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लीला - (भाग-8)

विचार करते-करते उसके माथे पर बल पड़ गए। होंठ बुदबुदाने लगे कि,
‘वह एक सहृदय प्राणी है, उसे इतना रिजिड नहीं होना चाहिए। लीला के निश्छल प्रेम का यह कैसा प्रतिदान...?’
उसे ख़ुद पर शरम महसूस होने लगी और मुछमुण्डे से अपनी तुलना कर वह थोड़ी हीन भावना का भी शिकार हुआ कि भले वह गाँव में रहता है, देहाती वेशभूषा में, पर इस रहन-सहन में भी तो स्मार्टनैस हो सकती है! यह क्या कि वह उजड्डों की तरह बीड़ी सुलगाता और पीता है, सरेआम! क्या वह इसी वेष में ठसक के साथ नहीं रह सकता, दूसरे-तीसरे दिन दाढ़ी बनाकर और इस्त्री किया कुर्ता-पैजामा, कुर्ता-धोती और पेंट-शर्ट पहन कर...?
अपनी इस सकारात्मक सोच के कारण धीरे-धीरे उसका डिप्रेशन काफ़ी कम हो गया। तब वह फिर चला आया झोंपड़ी की तरफ़। लीला ने बताया कि मनोज खोड़नवारी ने टेर लए हैं, ‘चले जाउ तुम-बी!’ तो वह हिचकिचा गया। इस बात के लिये अभी मानसिक रूप से तैयार न था। लीला के अलावा टूला के किसी और घर में घुसने में बेइज़्ज़ती लगती थी उसे। पर लीला ने कहा, इसलिए मजबूरी में पिछवाड़े की झोंपड़ी में चला आया जहाँ छप्पर में क़ायदे की बैठक बनी थी। पलंग बिछा था और दो मूढ़े रखे थे। बल्ब जल रहा था और बिजली का टेबिनफेन चल रहा था। मनोज पलंग पर अधलेटा चाय पी रहा था...। उसे देखते ही बैठते हुए स्वागत करने लगा, ‘‘आइये-आइये!’’
अजान मूढ़े पर बैठ गया, उसका निरीक्षण जारी रहाः
पलंग के सिरहाने की दीवार पर बुद्ध और अम्बेडकर की तस्वीरें टँगी थीं!
वह दोनों के आभा मण्डलों से प्रभावित हुए बिना न रह सका। तब तक उसके लिये भी चाय का कप आ गया तो उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया और मनोज से बोला, ‘‘दिशा-मैदान के लिये चलोगे?’’
‘‘आप चाय ले लीजिये, फिर देखते हैं!’’ उसने पूर्वरत् सरलता से कहा।

मनोज उत्तर प्रदेश जनसंपर्क विभाग से सम्बद्ध था। पढ़ा-लिखा, जागरूक और नौकरीपेशा होने के कारण वह भारतीय दलित मुक्ति आंदोलन में सहभागी था और इस विषय पर उसके विभाग में भी पर्याप्त प्रकाशित सामग्री थी। वे जब टहलते हुए नहर की पटरी पर पहुँचे तो गरमियों की उस सुहावनी साँझ में उनके बीच दलित समस्या को लेकर बात चल पड़ी। अजान काफ़ी उत्सुक था। उसे मनोज से अब कोई बैर-विरोध न था। मनोज ने कहा, ‘‘अन्य वर्णों की तुलना में दलितों की अपनी कुछ विशिष्ट समस्याएँ हैं। वे चाहे हिंदू हों, बौद्ध हों अथवा सिख, ईसाई या इस्लाम में धर्मान्तरित हो जाएँ...हर जगह उनके साथ भेदभाव बरता जाएगा!’’
अजान ने कहा, ‘‘हाँ-और क्या! सभी अवतार, तीर्थंकर और ऋषि-मुनि ब्राह्मण-क्षत्रियों में ही तो हुए हैं!’’
मनोज ने कहा, ‘‘बात ठीक है, आपकी...। किंतु पिछले एक दशक में देश की सामाजिक एवं राजनैतिक संरचना में नए समीकरणों का उदय हुआ है। इसलिए कल की तुलना में आज सामाजिक समानता का प्रश्न अधिक ज्वलंत है! आर्थिक विकास तेज करने और राजनैतिक अधिकार प्रदान कर देने से दलितों की समस्याएँ हल नहीं की जा सकतीं।’’
‘‘लेकिन,’’ अजान ने हस्तक्षेप किया, ‘‘दलित समस्या तो हिंदू धर्म की उपज है! इसलिए हिंदू धर्म का परित्याग ही दलित मुक्ति का एकमात्र विकल्प है...।’’
मनोज मुस्कराने लगा, क्योंकि अजान कुछ ज़्यादा ही सदाशयता का परिचय दे रहा था। उसने टोका, ‘‘आप तो यदुवंशी हैं!’’
‘‘हाँ!’’ वह चौंक गया, क्योंकि अहीरों को यादव पिछड़ा मानते हैं और अहीर अब यादव लिख उठे हैं, इसलिए यादवों ने ख़ुद को जादौन घोषित कर दिया है...। लेकिन इस श्रेणीबद्ध विभाजन से अनभिज्ञ मनोज ने उस पर चोट की, ‘‘श्रीमद्भागवत और गीता के महानायक के वंशज!’’
‘‘हाँ-आँ!’’ उसका मुँह छोटा हो गया, बेवज़ह। कुछ देर की चुप्पी के बाद मनोज आगे बोला, ‘‘दरअसल, छापाख़ाने के आविष्कार को भी ईश्वरवादियों ने भुना लिया और फ़िल्म-टेलीविजन को भी! हिंदू दर्शन मूल रूप से ईश्वर, प्रकृति और व्यक्ति के बीच निरपेक्ष व सापेक्ष सम्बंधों की व्याख्या है। ...जनसाधारण में इसकी अभिव्यक्ति ‘जाति-पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई’, के रूप में होती है...जबकि, यथार्थ जन्मजात भेदभाव व अस्पृश्यता पर आधारित है।’’
‘‘हूँ!’’ अजान ने माना।
मनोज आगे बोला, ‘‘असल में, लोकतंत्र की बुनियाद इस बल पर खड़ी है कि साधारण लोगों में भी असाधारण क्षमता होती है। किंतु आज साधारण लोगों के वोट बटोरने के अलावा उनकी कोई परवाह नहीं की जाती...इस घपनघोर के कारण दलित में दलित की उपेक्षा तो है ही, दलित में सवर्ण बन रहा है और सवर्ण में दलित!’’
अजान गद्गद् हो गया। मनोज ने मन की बात कह दी, शायद! वह उसके ‘घपनघोर’ शब्द पर बहुत हँसा। जिसका अर्थ जोड़-तोड़, तोड़-फोड़ की राजनीति यानी घालमेल से था और यह क्षेत्रीय शब्द है, जिसने यह प्रमाणित किया कि मनोज उसके बीच का और अपना है!
सुबह मनोज जाने की तैयारी करने लगा। अजान उससे याराना महसूस करने लगा था, बोला, ‘‘आज और कल की तो बात है...परसों चले जाना।’’
मनोज थोड़ा गंभीर हो आया, बोला, ‘‘दरअसल, तेरहवीं मेरे लिये ज़रूरी नहीं है।
मैं तो चला आया, दुख बँटाने कि इसका आख़िरी सहारा भी छिन गया!’’
‘‘तौ ऽ आज और रहि काए नईं जातई...?’’ लीला आँगन से उनका वार्तालाप सुन रही थी। मनोज ने कहा, ‘‘जादा जबरई न करो, नुकरिहा हैं अपुन!’’ फिर कुछ देर उन रिश्ते के भाई-बहन में परस्पर ‘मिठबात’ होता रहा। अंततः नाश्ता करके मनोज चला गया। अजान सिंह उसे बिठाने पेंड़ा तक गया। रास्ते में उसने पूछा,
‘‘अम्बेडकर के मन में सवर्णों के प्रति इतनी कटुता क्यों थी?’’
मनोज मुस्कराया, बोला, ‘‘आज के राजनीतिज्ञों जितनी दुश्मनी अम्बेडकर ने नहीं निकाली सवर्णों से। दरअसल, वे राजनीतिज्ञ न होकर सामाजिक-दार्शनिक थे। वे व्यवस्था दे रहे थे कि धर्म को तर्क अथवा विज्ञान सम्मत होना चाहिये। हिंदुओं का केवल एक प्रामाणिक ग्रंथ हो जो सभी को मान्य और स्वीकार्य हो। ...वेद-शास्त्र और पुराण जिन्होंने द्विज जातियों और दलित जातियों में असमानता पैदा की; उन्हें कानून द्वारा खारिज किया जाना चाहिये। पुरोहिताई को वंशानुगत नहीं रखा जाए। प्रत्येक हिंदू के लिये पुरोहिताई के द्वार खोल दिए जाएँ। सहभोज और अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया जाए।’’
‘‘ये सब तो इस देश में प्रलयकाल तक असंभव है!’’ अजान ने घोषणा की।

(क्रमशः)


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