...!” की आवाजें आई। चारों ओर से आकर विजयनगर के सैनिकों ने उसे पकड़कर बाँध दिया। उसके साथियों को भी गिरफ्तार कर लिया गया।

पता चला, बाँका शत्रु राज्य नीलपट्टनम का जासूस था। शुरू के छह तीरों में तो उसने अपनी कला के प्रदर्शन का नाटक किया। अब सातवें तीर में वह होशियारी से राजा कृष्णदेव राय पर ही निशाना साधना चाहता था, पर सफल नहीं हो सका।

राजा कृष्णदेव राय भी हक्के-बक्के थे। एकदम अवाक्। जब बेगू का असली रंग और उसकी यह नापाक हरकत देखी तो उन्होंने दौड़कर तेनालीराम को गले से लगा लिया। बोले, “सच तेनालीराम, आज तुम न होते तो...!”

“कैसे न होता, महाराज?” तेनालीराम हँसकर बोला, “जहाँ आप, वहाँ आपका दास! वैसे मैंने कल ही इसकी चाल जान ली थी। अपने साथियों को यह खुस-फुस करके बता रहा था, तभी तंबू के बाहर घूमते हुए मैंने सुन लिया और पूरा इंतजाम कर लिया।...इसने सोचा होगा कि इस एकांत में कौन उसकी बातें सुनेगा। पर इसे पता नहीं कि तंबू के भी कान होते हैं। हमारे गुप्तचर चप्पे-चप्पे पर मौजूद थे। इसीलिए शैतान बाँका का भाँडा फूट गया।”

सेनापति ने मुसकराते हुए कहा, “खुशी की बात है महाराज, कि इस दुष्ट बाँका के झूठे निशाने तो लगे, पर असली निशाना नहीं लग पाया। हमारे तेनालीराम का निशाना इससे कहीं अधिक जोरदार साबित हुआ।”

“हाँ महाराज, हमारा तेनालीराम बूढ़ा भले ही हो, पर लगता है, इसका हाथ बड़ा झन्नाटेदार पड़ा होगा बाँका पर। अभी तक बेचारा लमलेट है!” मंत्री ने कहा।

इस पर सब हँसने लगे। मंत्री और राजपुरोहित भी आज खुलकर तेनालीराम की प्रशंसा कर रहे थे। नील सुंदरम ने तो तेनालीराम को उठाया और वहीं दरबार में सात चक्कर लगाए।

राजा कृष्णदेव राय ने मुसकराते हुए अपनी हीरे की अँगूठी उतारकर तेनालीराम को पहना दी। फिर कहा, “आज मैं समझ गया, तुम्हारे होते हुए क्यों मैं इतना बेफिक्र रहता हूँ।”