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समय दान

समय दान

आर 0 के0 लाल


कितना खुश रहा करते थे शिवानंद। पचपन साल की उम्र होने तक उनके पास सभी तरह की सुख सुविधाये थी। धन दौलत, सुयोग्य संतान, अच्छी नौकरी के सहारे श्रेष्ठ गृहस्थ जीवन था उनका। साथ ही ईश्‍वर की कृपा से आरोग्यता का सुख भी उन पर बरस रहा था। उनका मानना था कि प्रकृति से सामंजस्य बिठाने से मनुष्य के जीवन में पूर्ण सुख की स्थिति अवश्य प्राप्त हो सकती है। अपने हृष्ट- पुष्ट गठीले शरीर को बहुत मेहनत से उन्होंने बनाया था जिसकी सभी प्रशंसा करते थे। उनका चेहरा हमेशा चमकता रहता। वे कभी शराब, तम्बाकू या सिगरेट को हाथ नहीं लगाते थे। ब्लड में शुगर और कोलोस्ट्रॉल न बढ़े , इसकी उन्हें परवाह होती थी। उनका खानपान सब कुछ नियंत्रण में था, कोई बीमारी नहीं थी। सब मिलाकर उनका समय सही चल रहा था।

शिवानंद को अपने भाग्य पर पूरा भरोसा था। वे कहते थे कि अपनी मेहनत से भाग्य को बदला जा सकता है। उन्हें ज्योतिषी और भविष्य फलादेश पर बहुत विश्वास था। अखबार पढ़ते तो अपना राशिफल अवश्य देखते। वे केवल उनमें वर्णित अच्छी बातें नोट करते। अनिष्ट के संकेत और खराब बातों को इग्नोर करते रहते परंतु उसे लेकर वे अक्सर मन ही मन डर जाते थे और सोचते रहते कि न जाने कब उनका बुरा वक्त आ जाये। इसी डर की वजह से शायद वे संस्कारी भी बन गए थे। अक्सर पीपल के नीचे दीप जला आते और एक दो फूल भी मंदिर में चढ़ा आते फिर कहते कि उनका समय सही चलेगा। पर समय तो समय है, कभी किसी का अच्छा समय आता है तो कभी बुरा समय।

रोज की तरह उस दिन भी सुबह उन्होंने अपने राशिफल में पढ़ा था कि अब अच्छा समय आ गया है, पारिवारिक मेल जोल बढ़ेगा, नए मित्रों से संपर्क होगा और पुराने कार्य पूरे होंगे, आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा परंतु दुश्मनो से सावधान रहें। उन्हें अपना भविष्यफल सही प्रतीत हो रहा था क्योंकि आज ही उन्हें बोनस की अच्छी रकम मिली थी। दुश्मनों से सावधान रहने की बात पर उन्होंने सोचा कि जब उनका कोई दुश्मन है ही नहीं तो क्यों परेशान होना। यह सब सोचते हुए वे दफ्तर से घर आ रहे थे कि अचानक एक कुत्ता उनकी बाइक से टकरा गया। वे गिर पड़े। हेलमेट पहनने के कारण उनका सिर तो बच गया परंतु उनकी रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट आई थी। उन्हें अस्पताल में 6 हफ्ते रहना पड़ा। अब वे कह्ते हैं कि बुरा वक्त हर व्यक्ति का आता है जो पहले से बताकर नहीं आता, समय और परिस्थितियां किस क्षण बदल जाएँ कहा नहीं जा सकता।

शिवानंद की बड़ी भाभी बहुत समझदार हैं। वे शिवानंद को समझाती रहती हैं कि किसी का खराब समय होता ही नहीं है। यह सिर्फ मन का भ्रम होता है जो किसी की नकारात्मक सोच का द्योतक होता है। अगर बुरा समय होता भी है तो वह तभी तक रहता है जब तक कि कोई उन से लड़ना नहीं सीख लेता।

शिवानंद कुछ दिन पहले ही अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर आए हैं। डॉक्टर ने उन्हें दो माह पूर्ण रूप से बेड रेस्ट की सलाह दी है। इसलिये वे हमेशा बिस्तर पर पड़े रहते हैं। सारा कार्य उनकी पत्नी को ही करना पड़ता है। घर में उनकी दो बेटे और बहुये हैं जो अपने अपने काम में व्यस्त रहते हैं। उन लोगों को शिवानंद के पास बैठने अथवा उनका कार्य करने की फुर्सत ही नहीं होती।

लेटे - लेटे शिवानंद का समय नहीं कटता है, इसलिए पत्नी को बार बार आवाज देते रहते हैं मगर उनके पास इतना समय नहीं होता है कि वे आकर इत्मीनान से शिवानंद के पास बैठ जाएं और उनका जी बहलाएं। ऑफिस में तो शिवानंद के समय का पता ही नहीं चलता था कि कब शाम के 6:00 बज गए। जब वह अस्पताल में भर्ती थे तो उनके दो – चार सहकर्मी अक्सर वहां आ जाते थे। शिवानंद को बुरा नहीँ लगता था कि ज्यादातर लोग केवल दफ्तर से लौटते समय फॉर्मेलिटी करने ही अस्पताल आते थे और दो – चार मिनट रुक कर चले जाते थे। शिवानंद को भी औपचारिकताबस कहना पड़ता था कि सब कुछ ठीक है मगर उनका मन कितना व्यथित रहता था वे ही जानते थे। शिवानंद दिन भर पड़े पड़े इंतजार करते रहते थे कि कब शाम हो और कुछ लोग उनसे मिलने आए। वे चाहते थे कि लोग बैठ कर उनके साथ ठीक उसी तरह गप्पें मारें जैसे दफ्तर में चाय पीते समय हुआ करता था, लेकिन उनके लिये शायद किसी के पास समय ही नहीं है। कितने लोग तो व्हाट्सएप पर “ गेट वेल सून” का मैसेज फॉरवर्ड करके ही अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे और शिवानंद को उतने से ही काम चलाना पड़ रहा था। जैसे ही फोन पर व्हाट्सएप की ट्यून सुनाई पड़ती शिवानंद फौरन लपक कर फोन उठाते और देखते कि किसका मैसेज आया है और उसने क्या लिखा है। ज्यादातर मैसेज पुनः फॉरवर्ड ही होते थे पर उससे उनका कुछ समय तो सरक ही जाता था। अस्पताल से घर आ जाने पर व्हाट्सएप मैसेज भी कम आ रहे हैं जिसका शिवानंद को दुख है।

उनके एक ख़ास दोस्त निरंकार कई दिनों के बाद घर आए। आते ही बोले, " कैसे हो शिवानंद भाई ? कैसे तुम्हारा एक्सीडेंट हो गया? मैं तो कई दिनों से आने का प्रोग्राम बना रहा था मगर शादी- ब्याह का सीजन होने के कारण फुर्सत ही नहीं मिलती है। आज बड़ी मुश्किल से आ पाया हूं, अभी लौट कर मोहल्ले के पप्पू की बरात का पूरा इंतजाम मुझे ही करना है। इतना कहते हुए वे कुछ ही मिनटों में उठ खडे हुये और इस प्रकार बाहर निकल गए जैसे मुझे कोरोना हो गया हो। शिवानंद चाहते थे कि कोई आये जिससे वे देर तक खुल कर अपनी व्यक्तिगत बातें कह सकें। उनकी व्यथा इस बात को ले कर थी कि कोई उन्हें मौका ही नहीं दे रहा था। इस कारण वे काफी चिड़चिड़े हो गये हैं और घर वालों पर अपना गुस्सा निकलते रहते हैं। इससे घर वाले अब उनके पास जाने से कतराने लगे हैं।

शिवानंद को दुखी देख कर उनकी पत्नी सुनंदा ने उन्हें समझाया कि आजकल भागदौड़ के जमाने में किसके पास समय है कि वह मेरे घर आए। इसलिये आप ही सभी दोस्तों और रिश्तेदारों को कॉल करके बात कर लें। इससे आप का काफी समय बीत जाएगा और पुराने लोगों से संबंध भी तरोताजा हो जाएगा। उनकी बात मानकर शिवानंद ने एक-एक करके सभी रिश्तेदारों और दोस्तों के नाम लिखें और मोबाइल नंबर ढूंढने का प्रयास किया। कुछ नम्बर उनके मोबाइल में था तो कुछ उनकी डायरी में। बचपन के दोस्तों की भी याद उन्हें आई परंतु उनसे कोई संपर्क नहीं हो पाया। अब उन्होंने एक एक करके फोन मिलाना शुरू किया। कुछ से बात भी हुई। सब ने एक्सीडेंट होने का दुख प्रकट किया मगर फोन पर बहुत ज्यादा बात नहीं हो सकती थी इसलिए ज्यादातर लोग कह देते कि मैं फोन करता रहूंगा और तुम्हें देखने भी आऊंगा। कम लोग ही थे जिन्होंने अपनी तरफ से दोबारा फोन करके हाल-चाल लिया हो। अक्सर लोगों के फोन की घंटी बजती रहती और फिर आवाज आती “ आप जिस व्यक्ति को मिला रहे हैं वह कॉल नहीं उठा रहा है कृपया कुछ देर बाद डायल करें”। पचहत्तर फीसदी फोन तो नेटवर्क से बाहर होते और बाकी दूसरे कॉल पर व्यस्त होते। शिवानंद तीन चार दिन में ही इस कार्य से ऊब गये और हताश हो गये।

शिवानंद ने अपनी पीड़ा अपने परम मित्र निरंकार को ऐसे बताई, “ आजकल किसी के पास मेरे लिये समय ही नहीं है। बेटा हो या बहू सब अपने काम में व्यस्त रहते हैं, मुझे तो कोई पूछता ही नहीं। जब अभी यह हाल है तो बुढ़ापे में क्या होगा?”

उनके मित्र ने उत्तर दिया, “तुम्हारी स्थिति तो बहुत अच्छी है। कितने बुजुर्ग ऐसे हैं जो बिना बच्चों के अकेले रहने को मजबूर हैं। उनको कोई देखने वाला नहीं है। अनेकों लोग तो घर से ही निकाल दिये गये है”। उनके मित्र ने उदाहरण दिया कि पड़ोस के शुक्ला जी लकवे के शिकार हो गए हैं। उनके बेटे अलग मोहल्ले में रहते हैं जिससे उन्हें अकेले अपनी पत्नी के साथ रहना पड रहा है। बहुत पैसा है उनके पास, पर सब बेकार है। उन्हें कोई काम करने वाला भी नहीं मिल रहा है। आज काफी बुजुर्ग स्वयं को समाज से कटा हुआ और मानसिक रूप से दबा हुआ महसूस कर रहें हैं। संयुक्त परिवार में भी किसी के पास उनसे बात करने का समय नहीं है। उनसे पूछो कि उनके लिये यह बात कितनी पीड़ादायी है, लेकिन वे शायद ही कभी इस पीड़ा को व्यक्त कर पाते हैं। वे भी चाहते हैं कि उनका जीवन अपनो के बीच खिलखिलाहट के साथ बीते। साथ ही बीमारी अथवा मुसीबत में कोई उनके काम आएं।

शिवानंद ने अपने मित्र की बातों से सहमति जताई और खुद ही बोले, “ आज केवल बुर्जुग ही नहीं बल्कि बिखरते परिवार व्यवस्था में युवा भी अकेले होते जा रहे हैं। वे अपने घरों में ही अकेले रहने को मजबूर हैं। उन्हें भी अपनों की कमी का अहसास खलता है। परिवार के सदस्यों के बीच नाराजगी से अक्सर लोग एक दूसरे से बात करने से कतराते हैं। एक दूसरे का फोन तक नहीं उठाते और उठा भी लिया तो समय न होने की माफी मांग लेते हैं। किसी वस्तु या पैसे देने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति समय को लेकर कहीं न कहीं से दुखी अवश्य है जिससे उसके मन की आकुलता तनावपूर्ण जीवन को और अशांत बना रहा है, फलस्वरूप वे गम्भीर रोगी बनते जा रहे हैं।

निरंकार ने बड़े बेबाकी से कह दिया कि जैसा करोगे वैसा पाओगे। सोचो तुमने किसी को कितना समय दिया है जिससे लोग तुम्हें समय दें? शिवानंद को अपनी गलतियां का पता चल गया था। उन्होंने निरंकार से पूछा कि उन्हें क्या करना चाहिये?

निरंकार ने दलील दी कि किसी को पैसा न दो परंतु उसे समय दो, जरूरत पड़ने पर उसकी सेवा कर सको तो बहुत उत्तम है। कितने लोग होटलों की तरह पड़े रहते हैं अपने अपने कमरे में। बाहर निकलते हैं लेकिन उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें अस्पताल ले जाने वाला, सहारा देने वाला कोई नहीं है। मुसीबत केवल बुढ़ापे में ही नहीं आती बल्कि कभी भी आ सकती है, इसलिए सभी को समय दान करने की जरूरत है ताकि निर्भयता का भाव सहेजे हुए सह अस्तित्व से ओतप्रोत समाज की पुर्नस्थापना हो सके और म्यूच्यूअल हैप्पीनेस एंड प्रोस्पेरिटी वाला रिलेशनशिप विकसित हो सके। उन्होंने सुझाव दिया कि पैसे की तरह समय को इंवेस्ट किया जा सकता है, दान दिए गए समय का लेखा जोखा रखा जा सकता है। जरूरत पड़ने पर उतने समय को वापस लिया जा सकता है। कम से कम उनसे अपेक्षा की जा सकती है जिसे आपने समय दिया है। ज्यादा समय इंवेस्ट्मेंट तो ज्यादा समय रूपी पूंजी।

पुराने समय मैं जब कोई बीमर पड़ता था तो पूरे खानदान वाले उसे देखने आते थे। उनके सांत्वना भरे शब्द मरीज को हताश होने और अकेलेपन के गर्त में जाने से रोकते थे । कहा जाता है कि बीमार लोग सांत्वना से जल्दी ठीक हो सकते हैं। सहानुभूति का वातावरण पाने से रोगी के निषेधात्मक एवं विरोधी संवेगों के पश्चात्‌ धनात्मक भावों का भी प्रदर्शन होता है जो उपचार की एक आवश्यक प्रक्रिया बन जाती है । इसलिये हमें अपनी इस पुरानी मान्यता को फिर से लागू करना चाहिये | अगर आप अपने दोस्त से मुलाकात नहीं कर सकते, तो आप उससे फोन पर बात कर सकते हैं, खत लिख सकते हैं या फिर उसे ई-मेल भेज सकते हैं। खूबसूरत होते हैं वो पल जिसमें दोस्त साथ होते हैं। इस प्रकार अपनो के लिये समय देना एक जरूरी कर्तव्य है।

उनके मित्र ने बताया कि स्विट्जरलैंड के स्वास्थ्य मंत्रालय ने वृद्धावस्था सहायता कार्यक्रम के रूप में 'टाइम बैंक' की अवधारणा लागू की है जिसके तहत लोग स्वेच्छा से बुजुर्गों की देखभाल कर सकते हैं। लोग जितने घंटे वरिष्ठों के साथ बिताते हैं या उनकी देखभाल करते हैं वह समय उनके व्यक्तिगत सामाजिक सुरक्षा खाते में जमा किया जाता है। इतना ही नहीं इस प्रकर से बिताये समय को एक खाते में दर्ज करा के इसे पैसे में भी बदल जा सकता है और उससे कोई वांछित वस्तु या सेवा प्राप्त किया जा सकता है।

अपने देश के मध्यप्रदेश में भी इस तरह के बैंक चलाने की योजना है जिसमें कालेजों के राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयंसेवकों से सेवा ली जाएगी। इसके लिए एक एप भी तैयार किया जा रहा है।

शिवानंद की भाभी भी यह सब सुन रहीं थी वे बोलीं, “ क्यों न हम भी इसे अपनायें? बिना सरकार की मदद के भी हम कुछ कर सकते हैं। इस यात्रा की शुरुआत के लिये आपका जुनून आपकी सहायता करेगा। आप अपने साथियों के साथ समय बैंक की संभावनाओं की कल्पना करें और उनके साथ विचार-मंथन करें। उनकी प्रतिक्रिया के अनुसार समूह बनाएं। एक ब्रोशर या वेब साइट बना कर आउटरीच शुरू करें । नए सदस्यों को साइन अप करें और समय का आदान-प्रदान शुरू करें।

शिवानंद ने पूछा कि कोई इसमें सदस्य क्यों बनेगा? इसका उत्तर उनके मित्र ने दिया कि जब एक व्यक्ति को लगेगा कि जो समय दान उन्होँने दिया है उसका लाभ उन्हीं को मिलने वाला है तो लोग अवश्य ही आगे आयेंगे। केवल ऐसी व्यव्स्था करनी होगी कि जो सदस्य बिना किसी शुल्क के अपना समय दूसरों को देंगे उन्हें उनकी जरूरत के समय अपने ग्रुप के साथियो से उतना समय आप दिला देगे। आशा है इस प्रकार यह योजना चल निकलेगी।

अकेले रह रहे वरिष्ठ लोग चाह्ते हैं कि कोई तो हो जो उनकी दैनिक जीवन की सभी जरूरतों को पूरा करने में सहायक हो परंतु उन्हें डर लगता है कि किस पर विश्वास करें। एक बात और है कि जो बुजुर्ग गम्भीर रूप से बीमार नही हैं वे भी किसी को कुछ न कुछ समय दे सकते हैं। ऐसे लोगो को प्रेरित करके उन्हें भी इस योजना में शामिल किय जा सकता है।

इन बातों से शिवानंद ने निर्णय कर लिया कि ठीक हो जाने पर वे भी एक समय- क्लब की स्थापना करेंगे जो एक समय बैंक के रूप में कार्य करेगा।

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