लीला - (भाग-5) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग-5)

घर देर से लौटने पर उसे डोकरी सोई पड़ी मिली। फिर उसकी खटर-पटर से नींद उचट भी गई तब भी वह मरी-सी पड़ी रही। ज्यों-ज्यों दम निकलता जा रहा था, उसकी चेतावनियाँ मिटती जा रही थीं। बूढ़ी ने ज़माना देखा था...और यह बात उसके अनुभव में थी कि थाली रखी हो तो एक बार भूख ना भी लगे, पर न हो तो वही भूख डायन बन जाती है...। गाँव के चप्पे-चप्पे में अब तो ख़ासा मशहूर हो गए थे वे। घरों में, पथनवारों पर; गढ़ी पर जहाँ कि औरतें फ़राग़त को जातीं, उनके किस्से चलते। रोज़ एक नया शगूफ़ा गढ़ा जाता। सिर्फ औरतों में ही नहीं, चैपाल, चबूतरों और खेत-खलिहान के मरदों के बीच भी विषय के तौर पर वे ही होते। अजान लोटा लेकर निकलता, लोग छेड़ते, ‘आजकल तो हनीमोन पे हौ!’
‘...बताएँ तो जाउ कल कितनी चोटें उड़ीं?’
मज़ा पड़ता सब को। लौंडे-लपाड़े ही नहीं बड़े-बूढ़े तक बतरस में मज़ा लेते। अजान को ज़्यादा फर्क न पड़ता। वह हँस-मुस्करा कर टाल देता। पर लीला की देह में सुइयाँ-सी चुभतीं। लुगाइयों को पास न फटकने देती वह। ख़ुद तो टूले में उठना-बैठना कब का बंद कर दिया था...। जानती थी, पीठ पीछे पूरा गाँव गुण्डी कहता है उसे! चमार और राँड़ और ऊपर से लैला! सो वह कान दबाए-दबाए अपना समय काट रही थी।
और उसके मुक़ाबले अजान सिंह की स्थिति बेहतर। अपने पिता का वह इकलौता पुत्र मगर पिता तीन भाई थे। खेती-बाड़ी, घर-द्वार सभी कुछ साझा था। छुटपन में ब्याह हो गया था पर अब तक संतान न हुई थी। और बी.ए. तक पढ़ लेने के बाद भी नौकरी न मिली थी, सो वह हर तरह की ज़िम्मेदारी से बरी था।
चूँकि तमाम मना-मिन्त्राी, गण्डे-ताबीज़ों और आनकुन-धानकुनों के इंतज़ामों के बावजूद चुखरिया भी न जन्मी थी, इसलिए सभी ने उसकी मेहरिया को बाँझ मान लिया था। वह इस सम्मिलित गृहस्थी की गाड़ी की ऐसी बधिया बन गई थी जो दो टेम के सानी-पानी के सिवा और कोई हक़ न रखती! अब न उसके लिये चाँदनी रातें थीं, न फगुनौटी दिन। उसने तो गृहस्थी रूपी भीगे नमक का बोरा अपनी चाँद पर रख लिया था और बदस्तूर ढोए चली जा रही थी।
वह लीला से अजान सिंह के सम्बन्धों के बारे में सुनती और मन ही मन कुढ़ती। कुढ़ती और सूखती जाती। तनिक भी मूँड़ उठाती तो घर की सास-नंदें ही उसका गला दबा देतीं, ‘ऐऽ तुमई हिजरिया न होतीं तो आज वे अंत ठोर काए चिताउते!’
‘हओ,’ दौरानी-जिठानी भी बहती गंगा में हाथ धो लेतीं, ‘प्यास न जाने धुबिया घाट!’
पर उसका दाऊ खेम सिंह, बड़ा गुणी आदमी था। वह पुराने समय के लोकगीतों का बड़ा भारी गवैया था। उसका ब्याह न हुआ था और उसे इतनी कमाई सूझती कि बारहों पूनों हार में पड़ा रहता। हमेशा नंगे पाँव और बण्डी-पंछे में रहता। मेहमानी में भी जाता तो कुरता कंधे पर डाल लेता, पनहीं हाथ में लटकाए रखता...। वह कभी-कभार अजान सिंह को अकेले में बिठाकर अच्छी-अच्छी चेतावनियाँ सुनाता। उनमें से एक चौबोला तो अजान को कंठस्थ भी हो गया -
‘जैसो रंग कसूमल चादर तेसोई रंग पराई तिया को,
हालई तो हँसिके बोले और हालई कर देइ तूम तड़ाको!
धोबी की नाँद को साखो कहा जामें मैल कटे सिग ही कपड़ा को,
ओसन प्यास बुझे नहीं मोहन पानी भलो घरई के घड़ा को!’
पर उसका क़िस्सा तो वही था कि ‘सूरदास कारी कामरि पे चढ़े न दूजो रंग!’ उसे दिन-रात लीला के सिवा कुछ न सूझता। कहते हैं, काम में जब दाम शामिल हो जाता है तो उसकी शक्ति हज़ार गुना बढ़ जाती है! पेंशन तो थी ही, अब शहर में मकान भी मिलने जा रहा था। अजान के सिवा लीला के आगे-पीछे और कौन था!
होली के बाद से बूढ़ी की हालत ज़्यादा बिगड़ने लगी। उसे लग रहा था कि सावन नहीं पकड़ पाऊँगी। इस जेठमास में ही मट्टी समिट जागी। अव्वल तो उसकी जिजीविषा मिट गई थी। छह संतानों में अकेला लाल सिंह जिया था और वो भी चला गया। आज कोई नाती-पोता भी होता तो वह मुँह लगी रहती। आँधरी होकर भी उसके भविष्य के सपने बुनती। पर उसके लिये तो भीतर न बाहर सब ओर गहरा अँधेरा था! ललक का कोई सवाल ही नहीं। उस पर तो जीवन पहाड़ की तरह लदा था। सो, चौबीसों घंटे उसके प्राण तो सिरफ मरघटा रटते रहते। वह तो हर साँस के साथ एक ही रटन लगाए रखती, ‘हेऽ राम! मोइ ले लेउ! राऽमजी-ईईई...हमें ले लेउ अबतो!’
दुख लीला से भी उसका देखा नहीं जाता। पर उसके हाथ में क्या था? ना तो कोई दवा-दारू उसकी आँखों की ज्योति लौटा सकती, ना कोई जतन-चमत्कार उसका बेटा उसे लौटा पाता! नाती-पोते का पौधा वह रोप तो लेती, पर उस अभागे फूल को खिलने कौन देता? इसी डर से तो अधिकतर अजान से किनारा किए रखती! वे होते (लाल सिंह) तो आज उसकी गोद यों सूनी न पड़ी होती...। अपने अभागे मातृत्व पर वह दिल ही दिल में ख़ूनी आँसू गिराती और मन-प्राण से निरंतर खोखली पड़ती जाती। डोकरी बहुत घाबड़ी हो जाती तो वह गाँव के डाक्टर को पकड़ लाती...जिसकी दवाइयाँ शुरू में दो-चार दिन असर दिखलातीं, फिर नाकाम हो रहतीं। बूढ़ी का बुख़ार ही टूटने में नहीं आता! खाँसी हरदम दम लिये रहती। दुखी लीला बार-बार गाँव के झोला छाप डाक्टर पर दौड़ती जो अपने हाथों सेंत लिये गए तमाम बूढ़ों-बुढ़ियों के अनुभव के आधार पर कहता, ‘‘उन्हें तो बुढ़ापे की बीमारी है, बाई! दवा क्या करे? अब तो अंत समझो...।’’
और वह आँख भर लेती, ‘‘रामनाम तो सिब को ही सत्त होने है, डांक्टर साब! हमसें तो उनको कस्ट नईं देखो जात...।’’
‘‘तो-लेउ, जि और दे-के देखि लेउ!’’ वह एक नई परची लिख देता और वह वाजपेयी मेडीकल कम किराना स्टोर पर जाकर उसे भी ले आती। पर अम्मां को आराम नईं मिलता।
एक दिन अजान सिंह ने आकर कहा, ‘‘जच्चाख़ाने में मिडवाइफ की जगह खाली है।’’
वह सास के खटोला से लगी ज़मीन पर बैठी पंखा झल रही थी। उसकी ओर मुँह फाड़कर बोली, ‘‘जे कौनसी पोस्ट है?’’
अजान डोकरी को ताकता हुआ बोला, ‘‘है तो गंदे काम वारी...सफ़ाई-अफाई, समझो, धानुकुन वग़ैरा को काम होगो!’’
तब उसने निश्वास छोड़कर आँखें मूँद लीं। जैसे, मन ही मन कोई संकल्प ले लिया और रोमांचित हो, आँखें ऊपर की ओर टाँगकर बोली, ‘‘नौकरी-चाकरी फिर देखी जागी, हमाई तो अम्मां अब जातिएँ, सिगघरई!’’

(क्रमशः)