इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 18 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 18

18

होलिका दरबार हास्य नाट्यम

राजा कृष्णदेव राय हर साल होली का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाते थे। और यह उत्सव एक दिन नहीं, कई दिन चलता था। इस अवसर पर गाने-बजाने और नृत्यों के साथ हास्य रस के भी एक से एक मजेदार कार्यक्रम होते थे। हास्यगीत, गीतिकाओं और मनोरंजक नाटकों का जोर रहता था। गाँव वाले रास-रंग से भरपूर लोकनृत्य पेश करते तो समा बँध जाता। उधर पहलवानों के अखाड़ों की धूम अलग। नट, बाजीगर और तमाशे वाले भी कोई न कोई नया रंग, नया करतब लेकर आते। पूरे विजयनगर में आनंद और उल्लास का वातावरण छा जाता था।

इस अवसर पर विजयनगर के कोने-कोने से आए विशेष अतिथि, कवि और कलाकार यह विशेष आनंद उत्सव देखकर अभिभूत हो उठते थे। वे आश्चर्य चकित होकर कहते, “अहा, फागुन के दिनों में तो राजमहल और राजधानी की फिजा ही बदल जाती है!”

विजयनगर का यह नया रंग पड़ोसी देशों को भी आकर्षित करता। इसलिए होली पर आसपास के मित्र राज्यों से बड़ी संख्या में विशिष्ट अतिथि हर साल आया करते थे। वे बड़ी उत्सुकता से देखते थे कि इस साल विजयनगर के होली उत्सव में नया क्या है? और हर बार कोई न कोई ऐसी नई झाँकी देखने को मिलती कि इस अवसर पर खास तौर से आने वाले अतिथि अपने साथ नई और रंगारंग यादें लेकर जाते थे।

इस बार भी होली आ रही थी। अपने साथ रंगों का पूरा जोम और उछाह लेकर आ रही थी। उसकी शरारती हँसी और उन्मुक्त खिलखिलाहट हवाओं में घुलने लगी थी। फागुनी हवाओं ने अपनी सुरीली दस्तक दे दी थी। धरती पर हरियाली और रंग-बिरंगे फूलों की चादर-सी बिछ गई थी। पेड़ों-पौधों और फूल-पत्तों की हँसी में भी एक नशा-सा था। राजा कृष्णदेव राय सोच रहे थे, “इस बार भी कुछ न कुछ तो नया होना चाहिए। दूर-दूर से आए लोगों का कुछ तो मनोरंजन हो।”

उन्होंने दरबारियों से इस बारे में अपनी राय देने के लिए कहा, तो सबने अपने-अपने सुझाव दिए। कुछ ने इसे सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाने पर जोर दिया तो कुछ दरबारी हास्य कार्यक्रम आयोजित करने के लिए सुझाव दे रहे थे। पर राजा कृष्णदेव राय को कुछ ज्यादा मजा नहीं आया।

उन्होंने कहा कुछ नहीं, पर उनका मुखमंडल देखकर लगता था, वे अधिक संतुष्ट नहीं हैं। शायद उनके भीतर कुछ और ही चल रहा था।

तभी उन्होंने दरबार में एक ओर बैठे तेनालीराम की ओर देखा। तेनालीराम चुप बैठा था। अभी तक उसने एक शब्द भी नहीं कहा था। पर अभी-अभी उसे जाने क्या खुराफात सूझी थी कि अचानक उसके होंठों पर मंद-मंद मुसकान नाचने लगी और उसकी मूँछें फुरफुराने लगीं।

राजा कृष्णदेव राय बोले, “तेनालीराम, तुम तो होली पर हमेशा अपनी कोई न कोई आँकी-बाँकी शरारत करके, विजयनगर की होली को यादगार बना देते हो। इस बार भी तुमने जरूर कुछ न कुछ तो सोचा होगा। जरा बताओ तो, इस होली पर ऐसा क्या मनोरंजक कार्यक्रम हो सकता है कि लोगों को लगे, इस बार की विजयनगर की होली तो एकदम निराली थी?”

तेनालीराम हँसकर बोला, “महाराज, होली की शरारतें कोई कार्यक्रम बनाकर थोड़े ही की जाती हैं! होली का रंग तो तब जमता है, जब बात की बात में कोई बढ़िया-सी खुराफात सूझे और फिर खट से उसका रंग भी लोगों के दिलों पर चढ़ जाए। होली आएगी तो ऐसी कोई बढ़िया खुराफात मैं जरूर करूँगा कि लोग याद करें।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय कुछ आश्वस्त हुए। पर राजपुरोहित, मंत्री और सेनापति का दिल किसी आशंका से रह-रहकर उछल रहा था। पिछली बार सबने मिलकर तेनालीराम को छकाने की कोशिश की थी। इस बार कहीं ऐसा न हो कि तेनालीराम सबकी छुट्टी कर दे।

राजपुरोहित बोले, “महाराज, पिछली बार तेनालीराम ने जाने क्या जादू चलाया कि अचानक आसमान से रंग बरसने लगा था। सबके सब पल भर में रँग गए। मगर फिर इसी ने कुछ ऐसा कमाल किया कि देखते ही देखते सारा रंग एकाएक गायब भी हो गया। उनसे कहें, अब की ऐसी खुराफात न करें। आप तो जानते ही हैं, मेरा दिल जरा कमजोर है। ऐसे खेल-तमाशे देखकर जी धक से रह जाता है।”

मंत्री बोला, “महाराज, पिछली होली पर मैंने तेनालीराम को धोखे से भाँग वाली बरफी खिला दी थी। तब से यह मेरे पीछे पड़ा है कि जरा खबरदार रहना, होली पर मैं भी तुम्हें खूब छकाऊँगा।...इनसे कहें, मेरे साथ ज्यादा होली की छेड़छाड़ न करें। वैसे भी इन दिनों मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती।”

तेनालीराम हँसकर बोला, “महाराज, अभी तो मैंने रंग डाला ही नहीं, और ये लोग पहले से ही बिदकने लगे। इनसे कहें महाराज, कि ये लोग ज्यादा घबराएँ नहीं। भले ही इन्होंने मेरे साथ कुछ भी किया हो, पर मैं तो इनके साथ बस होली ही खेलूँगा। होली होगी और खूब मजेदार होगी। पर वह ठिठोली ही होगी, ब्रज की लट्ठमार होली नहीं!”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय ठहाका मारकर हँसने लगे। उनके साथ-साथ सारे दरबारी भी हँसने लगे।

राजा कृष्णदेव राय अब यह समझ गए थे कि तेनालीराम के मन में कोई न कोई मजेदार खुराफात जरूर आ गई है और होली आते ही उसके रंग का फव्वारा छूटने लगेगा।

असल में बात यह थी कि तेनालीराम को राजा कृष्णदेव राय ने कुछ समय पहले एक खासुलखास जिम्मा दिया था। ढम-ढम-ढम मुनादी वाला। राजा चाहते थे कि राजदरबार में जनता की भलाई के जो भी काम होते हैं, प्रजा के बीच उनकी बढ़िया ढंग से मुनादी करवा दी जाए। जिससे प्रजा जान ले कि विजयनगर में लोगों की भलाई के लिए कौन-कौन सी नई योजनाएँ बन रही हैं? राजदरबार में सभी का कहना था कि तेनालीराम को बात कहने की कला आती है। उसकी भाषा में दम है, विलक्षणता है। लिहाजा उससे बढ़िया ढंग से यह काम कोई और नहीं कर सकता। राजा ने तेनालीराम से पूछा तो वह मान गया।

बस, तभी से राजा कृष्णदेव राय ने कुछ राज कर्मचारी तेनालीराम को मुनादी के लिए सौंप दिए। तेनालीराम बड़े प्रभावशाली अंदाज में उन्हें राजदरबार में बनने वाली योजनाओं की खबरें लिखकर देता था। फिर मुनादी वाले राज कर्मचारी ढम-ढम ढोल बजाते हुए, जनता के बीच जाकर बताया करते थे—

“सुनो-सुनो-सुनो, राजा कृष्णदेव राय ने प्रजा की भलाई के लिए एक नई योजना बनाई है कि अगर किसी की फसल को नुकसान पहुँचा है तो वह राजदरबार में आकर बताए। उसे बहुत जल्दी उपयुक्त मुआवजा मिलेगा...! ढम-ढम-ढम...!! अगर किसी गरीब के घर विवाह है, तो राजदरबार से उसे विशेष मदद दी जाएगी! गरीब घरों की बेटियों के कन्यादान के लिए हमारे दानी राजा कृष्णदेव राय सहर्ष एक सहस्र मुद्राएँ देंगे।...ढम-ढम-ढम!!”

ऐसी ढम-ढमाढम में तेनालीराम की कलम इतने बढ़िया ढंग से चलती थी कि प्रजा सीधे-सादे लफ्जों में सारी बात जानकर बहुत खुश होती थी। सबको पता था, इस सबके पीछे तेनालीराम का दिमाग है। इसलिए पूरे विजयनगर में तेनालीराम की ढम-ढमाढम मशहूर होती जा रही थी।

पर जब होली पास आई, तो तेनालीराम को लगा, अब जरा कुछ अलग ढंग की ढम-ढमाढम भी होनी चाहिए। थोड़ी मजेदार, थोड़ी चटपटी, थोड़ी रंग-बिरंगी। और फौरन उसकी आँखों में शरारत झलकी। उसकी चपल दृष्टि राजदरबार में इधर-उधर घूमने लगीं।

उसने देखा, राजा कृष्णदेव राय इस बार की होली को यादगार बनाने के लिए कुछ बातों की ओर ध्यान दिला रहे हैं, पर राजपुरोहित जी का ध्यान शायद कहीं और है। इसलिए उनकी गरदन बिना बात हिल रही है और गर्दन के साथ-साथ सिर की चोटी भी नर्तन कर रही है। यहाँ तक कि उनका गोल-गोल पेट भी कुम्हार के चाक पर रखे घड़े की तरह चकरी काट रहा है।

देखकर तेनालीराम के लिए अपनी हँसी पर जज्ब करना मुश्किल था। उसने फौरन कलम निकाली और कागज पर राजपुरोहित जी की यह अदा दर्ज कर ली।

फिर तेनालीराम की निगाह मंत्री जी की ओर गई। वे राजा कृष्णदेव राय की बात सुनते ही, हर बार बेध्यानी में ‘जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ महाराज, जी हाँ...!’ कह देते। तेनालीराम ने गिना। उसके देखते-देखते मंत्री जी ने पूरे बत्तीस बार ‘जी हाँ, जी हाँ’ का पहाड़ा पढ़ा।

“वाह, कैसी मजेदार बात है! यह हुई न होली की खबर!” और तेनालीराम ने फट से मुनादी के लिए एक नई खबर भी तैयार कर ली। इसमें मंत्री जी के शब्दों के साथ-साथ उनके हाव-भाव का भी मजेदार वर्णन था।

आँख मूँदकर ‘जी हाँ, जी हाँ’ कहने में सेनापति भी कम नहीं थे। मगर एक फर्क था। मंत्री जी तो खाली ‘जी हाँ, जी हाँ’ करते थे, पर सेनापति जी जब ‘जी हाँ’ वाला पहाड़ा पढ़ते थे, तो साथ ही साथ उनकी दाईं हथेली भी पीपल के पत्ते की तरह तेजी से हिलती थी और खूब बढ़िया दृश्य बन जाता था। ऐसा कि देखने वालों को मजा आ जाए। तो फिर होली की ढम-ढम में भला जनता को यह मजेदार खबर क्यों न दी जाए?

तेनालीराम ने फौरन कागज निकाला और नई खबर दर्ज की।

फिर उनका ध्यान एक बूढ़े राजदरबारी बालकुट्टी की ओर गया। उन्हें राजा कृष्णदेव राय की बातों में इतना आनंद आया कि वे बड़े मजे से सो गए। पर जैसे ही उन्होंने खर्राटे लेना शुरू किया, पास बैठे मंत्री जी ने चिकोटी काटकर जगा दिया। तेनालीराम ने फौरन यह मजेदार होलिका खबर दर्ज कर ली। इस खबर में अपनी उर्वर कल्पना से उसने बहुत कुछ और भी जोड़ दिया, जिससे खबर अनारदाने के चूरन की तरह थोड़ी चटपटी और जायकेदार हो जाए।

यह खबर लिखते-लिखते तेनालीराम की बाँकी निगाह एक नए दरबारी सोम नृत्यगोपालम पर पड़ी। वह राजा कृष्णदेव राय की बात सुनते ही, अपनी जगह से उचक-उचककर उनकी ओर देखने लगता था। फिर वह उसी तरह उचक-उचककर दूसरों की ओर देखता। तेनालीराम को उसका उचकना इतना मजेदार लगा कि उसने सोचा, क्यों न इसका नाम उचकू उचकना रख दिया जाए? उसने झट से खबर बनाई कि एक नए दरबारी ने इतनी बार ऊँट की तरह गर्दन उचकाई कि उसका नाम उचकू उचकना रखने पर विचार किया जा रहा है।

कुछ राज कर्मचारी देर से दरबार में आए। राजा कृष्णदेव राय की निगाह से बचने के लिए वे किस तरह छुपने का प्रयास कर रहे थे, यह भी तेनालीराम से छिपा न रहा। और उसने उनकी भी खबर ली।

कुछ समय बद तेनालीराम ने मुनादी करने वाले राजकर्मचारियों को बुलाया। राजधानी की गली-गली में मुनादी के लिए जाने से पहले तेनालीराम ने उन्हें विस्तार से सारी खबरें लिखकर दे दीं। राजा कृष्णदेव राय ने होली का आनंद-उत्सव मनाने के लिए जो-जो मजेदार कार्यक्रम तय किए हैं, उनकी खबरें देने के साथ-साथ उसने दरबार की रोचक खबरें भी अपनी ओर से जोड़ दीं। उनमें इस बात की भी खबर थी कि आज राजपुरोहित जी बहुत देर तक दरबार में बैठे-बैठे ऊँघते रहे। फिर अचानक उनकी गर्दन और सिर की लंबी चोटी दोनों ने एक साथ नर्तन शुरू किया। हालाँकि इस दृश्य में असली आनंद तब आया, जब गर्दन और शिखा के साथ ही उनका पेट भी कुम्हार के चाक पर रखे मटके की तरह गोल-गोल, गोल-गोल घूमने लगा और बड़ा ही मनोहर दृश्य उपस्थित हो गया...ढम-ढम-ढम...ढम-ढम-ढम...!!

इसके बाद मंत्री और सेनापति के ‘जी...जी...जी हाँ, जी हाँ’ वाला पहाड़ा पढ़ने की खबर थी। उतनी ही मजेदारी के साथ—

“सुनो...सुनो...सुनो...! आज दरबार में मंत्री जी की छटा वास्तव में दर्शनीय थी। वे राजा कृष्णदेव राय की बात सुनते ही, हर बार बेध्यानी में ‘जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ महाराज, जी हाँ...!’ कह रहे थे। उन्होंने तीस जमा दो, यानी पूरे बत्तीस बार ‘जी हाँ, जी हाँ’ का पहाड़ा पढ़ा। उस समय उनके चेहरे पर एकदम नारद मुनि जी वाला दिव्य भाव था, जिसे देखकर हर कोई आनंदित हो रहा था।...वैसे तो हमारे सेनापति जी भी कुछ कम नहीं हैं। आँख मूँदकर ‘जी हाँ, जी हाँ’ कहने में उनका भी जवाब नहीं। मगर एक फर्क था। मंत्री जी तो खाली ‘जी हाँ, जी हाँ’ करते थे, पर सेनापति जी जब ‘जी हाँ’ वाला पहाड़ा पढ़ते थे, तो साथ ही साथ उनकी दाईं हथेली भी हवा में हिलते पीपल के पत्ते की तरह तेजी से थिरकती थी और खूब बढ़िया दृश्य बन जाता था। देखने वालों को कैसा मजा आया होगा, इसकी आप खुद ही कल्पना कर लें।...ढम-ढम-ढम...ढम-ढमाढम ढम...!!”

फिर “सुनो, सुनो, सुनो!” की घोषणा के साथ बूढ़े राजदरबारी बालकुट्टी की पूरी खबर थी—

“सुनो, सुनो, सुनो!...हमारे पुराने दरबारी बालकुट्टी को राजा कृष्णदेव राय की बातों में इतना रस-आनंद आया कि वे बड़े मजे से सो गए। पर जैसे ही उन्होंने खर्राटे लेना शुरू किया, पास बैठे मंत्री जी ने चिकोटी काटकर जगा दिया। बाद में बालकुट्टी ने तेनालीराम को एकांत में ले जाकर एक रहस्य की बात बताई कि उस समय वे स्वप्न में परीलोक में थे। परीरानी उन्हें खूब बड़ा-सा स्वादिष्ट लड्डू खिला रही थी, पर वे खा पाते, इससे पहले ही मंत्री जी ने चिकोटी काटकर उन्हें जगा दिया। इसलिए अब श्री बालकुट्टी होली के रंग में रँगकर मंत्री जी के खिलाफ अमानत में खयानत का मुकदमा दर्ज करने की सोच रहे हैं।...ढम-ढम-ढम, ढम-ढम-ढम ढमढमढम...!!”

उसके बाद उचकू उचकना की यह मजेदार खबर थी—

“सुनो सुनो सुनो...! राजा कृष्णदेव राय के दरबार में आज एक नया दरबारी बार-बार अपनी जगह से उचक-उचककर इधर-उधर देखने लगता था। उसका उचकना सबको इतना मजेदार लगा कि कुछ दरबारियों ने सोचा, क्यों न इसका नाम ‘उचकू उचकना’ रख दिया जाए? बार-बार ऊँट की तरह गर्दन उचकाने वाले इस दरबारी का नाम ‘उचकू उचकना’ रखने पर विचार किया जा रहा है। पर इसकी आधिकारिक घोषणा अभी कुछ समय बाद की जाएगी। लिहाजा इस समय उन्हें ‘उचकू उचकना’ कहकर तो न बुलाएँ, हाँ, मन ही मन ‘उचकू उचकना’ कहकर मजा लें और ही-ही-ही करके हँसें, इसमें कोई बुराई नहीं है।...ढम-ढम-ढम...ढम-ढम-ढम...ढम-ढम-ढम...!!”

आखिर में राजदरबार में देर से आए एक चौथाई दरबारियों ने राजा की निगाहों से छिपने के लिए जो-जो मजेदार करतब किए, उनका दिलचस्प वर्णन था—

“सुनो, सुनो, सुनो...! आज भी राजदरबार में बहुत से दरबारी देर से आए। उनमें से एक दरबारी ने तो मंत्री जी के पीछे बैठकर, पहले दाएँ फिर बाएँ घूमकर छिपने की इतनी बार कोशिश की कि राजा कृष्णदेव राय ताड़ गए। वे भी उसी तरह गर्दन लचकाते हुए, पहले दाएँ से बाएँ और फिर बाएँ से दाएँ उझककर देखने लगते। हारकर राजकर्मचारी को खड़े होकर माफी माँगनी पड़ी, ‘ज..ज..जी महाराज, आज देर हो गई, क्षमा करें!’ इस पर राजा कृष्णदेव राय ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया, ‘अ..अ...अच्छा दरबारी जी, आज तो आपको क्षमा मिल गई, पर आगे ख्याल रखें!’ सुनते ही राजदरबार में जैसे हँसी का पटाखा छूटा। हँसते-हँसते सब इस कदर लोटपोट हुए कि देर से आया वह कर्मचारी भी खिलखिलाकर हँसे बगैर न रहा।...ढम-ढम-ढम...ढम-ढमाढम...!”

इस हास्यपूर्ण वर्णन के साथ मुनादी वाले ने इतने जोर की ढम-ढमाढम, ढम-ढमाढम की कि लोगों ने खुश होकर तालियाँ बजा जदीं। तेनालीराम ने इतने मजेदार ढंग से ये खबरें लिखी थीं कि जो भी सुनता, हँसते-हँसते लोटपोट हो जाता। सब तेनालीराम की खूब वाहवाही कर रहे थे।

पर ये सूचनाएँ मंत्री, सेनापति और दरबारियों के कानों में भी पड़ीं। जब वे राजदरबार से घऱ लौटते तो प्रजा में बड़ी अजीब-सी की खुस-फुस सुनाई पड़ती। फिर जल्दी ही मुनादी वाली खबर भी उन्हें पता चल गई। उसे सुनकर लोगों में कैसी खुस-फुस हो रही है, यह भी पता चला।

सुनकर वे घबराए। परेशान होकर सबने राजा कृष्णदेव राय के पास जाकर कहा, “महाराज, तेनालीराम जनता को हमारे खिलाफ भड़का रहा है। जाने क्या-क्या बातें लिख दीं उसने, बेसिरपैर की!”

उनकी बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने भी छिपकर प्रजा के बीच की जा रही मुनादी को सुना। सुनकर उनकी भी हँसी छूट गई। बोले, “इन खबरों में सच तो है, मगर शायद यह कुछ ज्यादा हो गया। आधी हकीकत, आधा अफसाना...! और तेनालीराम तो इस कला में उस्ताद है ही। वाकई उसकी कलम में दम है। पर...तुम लोगों की परेशानी मैं समझ गया। तेनालीराम को भी समझा दूँगा।”

उसके बाद राजा ने तेनालीराम को बुलाया। हँसकर कहा, “तेनालीराम, होली पास आई तो लगता है, तुम बहक गए। ऐसी किस्म-किस्म की रंगारंग खबरें तो तुम्हीं लिख सकते थे! अब ऐसा करो, अपनी रोचक खबरों को एक नाटक की शक्ल दो। तुम्हारा यह नाटक होली वाले दिन शाम को राज उद्यान में खेला जाएगा, ताकि राज कर्मचारियों का मनोरंजन हो और उन्हें सीख भी मिले।”

सुनकर तेनालीराम के चेहरे पर मंद-मंद मुसकान खेलने लगी। हँसकर बोला, “महाराज, ये लोग पूरे बरस मुझ पर जाने कैसे-कैसे छींटे डालते रहते हैं। तो इस बार होली पर मुझे भी कुछ रंगों के छींटे तो डालने ही थे। वरना वो तेनालीराम को याद कैसे करेंगे?”

राजा कृष्णदेव राय हँसकर बोले, “पर तुमने रंग के छींटे भी ऐसे डाले कि आनंद आ गया। खैर, अब नाटक की तैयारी करो।”

तेनालीराम बोला, “ठीक है महाराज, मैं एक नया नाटक लिखूँगा जिसका नाम होगा, ‘होलिका दरबार हास्य नाट्यम’। इतने दिन दरबार की खबरें लिखते हुए जो सीखा है, उसी कला का प्रदर्शन होगा इस नाटक में। और हाँ, मंत्री जी और राजपुरोहित से कह दें कि आगे से दरबार में बोलते समय सतर्क रहें, नहीं तो इनका नया किस्सा भी आ जाएगा ‘होलिका दरबार हास्य नाट्यम’ में!”

अब तो मंत्री और दरबारियों के चेहरे देखने लायक थे। बेचारे क्या कहते?

पर तेनालीराम का असली रंग तो अभी सामने आना बाकी था। और वह ‘होलिका दरबार हास्य नाट्यम’ की शक्ल में ढल चुका था।

जब होली का दिन आया, तो पूरे विजयनगर में तेनालीराम के ‘होलिका दरबार हास्य नाट्यम’ की धूम थी। मुनादी वाले राज कर्मचारी सुबह से ही गली-गली में ढोलक की ढम-ढमाढम के साथ मुनादी कर रहे थे—

“सुनो...सुनो...सुनो! आज राज उद्यान में तेनालीराम का लिखा हुआ बड़ा ही मजेदार और चुलबुला नाटक खेला जाएगा, ‘होलिका दरबार हास्य नाट्यम’।....ऐसा मजेदार नाटक कि आप पेट पकड़कर हँसने लगेंगे। विजयनगर की प्रजा और बाहर से आए अतिथियों को होली के उत्सव का असली आनंद लेना है तो तेनालीराम का यह अनोखा हास्य नाटक देखना न भूलें।...ढमढमढम...ढम-ढम-ढम!!”

होली वाले दिन सुबह-सवेरे ही राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम भी राज उद्यान में मौजूद था। बड़ी-बड़ी नाँदों में टेसू का रंग घोल दिया गया था। राजा कृष्णदेव राय के साथ रंग खेलने आए लोग साथ ही साथ तेनालीराम को भी रंगों से नहला रहे थे। विजयनगर की प्रजा के साथ-साथ बाहर से आए अतिथियों के चेहरे पर भी गहरी उत्सुकता थी। हर कोई जान लेना चाहता था, “जरा बताओ तो तेनालीराम, आज के होलिका दरबार हास्य नाट्यम में क्या दिखाया जाएगा?”

तेनालीराम हँसकर कहता, “मैंने पहले ही सब बता दिया तो नाटक में मजा क्या आएगा?...शाम तक इंतजार करो। फिर देखकर बताना, मैंने क्या दिखाया और क्या इशारों-इशारों में कह दिया, चुटकी भर गुलाल के टीके के साथ!”

सुनकर सब हँसने लगते और तेनालीराम की भेद भरी मुसकान और गहरी हो जाती।

कुछ समय बाद राजपुरोहित, मंत्री और सेनापति आए, अपने कुछ चाटुकार दरबारियों के साथ। मंत्री ने राजा को गुलाल लगाने के बाद तेनालीराम को गुलाल लगाते हुए कहा, “अरे तेनालीराम, तुम्हारे नाटक की हर जगह धूम है। पर देखो, कहीं तुम्हारी कलम होली के नशे में ज्यादा बहक तो नहीं गई?”

तेनालीराम हँसकर बोला, “मंत्री जी, होली आई और मन बहका नहीं, तो यह होली भी क्या होली है? वैसे तो अगर मैं बहक भी गया, तो इसके लिए आप ही जिम्मेदार हैं। पिछली होली में आपने मुझे धोखे से भाँग वाली बरफी खिला दी थी। उसका नशा तब तो नहीं चढा, पर लगता है, इस होली पर वह कुछ ज्यादा ही चढ़ गया है। तो कुछ न कुछ तो मेरी कलम बहकेगी ही। पर चिंता न करें मंत्री जी, मैंने सिर्फ चुटकी भर गुलाल ही लगाया है, आपको सिर से पैर तक पूरा रँगा नहीं है।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय समेत सभी हँसने लगे। राजा कृष्णदेव राय हँसते-हँसते बोले, “भई, आज तो हर कोई तेनालीराम को ही पूछ रहा है। लगता है, आज का दूल्हा तो तेनालीराम ही है।”

और शाम को जब तेनालीराम का नाटक ‘होलिका दरबार हास्य नाट्यम’ खेला गया, तो दर्शक इतने आनंदित हुए कि सभाकक्ष में हँसी की लहर पर लहर उठती, जो कभी-कभी तो तेज ठहाकों में बदल जाती। सभी लोग मानो हँसते-हँसते पागल हो रहे थे। राजपुरोहित का मटके जैसा पेट, मंत्री का ‘जी-जी...जी हाँ’ वाला नाटक, सेनापति की दाईं हथेली का पीपल के पत्ते की तरह विचित्र ढंग से हिलना, पुराने दरबारी के खर्राटे, नए दरबारी की उचकू उचकना वाली एक्टिंग...और सबसे बढ़कर देर से आने वाले दरबारियों का यहाँ-वहाँ छिपने के बाद ‘ज..ज...जी..जी...!’ कहकर क्षमा माँगने का अंदाज, सबने ऐसा समा बाँधा कि लगा, तेनालीराम ने होली पर रंगों के फव्वारे छोड़कर खूब ठिठोली की है।

पूरे विजयनगर में तेनालीराम के ‘होलिका दरबार हास्य नाट्यम’ की धूम मच गई। खासकर होली के आनंद उत्सव का रंग देखने आए अतिथियों के आनंद की तो सीमा न थी। सब उसे याद करते और हँसते। हँसते और याद करते। और होली के हुलियारों का कहना था, “विजयनगर का होली उत्सव सचमुच अनोखा होता है। पर इस बार तेनालीराम के ‘होलिका दरबार नाट्यम’ ने तो होली की ठिठोली का ऐसा रंग चढ़ाया कि वह कभी उतरेगा ही नहीं!”