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बदलने की जरूरत

बदलने की जरूरत
आर 0 के0 लाल
घंटी की आवाज सुनकर दरवाजा खोलने पर मैंने देखा कि मेरे एक सहकर्मी खड़े है। उन्होंने कहा “आज रविवार है, सोचा आप घर पर ही होंगे, चलकर आपका हाल-चाल पूंछ आए।” वैसे तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि जो व्यक्ति बिना किसी काम के किसी को नमस्ते नहीं करता आज क्यों मेरे सुख दुख में हिस्सा लेने मेरे घर आ गया है। फिर भी मैंने उन्हें अपने ड्राइंग रूम में बैठाया। बहुत देर तक वे गुमसुम बैठे रहे और मैं उनके लिए नाश्ते की व्यवस्था करता रहा। छुपाने का अथक प्रयास करने के बावजूद भी उनका चेहरा लटका हुआ था। मैंने पूछ ही लिया- “भाई! बताओ क्या बात है कुछ परेशान लग रहे हैं। कोई जरूरत हो तो खुलकर कहें। जो भी मुझसे बन पड़ेगा मैं करने को तैयार हूं।” मगर मन ही मन डर रहा था कि वे कहीं उधार पैसे न मांगे।
वे फूट पड़े -”भाई साहब ! मैं बहुत दुखी हूं ।रोज घर में चिक चिक होती है । आज तो हद ही हो गई। मारपीट की नौबत आ गई । मेरी समझ में नहीं आता मैं क्या करूं। दिन भर कार्यालय में खटता हूं अपने ऊपर कुछ भी खर्च नहीं करता और सब कुछ अपने परिवार के लिए ही करता रहता हूं। मगर मेरी तो कोई सुनता ही नहीं। जो कुछ जमा किया था वह बिटिया की शादी में खर्च कर दिया। दोनों बेटे कमाते हैं फिर भी घर के लिए अपनी जेब ढीली नहीं करना चाहते । आज टहलने गया तो जलेबी लाया था मगर कम ज्यादा खाने के चक्कर में सभी में कहासुनी हो गई । मैं तो सोचता हूं कि जलेबी ही लाना बंद कर दूं। सब लोग मुझसे ही करने की अपेक्षा करते हैं। लड़के , बहू सब चाहते हैं कि उनका बटवारा कर दिया जाए। बात बात पर लड़ते हैं । सभी को लगता है कि मेरे पास अकूत संपत्ति है । ले देकर एक घर ही तो है और आप भी जानते हैं की उसकी कटौती मेरी तनख्वाह से हो रही है। मुझसे चाहते हैं कि मैं उन्हें अपना सारा कुछ बराबर बराबर दे दूं । बेटी की विदाई के समय उसके सामान एवं कमरे पर कब्जा जमाने के लिए लोगों ने कितनी लड़ाई की थी मैं बता नहीं सकता और मुझे अपना कमरा भी छोड़ना पड़ा था ताकि बच्चे खुश रह सके। हम अपने घर में ही बहुत दुखी हो गए हैं। आप ही बताइए मैं क्या करूं ? मैं चाहता हूं कि अपनी बेटी के लिए भी कुछ करता रहूं । उसे कुछ देता रहूं जैसे पहले सभी बच्चों के लिए बराबर से करता था परंतु मैं ऐसा कर नहीं पाता। बेटे ही नहीं उनकी पत्नियां भी आड़े हाथ आ जाती है। कहती है कि क्या जरूरत है फिजूल खर्च करने की, दीदी तो अपने घर में अच्छा खा पी रही है, उसके पति अच्छा कमाते हैं ।शादी में भी हमने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी अब उसे कुछ देने की क्या जरूरत है। बेचारी तुम्हारी भाभी इसी बात से दुखी रहती है । मेरी कमाई , मेरी संपत्ति फिर भी मैं अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकता आखिर क्यों? किसी को घर बुला कर मौज मस्ती कर नहीं सकता कहीं टूर पर जा नहीं सकता, अपने मन का कुछ खरीद नहीं सकता। मैं अपने लिए कब जिऊंगा।”
फिर बोले देखिए ! आप कितना खुश रहते हैं। आपके घर के सभी लोग एक दूसरे का ख्याल रखते हैं।”
यह बात सच तो है परंतु मुझे याद आया कि पहले मैं कितना दुखी रहता था । मैं बहुत परेशान था। मेरी अपनी कहानी मेरे सामने मंडराने लगी । चाय का प्याला मेज पर ही पड़ा रहा और मैं सोचने लगा मेरी स्थिति भी कुछ भाई साहब की तरह ही थी। मै भीअपने लिए कभी कुछ नहीं कर पाता था। बहुत चिंतन के पश्चात एक बार मनाली जाने का प्रोग्राम बनाया था मगर लोगों ने कहा कि इस उम्र में कोई मनाली जाता है वह तो हनीमून मनाने की जगह है। फिर सोचा चलो किसी रिश्तेदार के यहां ही चला जाऊं। उस पर भी घरवालों ने कहा वहां जाने की क्या जरूरत है । वह भी कभी आते हैं हमारे यहां? आप जबरदस्ती जाकर पैसा खर्चा करेंगे । इस तरह तो मैं भी मन मार कर जी रहा था। घर वालो से डिस्कस करने पर तरह तरह की नुक्ताचीनी के फलस्वरूप सारी सोच धरी की धरी रह जाती थी। दो बेटे में से एक की शादी जीपीएफ निकाल कर कर दी। बहू को मेरे से ज्यादा अपने घर वालो पर गुरूर है। दूसरा बेटा बी टेक करके दो नौकरी से निकाला जा चुका था। बिजनेस करने के लिए पैसा मांगता रहता था। घर में कोई मेहमान या दोस्त आता तो बहू से चाय बनाने के लिए न कह पता और स्वयं ही बनाता । घर में इन्हीं सब बातो से अशांति थी।
मैं बहुत परेशान रहा करता था ।मैंने किसी के सामने अपना दुखड़ा नहीं रोया और अपने को बदलने की सोची। सोचा यहां पॉजिटिव काउंसलर्स की कमी है परंतु नेगेटिव सलाह देने वाले हर जगह मिल जाएंगे इसलिए उन से बचना चाहिए और आपस में ही बैठकर कोई ना कोई रास्ता ढूंढने का प्रयास करना चाहिए । लोग कहते हैं कि अपने को बदल लो, कोई प्रतिक्रिया मत व्यक्त करें, जैसा हो रहा है वही ठीक है । परंतु इससे तो हमारा तनाव और बढ़ जाता । यह तो सिस्टम से किसी को निकाल फेंकने वाली बात है । मैंने सोचा कि मेरी जिम्मेदारी सभी के प्रति एक सीमा तक है चाहे वह बहू हो, बेटा हो या रिश्तेदार हो। मुझे अपना जीवन जीना है और दूसरों को अपना जीवन , जिसके लिए उनको भी पूरी तरह प्रयास करना चाहिए। स्वयं कमाकर । कोई विकलांग तो नहीं है कि उनके लिए संचित करूं। सभी को अपनी जिम्मेदारी उठानी चाहिए । इतना ही नहीं मैंने अपनी सोच भी बदली कि मैं नौकरी अपने और अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए कर रहा हूं ना कि बाहरी लोगों के लिए । उस पर पहले मेरा अधिकार है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मेरी गलती थी कि हम नहीं चाहते थे कि वे सभी अपना मनचाहा काम करें परंतु हम अपना मनचाहा काम करना चाहते थे। यह कैसे संभव है ? सोचा उन्हें भी काम करने दीजिए और स्वयं भी करिए। इस प्रकार का एक आपसी समझौता होना चाहिए और उचित माहौल निर्मित करना चाहिए।
मैंने काफी प्रयास करके सभी परिवार वालों को सौहार्दपूर्ण ढंग से धीरे धीरे ये बातें समझा दी।
। यह तो मेरा सौभाग्य था कि वेे मेरी बात समझ गए। उन्होंने सहयोग किया। छोटे बेटे ने भी एक अच्छा बिजनेस जमा लिया बिना मेरी मदद के। आज सभी मिलकर घर चलाते हैं। मै भी अपनी जरूरतों के लिए प्लानिंग कर पाता हूं साथ ही परिवारों के वालों के जरूरत को नजरअंदाज भी नहीं करता परंतु मदद तभी करता हूं जब समझता हूं कि वह नहीं कर पाएंगे। शायद वे लोग भी हम पर विश्वास करने लगे हैं।
यह सब बातें मेरे चाहते हुए उन भाई साहब को नहीं बता सका क्योंकि उनके पास हर एक बात के कई लाजिक थे और वह अपनी बात को ही सिद्ध करने में लगे थे। वह चाहते थे कि मैं भी उनके बाल बच्चों की बुराई में सहयोग करूं। यही उनको अच्छा लग रहा था ऐसा मुझे समझ में आया। शायद वे किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जो उनकी हां में हां मिलाए। शायद वे नहीं समझना चाहते थे कि उन्हें भी बदल जाना चाहिए। कुछ देर बाद किसी बहाने से वे मेरे घर से निकल गए ।

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