लीला - (भाग 28) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग 28)

उसकी औरत शर्बत बना लाई थी। लीला से ना करते न बना। शाम घिर रही थी। थोड़ी देर में वह उठकर नेहनिया थोक में अपने घर चली आई। भौजाई का चेहरा उसे देखते ही खिल गया। उसने खूब दाब-दाब के पाँव छुए और दोनों हाथों की मिट्ठी लेकर अपने कलेजे से लगा ली। पूछा, ‘‘दौड़े पे आईं...?’’
‘‘दौड़ा-का...!’’ उसने कहना चाहा फिर कुछ सोच कर रह गई।
‘‘और सुनाओ, का चल रओ हेगो! वो केस निबटि गओ?’’
‘‘वे-ई निबटि गए, केस-का!’’ उसने संक्षेप में बता दिया।
तब देर बाद भौजी उसे आराम की सलाह देकर ख़ुद गगरा-तम्हाड़ी उठा पानी भरने चली गई। लीला आँगन में बिछी खाट पर लेट गई। दादा हार से नहीं लौटे थे-अभी। बड़े-छोटे दोनों भतीजे उनके साथ ही होंगे। पम्प लगा के कछवारी कर लई है। ...चलो ठीक है। मेहन्त में ही मज़ा है। जे चमार बनि के करेंगे, ते राजा बनि के खाइँगे
भी...।
आश्वस्ति उसके चेहरे पर झलक उठी थी।
पानी-पत्ता से निबट कर भाभी ने उसके लिये चाय बनाई। फिर रोटी चढ़ा दी। लीला चैके में ही बैठ गई। गाँव के चलन के बारे में बातें होने लगीं। वह खोद-खोदकर पूछ रही थी। उसे पीहर के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता रहती थी। किसके क्या बाल-बच्चा हुआ? किसका आदमी कहाँ है? किसकी बहुएँ दुखी-सुखी हैं? कौन-कौन से बूढ़े-बुढ़िया सही सलामत हेंगे। ...और कठोंद के हालचाल...?
मनोज के स्मरण से उसे निराशा हुई।
भाभी ने पूछा, ‘‘तुमारे लानें कोई देखें? ...अब तो सिगरे झंझट निबटि गए, अजान ते-ऊ पीछो छूटो!’’
अजान की बात चलते ही उसकी देह में सुइयाँ-सी चुभने लगीं। वह एकान्त चाहने लगी। उठ कर चबूतरे पर निकल आई। ...सैर में आमदरफ़्त थी। हार से चैपायों, चरवाहों और किसानों की वापसी हो रही थी। खुरों, पहियों और जूतों से उठती धूल की गंध उसकी नाक को भली लगने लगी।
फिर आकाश तारों से भर गया तब दोनों भतीजे लौट आए। उन्होंने झुक-झुककर लीला के पाँव छुए और उसने उन्हें अपने गले से लगा लिया। वे सुबह साथ चलने की ज़िद करने लगे।
‘‘ददा रात में कछवारी पे ही सोत हैं!?’’ उसने भीतर आकर भौजी से कन्फर्म किया।
‘‘हओ!’’ वे मुस्करा उठीं, ‘‘अब का धरो-ए इतें!’’
‘‘का-ए, अभी का बाग सूख गए?’’ लीला नज़रों से उसकी देह टटोलती हुई मुस्कराई।
‘‘सूखे-ई नईं, झरि-बी गए!’’ भाभी ने परिहास किया। फिर गंभीरता से बोली, ‘‘अब तो पहाड़न (नील गायों) सें किसान भारी दुखी है। ...फसल ऐसें चैपट कर डारती हैं,’’ उसने हथेली पर हथेली का रोलर फेरा, ‘‘बिल्कुल तेहस-नेहस! तामें कछवारी में बड़ी मेहन्त है, लली! संझा बिरिया है, सिगघरई-सौं, ददा तिहाये तीन-तीन, चार-चार दिननि में घर-घूरो देखिपात हैं।’’
सुबह वह भतीजों को लेकर कछवारी पर चली गई। वहाँ चारोंओर हरियाली लहरा रही थी। खाई डाल कर खूब ऊँची बाड़ बना ली थी दादा ने। पम्प के बग़ल में एक पक्का कोठा भी, उसके आगे टीन...। वह मुड़ाइचा बाँधे, मैला-सा कुरता डाटे, खुरपी हाथ में लिये ज़मीन में कुछ खोदाखादी कर रहा था...उसे देखते ही चेहरा खिल गया। झुक कर पाँव छुए, लीला बाँहें खोल कर मिलाप करने लगी। छाती से छाती जुड़ते ही अनोखी ठण्डक महसूस होने लगी। दोनों का दिल भर आया।
फिर अलग होकर ददा ने अपना मुड़ाइचा खींच कर तख़्त फटकारा। लीला आँसू पोंछ कर सिरहाने बैठ गई।
‘‘लाखन के रामवीर पोंहचे हुइ हैं?’’ भाई ने मुँह फाड़ा। वे उम्रदराज़ लग उठे थे।
‘‘हओ!’’ लीला की गर्दन हिली।
‘‘कछू मदद कर सकति हो?’’
‘‘काहे,’’ लीला ने आँखें तरेरीं, ‘‘इन लोगन ने कित्ती करी चमान्नि की मदद?
घोड़ा की नाईं खुरनि में नाल-ई नईं ठोंके, और का कसर छोड़ें रहे...सो तुम इतने धर्मात्मा बन्त हौ!’’
उसने गर्दन झुका ली। लीला ने लाजवाब कर दिया था।
‘‘तो बरन देउ उतें,’’ वह उठ गया, ‘‘अपने ढिंग आओ तासे कही-ती।’’
फिर उनमें कोई ख़ास बात नहीं हुई। वह दुपहर तक कछवारी में घूमती रही। आम, कटहल के पेड़ों के नीचे अनोखी शांति थी। नींबू की झाड़ियों में ग़ज़ब की ठण्डक! सब्ज़ीभाजी, धनिया, पालक, मूली और मिर्चें अपनी जड़ों से जुड़ी खिलखिला रही थीं।
भाई ने वो लज़ीज़ टिक्कर बनाए कि उनका स्वाद वह देर तक नहीं भूली। भाभी को लौट कर सबकुछ बताया उसने...। और दो घंटे घर में लेट कर शाम के वक़्त शहर चली आई।

दो दिनों में प्रकाश और रामवीर कुछ नज़दीक आ गए थे। लीला को वे साथ-साथ रसोई रचते मिले। दिन भर की थकी-हारी अन्यमनस्क-सी वह बिस्तर पर लेट गई। उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं...मन में तीव्र अन्तर्द्वन्द्व चल रहा था।
रात को समाचार सुनने के लिये टीवी खोला तो नेशनल चेनल के आगामी कार्यक्रमों की झलक में एक मुशायरे की झलक थी। एक बुज़ुर्ग शाइर शे’र पढ़ रहे थे,
‘काँटा काँटे से निकलता है ये सच है, लेकिन
ख़ून से ख़ून का धब्बा कभी धुलता ही नहींऽ!’
वह भड़भड़ाकर उठ बैठी। मानो एकबारगी समूची संवेदना झिंझोड़ दी गई हो! बड़ी देर तक रोमांचित बनी रही और अंततः उसने निश्चय कर लिया कि रामवीर की मदद करेगी।
सुबह उठ कर वह नियत समय पर कलेक्टर ऑफिस चली आई। केबिन बंद था। स्टेनो का भी कहीं अता-पता नहीं था। उसके पेट में जाड़ा-सा घुसने लगा।
‘कहीं ऐसा तो नहीं कि उनका तबादला ही कैंसिल...न हुआ हो!’ आशंका में उसने ए.डी.एम. के यहाँ जाकर पता किया! तो, पता चला कि ‘साहब का तबादला तो निरस्त हो गया है पर पड़ोसी शोजपुर ज़िले के कलेक्टर साहब ट्रेनिंग के लिये लंदन गए हैं। इसलिए, अपने ज़िले के साथ-साथ शोजपुर के डी.एम. और कलेक्टर का चार्ज भी उन्हीं पर आ गया है। तीन दिन यहाँ और तीन दिन वहाँ बैठने लगे हैं! कल के गए हैं...आज और कल भी वहीं का काम निबटाएँगे!’
इस नई ख़बर ने लीला को एक बार फिर हतप्रभ कर दिया। ...अब वह शोजपुर चली जाय उनसे मिलने या दो दिन यहीं प्रतीक्षा कर ले! और तब तक पुलिस ने दबिश देकर रामवीर को पकड़ लिया तो! या दम तोड़ते लाखन को ही धर ले जाय, तो क्या होगा?
(क्रमश)