बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को प्यार r k lal द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को प्यार

बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को प्यार

आर0 के0 लाल


आज रमेश के कॉलेज का वार्षिकोत्सव था पूरा ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था उसमें स्टूडेंट्स के साथ उनके पेरेंट्स ग्रैंडपेरेंट्स भी उपस्थित थे। मंच का संचालन स्वयं रमेश कर रहा था।

रमेश ने कहा आज हमारे बड़े-बूढे और युवा-पीढ़ियों के बीच जेनरेशन गैप बहुत बढता जा रहा है जिसका कुप्रभाव पूरे समाज पर पड़ रहा है। आप तो जान ही रहें हैं कि अब मैं बच्चा नहीं हूँ, कॉलेज के फाइनल ईयर में पहुंच गया हूँ, मगर मेरे घर के बड़े-बुजुर्ग अक्सर हमें खरी-खोटी सुनाते रहते हैं। कहते रहते हैं कि मेरे में कोई तहजीब एवं जिम्मेदारी की चीज नहीं है जबकि मैं अपने को अधिक संस्कारी, इंटेलिजेंट एवं विकसित समझता हूँ। यह व्यथा हमारे कई साथियों के साथ भी देखने को मिलती है । उनके घर के लोग भी बात-बात पर ताना और उलाहना देते रहते हैं । इससे अक्सर हम बच्चों में कुंठा की भावना जन्म ले लेती है । अभी कुछ दिनों पहले दसवीं कक्षा के एक छात्र ने अपने मां-बाप से पीड़ित होकर आत्महत्या तक करने का भी प्रयास किया था। पूरी दुनिया गवाह है कि आने वाला भविष्य हमारी युवा पीढ़ी की सोच और उनके प्रदर्शन पर निर्भर है। हममें जोश और उमंग की कोई कमी नहीं होती है।

इसके विपरीत बड़े बुजुर्ग भी हम युवाओं से दुखी रहते हैं कि हम उनकी नहीं सुनते और उनको इज्जत नहीं देते। हमारे पड़ोसी रामबरन अपने बच्चों से दुखी हो कर अपनी पत्नी के साथ कहीं भाग ही गये और गोविंद अपनी पत्नी के कहने पर अपनी विधवा माता जी को वृन्दाबन स्टेशन पर छोड़ आये थे। इस प्रकार की घटनाएं समाज में पारिवारिक संतुलन को बिगाड़ देती हैं । स्थितियाँ बद से बदतर बन जाएँ उससे पहले ही हमें कुछ प्रयास करना चाहिये। इसलिए मैं चाहता हूं कि आज दोनों पक्षों के लोग अपनी-अपनी बातों को सभी के समक्ष संक्षेप में रखें ताकि आज के जनरेशन गैप के कारण बच्चों और उनके माता-पिता के बीच हो रहे संघर्ष को समझा जा सके और दोनों पीढ़ियों की मनोदशा का उचित दर्शन करते हुये उसे खत्म किया जा सके।

रमेश ने प्रस्तावित किया कि इस मंच पर आज युवा वर्ग और सीनियर सिटीजन के कई प्रतिनिधि अपनी बात रखें और आडिएंस इसमें निर्णायक भूमिका निभायें। सबसे पहले मैं युवा वर्ग को अपनी बात रखने के लिए आमंत्रित करता हूं फिर मैं अपने आदरणीय बुजुर्गों से अपनी राय और सही बात, कि वे क्या सोचते हैं और क्या चाहते हैं बताने का विनम्र अनुरोध करता हूं।

यह सुनकर एक युवा कलाकार बुजुर्गों को इंगित करते हुए बोला, “ ये हमारे आदरणीय बुजुर्ग हैं जिनकी उम्र लगभग 60 -85 साल की है। ये कब संसार छोड़ कर चले जाएंगे इन्हें खुद पता नहीं। इतनी उम्र हो जाने के बाद भी ये लोग बुड्ढा कहलाना पसंद नहीं करते इसलिए इन्हें सीनियर सिटीजन कहा जाता है। हम वयस्क हो गए हैं फिर भी ये हमें बच्चा समझते हैं और बच्चा ही कहते हैं। हमको भी बच्चा कहलाना पसंद नहीं है। इनकी सोच आज के युवा लोगों की अपेक्षा बिलकुल अलग ही है। इनकी आदतें हम आधुनिक लोगों को एकदम नहीं भाती फिर भी बड़े होने के नाते हम इन्हें बर्दाश्त करते रहते हैं, मगर यह तो हमें हमेशा डांटते ही रहते हैं और अपनी प्रवृत्तियों को स्थापित करते हुये अपनी मनपसंद बातें हम पर थोपते रहते हैं इसीलिए दोनों ग्रुप में गहरी टकराव बनी रहती है”।

यह सुनकर बुजुर्गों से भी चुप नहीं रहा गया । उनमें से एक रिटायर्ड आफीसर ने कहा, “आज के युवा चाहते हैं कि उनके ऊपर किसी तरह का नियंत्रण न हो, इन्हें कोई रोके-टोके नहीं, वे अपनी मनमानी करते रहें। ये अक्सर अकेले रहना चाहते हैं इसीलिए संयुक्त परिवार को तज रहे हैं। उन्हें पता नहीं है कि संयुक्त परिवार के कितने फायदे होते हैं। कुछ बताओ तो ये सुनना भी नहीं चाहते” । फिर वे आगे बोले कि आज के युवा बुराई की तरफ ज्यादा बढ़ रहे हैं। उनमें तरह-तरह की नशा करने की आदतें पड़ती जा रही हैं। खुल्लम-खुल्ला सिगरेट और दारू पीते हैं। इनको बड़े बुजुर्गों का भी लिहाज नहीं रहता है कि किसके सामने किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। आजकल की लड़की-लड़कों में शरारत कूट-कूट कर भरी है जिससे ये जानबूझकर हमारी संस्कृति को तार-तार करने का प्रयास करते हैं। हम जो कुछ कहते हैं उसकी अवहेलना करके हमको खिझाते हैं। इनको चाहे जितना समझाएं इनकी समझ में कुछ नहीं आता । हमारी प्राचीन सभ्यता पूरे विश्व में विख्यात थी मगर अब उनका हनन इनके द्वारा किया जा रहा है क्योंकि ये लोग तो सिर्फ पाश्चात्य सभ्यता के कायल हैं।

सहकारी समिति के अवकाश प्राप्त सचिव रमाशंकर भी मंच पर मौजूद थे। उन्होंने अपना गुबार निकाला कि आजकल के लड़कों को एहसास भी नहीं है कि कितना कष्ट करके हमने इनको पाला पोसा है। खुद ठीक से नहीं खाया, ठीक से नहीं सोए और इनके लालन-पालन में अपनी अनमोल जवानी भी गवा दिया है। आज हम सीनियर सिटीजन हो गए हैं तो ये न तो हमसे बात करना पसंद करते हैं और न हमारी देखभाल करना इन्हें मन भाता है।

इस बात पर युवा सुरेश ने हाथ उठा कर अपनी राय बतायी कि पुरानी पीढी वाले सदैव यही चाहते हैं कि नई पीढ़ी उनका हर मामले में अनुसरण करती रहे जबकि हम अधिक वैज्ञानिक तरीके से अपने मन मुताबिक जीवन जीने में विश्वास करते हैं । हमें नहीं लगता कि हम गलत हैं । पर न जाने क्यों ये हमसे उलझते रहते हैं? मेरा मानना है कि इस टकराव का जिम्मेदार पूर्ण रूप से ये बुजुर्ग ही है।

एक अन्य युवा ने अपनी भडास निकाली, “ मैंने पाया है कि पुराने लोग अपने को बदलना ही नहीं चाहते। आज आदमी के लिए परिस्थितियां, आवश्यकताएं, विचार और जीवन- शैली सभी तेजी से परिवर्तित हो रहे हैं। अगर हम समय के साथ अपने को नहीं बदल पाएंगे तो जीवन में हम काफी पीछे छूट जाएंगे, यह बात ये बुजुर्ग नहीं समझते जो पुरानी परंपराओं एवं पुराने मूल्यों से ही जुड़े रहना चाहते हैं और परिवर्तन के रिस्क से घबराते हैं। कहावत है कि नो रिस्क नो गेन । चाहे विज्ञान की तरक्की हो या विचारों की तरक्की की बात हो हम तो इंटरनेट से सब कुछ सीख कर उनको ग्रहण करने की कोशिश करते हैं परंतु हमारे बुजुर्ग जो इंटरनेट का प्रयोग नहीं करते हैं, इन जानकारियों से वंचित रहते हैं और परिणाम स्वरूप कोई समझ नहीं बैठा पाते । वह तो सिर्फ हम पर चिल्ला कर तसल्ली कर लेते हैं” ।

सुरेश ने कहा कि हम अपनी याददाश्त बढ़ाने के लिए ब्रेन वर्कआउट के लिए कोई गेम्स खेलते हैं तो ये लोग कहते हैं कि हम अपना समय बर्बाद कर रहे हैं और इन चीजों से दिमाग बिगड़ जाता है बढ़ता नहीं । फिर पुरानी सलाह देते हैं कि दिमाग तेज करने के लिये बीस तक का पहाड़ा या संस्कृत के श्लोक कंठस्थ करो । अपने जीवन में उन्होंने जो भी पाया है उसी को यह आदर्श मानते हैं और उस अचीवमेंट पर इन्हें बहुत घमंड होता है।

एक दादाजी भी लडखडाते हुये बोले, “ ऐसा नहीं है कि सारे बच्चे उदंड हो गए हैं अथवा बडे बुजुर्गों को प्यार नहीं करते। आज भी कितने घर ऐसे हैं जहां माहौल बहुत ही सुखद होता है। जहां छोटे बच्चे दादा-दादी की थाली में ही खाना खाते हैं। उन्हीं के पास खेलते हैं और सोते है, उनसे पढ़ते भी हैं उनको सहारा भी देते हैं । मगर ऐसे बच्चों की संख्या भी बढ़ती जा रही है जो भारतीय परंपरा से दूर हो कर बिगड़ते जा रहे हैं। सारा दोष कंप्यूटर और इंटरनेट का है । आजकल युवा पीढ़ी में सोशल मीडिया , नए-नए फोन के प्रति आकर्षण और व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे नेटवर्किंग पर रुझान ज्यादा बढ़ गया है । इससे साइबर अपराधी कई दफे इन्हें चूना लगा देते हैं। इतना ही नहीं आज के युवा मेहनत में कम विश्वास करते हैं और रातो-रात करोड़पति बन जाना चाहते हैं । कुछ नौजवान तो पैसा कमाने के चक्कर में अपना रास्ता तक भटक जाते हैं और गलत मार्ग की ओर चल पड़ते हैं । हमारा तजुर्बा इनके काम आ सकता है अगर ये बच्चे फायदा उठाना चाहे ।

किसी आंटी ने कहा, “हम भी मानते हैं कि युवा पीढ़ी में कुछ नया करने की काबिलियत बहुत अधिक है । वे अपने नवीन विचारों को निडरता के साथ सबके समक्ष रखते हैं लेकिन जोश में पर नियंत्रण रखने की भी आवश्यकता होती है । अक्सर वे भूल जाते हैं और जोश में अपने होश खो देते हैं जो मूर्खता की निशानी होती है।

युवा सुरेश ने फिर कहा, “हमारे प्रति इनमें अविश्वास भरा है कि अगर हमें कुछ देंगे तो हम उसका सही उपयोग नहीं कर पाएंगे। ये कह्ते हैं कि हमें पैसे की कीमत का अंदाजा नहीं है इसिलिये हम धड़ल्ले के साथ महंगे कपड़े और लग्जरी की वस्तुयें खरीदते हैं और होटल में जाकर मौज मस्ती करते हैं । ये कहते हैं कि बहुत कम ऐसे बच्चे हैं जो अपनी पारिवारिक मजबूरियों को समझते हैं और उसी के हिसाब से अपने को ऐडजस्ट करते हैं।

यह सुनकर लाइब्रेरियन साहब ने हंसते हुये कहा कि इस बच्चे ने तो मेरी बात कह दी। आज का एक सच यह भी है कि युवा अपने शिक्षकों की भी नहीं सुनते हैं इसलिए दिशाहीनता की स्थिति बनती रहती है। इस भटकाव के कारण इनका भविष्य आखिर क्या होगा ? यह एक चिंता का विषय है। आज के युवाओं में धैर्य की भी कमी हो गई है, फल स्वरूप कई बच्चे तो आत्महत्या जैसे कलुषित प्रयास भी करने से नहीं चूकते।

अचानक मंच पर मनभावन जी ने ओम जी से पूछ लिया, “ कहो कैसे हो, सब ठीक ठाक तो है न?” ओम जी ने उत्तर दिया, "मजे में हूँ" लेकिन अगले ही पल ओम जी सबके सामने इमोशनल होकर रोने लगे। बोले, “ मेरे घुटने खराब हो गए हैं। घुटनों की ही तरह सहारा देने का जिनका भरोसा था वे लोग हमें बेसहारा छोड़ गए इसलिए लड़खड़ाता हूं फिर भी कहना पड़ता है कि मजे में हूं। बत्तीस दाँत अपने दोस्तों की तरह गायब हो चुके हैं। उनके बिना उसी तरह कपकपाता हूँ जैसे बिना दातों के ज्वीहा, फिर भी कहना पड़ता है कि मजे में हूं। अक्सर प्रतीत होता है कि सब साथ ही हैं पर धुंधली आँखों के बीच मोतियाबिंद के अलावा अब कुछ नहीं दिखता, केवल आंखे मुलमुलाता हूं फिर भी कहना पड़ता है कि मजे में हूं। अब तो तमन्नाएं भी बेअंदाज हो चुकी हैं सिर्फ कष्ट सहते रहना ही जीवन बन गया है फिर भी कहना पड़ता है कि मजे में हूं”।

एक दादी जी ने तो यहां तक कह दिया कि जएनेरशन गैप बढ़ाने में बच्चों के माता पिता भी जिम्मेदार हैं आज की बहुयें अपने बच्चों को दादा-दादी के निकट भेजने में कतराती हैं। उन्हें डर है कि हम बुजुर्ग उन्हें उद्दंड बना देंगे । बच्चों पर इन विचारों का गहरा प्रभाव पड़ता है और नतीजन कई बार हमें ओल्ड एज होम में डाल दिया जाता है। वे समझ ही नहीं सकते कि बुजुर्गो को वृद्धाश्रम भेजकर वे भी सुखी नहीं रह पायेंगे । कल के दिन इनके बच्चे भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार कर सकते हैं।

लोगों को इन वार्ताओं मैं में काफी मजा आ रहा था लेकिन निष्कर्ष निकालने के उद्देश्य से कालेज के प्रधानाचार्य महोदय ने उठ कर सभी को सम्बोधित किया और बोले कि इस संघर्ष की असली वजह यह नहीं है कि बुजुर्ग अथवा बच्चे बुरे हैं । अभिभावक के रूप में बड़े बुजुर्गों का कर्तव्य है कि वे आज के युवाओं को साथ लेकर ऐसे आयोजन करें जिससे युवाओं में अच्छे संस्कार का निर्माण हो। अगर वे संस्कारित हो जाएंगे तो न केवल उनका भविष्य उज्जवल होगा बल्कि समाज का भी भविष्य उज्जवल होगा । बड़े बुजुर्गों को चाहिए कि वह छोटे बच्चों में एक विश्वास विकसित करें। उन्हें एक बात और भी समझनी होगी कि बच्चों को भी ऐसा लगना चाहिए कि उन्हें आगे चल कर अपने बड़ों की जगह लेनी है और बड़ों को उनकी जगह जल्दी से जल्दी खाली कर देनी है । अगर ऐसा होगा तो दोनों पीढ़ियों में संघर्ष कदापि नहीं होगा, बच्चे भी किसी से दूर नहीं होंगे ।

आगे प्रधानाचार्य ने युवाओं से कहा कि छोटों को भी बड़ों की इज्जत करनी चाहिये । ये बुजुर्ग लोग धीरे-धीरे हमारा साथ छोड़ के चले जायेंगे। उनके संतोषी, सादगीपूर्ण जीवन, प्रेरणा देने वाला जीवन, बनावट रहित जीवन, धर्म सम्मत मार्ग पर चलने वाला जीवन और सबकी फिक्र करने वाला आत्मीय जीवन उनके साथ ही खत्म हो जायेगा। हो सके तो आप लोग उनके कुछ पद-चिन्हों पर चलने की कोशिश करें। इनके जैसा व्यक्तित्व मिलना बहुत मुश्किल है इसलिए हमें उनकी कद्र करनी चाहिए। अंत में मैं सभी को धन्यवाद देता हूँ । इस सम्मेलन के लिये बड़ों को चरण - स्पर्श और छोटों कों प्यार कहता हूँ।

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