लीला - (भाग-4) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग-4)

सुनने में आता कि डोकरी कभी-कभी बहुत ज़्यादा बड़-बड़ कर उठती है! पर लीला कोई ध्यान न देती। उसे उसकी नसीहत, फ़िक्र और अवस्था पर दया आती। और वो सेवा-टहल में ज़रा भी कसर न रख छोड़ती। इसके अलावा उसे अपने भविष्य का भी ख़्याल था! सुनने में आ रहा था कि सरकार युद्ध विधवाओं को ज़मीनें और मकान दे रही है! उसे अनुकम्पा नियुक्ति भी तो मिल सकती है? इसी उम्मीद में वह ज़िला मुख्यालय तक दौड़ती थी। पहले अकेली दौड़ती थी और अब अजान सिंह मिल गए थे। उनके लिये साइकिल बड़ा वरदान सिद्ध हुई। क्योंकि साइकिल पर वे सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे के क़रीब बैठ सकते थे। जी भर के बतिया सकते थे। और वापसी में देर से लौट सकते थे।
...उस दिन बीहड़ी ज़मीन के पट्टे के एवज़ शहर में आवास लेने का विकल्प देते-देते साँझ हो गई दफ़्तर में तो अजान सिंह को फिर से किसी गुप्त ख़ुशी का एहसास होने लगा। लीला यों भी बहुत ख़ुश थी कि शहर में अपना मकान हो जाने से गाँव के दलदल से छुटकारा मिल जाएगा। और यहाँ परमानेंट रहने से अनुकम्पा नियुक्ति का जुगाड़ भी जल्दी बैठ सकता है! ज़िंदगी बदल जाएगी। ईश्वर ने दुख दिया तो सुख की आस भी बँधा रहा है।
वह अपने ही ख़यालों में मस्त आँखें मूँदे बैठी थी कैरियर पर। अजान सिंह पहले उसे चाट के ठेले पर ले गया। फिर कुल्फी खिलाई। फिर पूछा, ‘‘फ़िल्म देखोगी?’’
‘‘नईं-जी, देर हो जाएगी ना!’’ उसने लड़िया कर कहा। फिर सपनों में तैरती-सी बोली, ‘‘दिन देरी है... चर्चा चल रही थी उधर... कालोनी का ठेका हो गया है।’’
‘‘अच्छा!’’ अजान सुखद आश्चर्य में डूब गया और कल्पना करने लगा कि एक विचित्र से घर में बाक़ायदा पति की तरह उसके साथ रह रहा है...।
शहर से निकलते ही उन्हें झुटपुटे ने घेर लिया था। सड़क पर आते-जाते इक्का-दुक्का वाहनों की हैडलाइट में कुछ देर के लिये वे ऐसे नहा जाते, जैसे, सागर तट की रेत! और उस भक्काटे के ग़ुज़रते ही फिर छाया बन जाते। टायरों की सूँ-सूँ से सन्नाटे का एहसास होता। पर सन्नाटा, अँधेरा और एकांत कोई अनजान ख़ुशी लेकर आ रहा था। इस वक़्त वह काफ़ी तेज साइकिल चला रहा था। और चल यहाँ रहा था, सड़क पर, मन आमों की बग़िया में पहुँच रहा था। जहाँ दुपल्लू मड़ैया में पड़े तख़्त पर जैसे, मधुयामिनी मनाने जा रहा हो...। कल्पना में विकल उसका हृदय ज़िस्म से बारह निकला पड़ रहा था।
पेंड़ा पर मुड़ते हुए अगला पहिया बुरी तरह फिसल गया। साइकिल गिरते-गिरते बची...।
‘‘गैल खराब है, आगे आ जाओ-अब!’’ वह हाँफता हुआ बोला।
लीला ने पहले की तरह तालू से जीभ चिपका-छुड़ा ‘कुच्च’ कर ना में गर्दन नहीं हिलाई, मुस्कराती हुई हेंडिल पकड़, पैडल पर पाँव धर आगे आ बैठी!
ऊपर चाँद निकल आया था। चोखी चाँदनी में चौड़ी पगडण्डी ख़ासा चमक रही थी।
और अजान उसे बाँहों में भरकर चल उठा तो आसमान भी जैसे सितारों से भर गया। इससे पहले उसे ऐसे अप्रतिम आनंद का शायद ही कभी एहसास हुआ हो! लगा, ‘ये प्रेम है! हाँ, यही प्रेम है! क्योंकि इसे मैं महसूस कर सकती हूँ...’
हृदय में बेशुमार तरंगें उठने लगीं।
लगभग दो फर्लांग और चलकर अजान अचानक साइकिल से उतर पड़ा। उसने इशारे से पूछा, ‘क्यों?’
बोला, ‘‘शार्टकट निकल चलें, आमों की बगिया पे हो-के!’’
धुकधुकी बँध गई। बग़िया के रास्ते से जाने का मतलब वह समझ रही थी...पर अजान को अब रोका नहीं जा सकता। और...उसने वही धूल भरा सैर पकड़ लिया तो वह भी ख़ुशी में घबराई हुई-सी उसके पीछे चल पड़ी।
अब उन्हें नहीं पता कि कितने बज गए...? और ना यह कि पगडण्डी से ही कोई उनके पीछे भी लगा है! गंतव्य की तरफ़ वे किसी अंधड़ की भाँति बढ़ते जा रहे थे।
इस झोंक में नहीं जान पाए कि पीछे एक नहीं, दो जन लगे थे...। गोपी और बल्ले! दोनों थे तो अजान के लँगोटिया यार ही और लीला को फँसाने की मुहिम में भागीदार भी। पर जब से अजान ने उसे अकेले ही हथिया लिया है, बैर साध गए हैं!
आज मौक़ा लग गया...रंगे हाथ पकड़ कर हवस मिटाने का, बैर बुझाने का मौक़ा! जबकि, अपने पीछे लगे इन राहु-केतु से अनजान, मदहोश अजान बग़िया में पहुँचते-पहुँचते भावविह्नल हो उठा था। इसी बेसब्री में साइकिल उसने पेड़ पर गिरा दी और उसका हाथ पकड़ मड़ैया में तख़्त पर खींच लिया! मगर उसे ग़ैर मर्द के साथ भारी संकोच हो रहा था। घिघियाती-सी फिर एक बार मुक़रने लगी, ‘‘सही में...हम तुमें पाक मोहब्बत करें चहात् ते!’’
‘‘पाऽगल...!’’ अजान रोता-सा हँसा।
प्रेम की इस अनूठी यातना से जैसे, पहली बार ग़ुज़र रहे थे दोनों। बेख़ुदी में पता ही नहीं चला कितने पल ग़ुज़र गए! तभी बल्ले ने जैसे, धमाका कर दिया, ‘‘ऐऽइ! कौन है इधर...?’’ तो वे घबड़ा कर जैसे, मूर्ति बन गए। साँस तक साध ली, मानों यहाँ अब कोई जीता-जागता न हो!
मगर बल्ले फिर दहाड़ा, ‘‘बेट्टा अजानऽ! अब बाहिर आ जाउ नीकें-नीकें!’’
अजान को काटो तो ख़ून नहीं...। स्वर से वह पहचान गया था उसे। और लीला उससे भी अधिक भयभीत...। भीतर देर तक कोई हरकत न हुई तो इस बार गोपी ने हाँक लगाई, ‘‘ओएऽ! तेंनें मँुदरिया पेहर लई होइ तो इतें निकरि-आ, अबऽ!’’
लीला और भी दहल गई, ‘दो हैं...और भी कोई दुश्मन न हो!’ प्राण सूख रहे थे उसके। दुपल्लू मड़ैया कोई बुर्ज न थी जो अजान मोर्चा ले लेता! और न उस पे कोई तोप-तमंचा...। अब तो सरासर ऊखल में सिर था! बाहर निकल आया और अकड़ कर बोला, ‘‘वो मुझे राजी...’’
‘‘राजी तो हमें भी है जागी,’’ बल्ले ने बीच में लपक ली बात...और बल्ले से गोपी ने, ‘‘तूनें अकेलेंई ठेका पे लै लई है-काऽ?’’
‘‘जुबान सम्हारि कें बोलोऽ!’’ अजान हाँफ गया, ‘‘वो कोऊ धत्ती नईं है जो ठेका पे उठेऽ! सबकी इज्जत होत है, गरीब-अमीर सब की।’’
‘‘वाह रे जज!’’ दोनों ने एक साथ मज़ाक उड़ाया, ‘‘चमरियन की भी इज्जिति होन लगी अब! ह-ह-ह...।’’ वे अट्टहास कर उठे।
बात लीला को एकदम गोली-सी लग गई। तिलमिला गई वह। और वो, जो सास से बात-बात में कह बैठती थी कि कोऊ मद्द को चोदो मेरे जराँ आ-भी तो ले! वही तैश साक्षात् प्रकट हो गया...जो वह लगभग ऊलकर मड़ैया के बाहर गिरी और उसने बड़े अप्रत्याशित ढंग से कमर पर हाथ धरकर दाँत किटकिटा कर कहा, ‘‘है-को मोंड़ी चोदऽ! जो मोइ राजी करै...’’ तो उसकी फटी-फटी आँखें देखकर और गर्जना सुनकर बल्ले और गोपी की तो हवा ही निकल गई। अब उसके साथ संभोग तो दूर, रेप भी नहीं कर सकते थे वे!
अजान मज़बूत हो गया। उसने दोनों की गर्दन पकड़ी और कहा, ‘‘लउआ! घर जाइकें अपंईं-अपंईं मेहरियन को दूध पियो पहलें!’’ ऐसा करते हुए हालांकि उसकी भी हवा खिसक रही थी, पर उसे यक़ीन था कि उन्होंने वार किया तो लीला पीछे नहीं हटेगी, भले मूँड़ फट जाय!
तब गोपी और बल्ले पिटे हुए पिल्ले से आगे-आगे और लीला और अजान सीना ताने उनकी पिछाड़ी दाबे ट्रेन से धड़धड़ाते चले आए, क्योंकि जोड़-कुश्ती और कबड्डी में वे अजान से हमेशा पिटे ही तो थे!

(क्रमशः)