लीला - (भाग-1) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग-1)

जिन दिनों कुएँ भरे पड़़े थे और नहर-बम्बों में पानी का पार न था, सारा गाँव धान की खेती करता। वह भी अपने नौजवान पति लाल सिंह के संग मिलकर पानी और कीचड़ से भरे खेत में धोती का कछोटा मारकर रुपाई करती और फसल पक जाने पर कटाई। घर में पालतू जानवरों में एक जोड़ी बैल, एक भैंस और एक गाय थी। भैंस उसके बाप ने दी थी और गाय पहले से थी। लाल सिंह की अंधी और बूढ़ी माँ के अलावा वे दो जन ही थे। अभी कोई बाल-बच्चा न हुआ था।
उन्हीं दिनों फ़ौज में भरती खुली तो लाल सिंह गाँव के दूसरे नौजवानों के साथ भाग्य आजमाने चला गया। क़द-काठी ठीक थी और दौड़-कूद भी, सो देह के बल पर वह भरती होकर ही लौटा। इस बात पर लीला तो ख़ुशी से भर गई कि चलो खेती-किसानी से पिण्ड कटा! पर अंधी घबड़ा गई। वह भाँति-भाँति से केरूना करने लगी,
‘‘हे ऽ राम! अब मोइ को बारेगो! लला तो चले, हम कौन के हैके रहेंगे...? खेत डंगरियन को का होगो भय्या! ए-मेए पूत! तू जिन जा, बा काल के ठौर...हम तो मठा पीकें गुजर करि लेंगे...।’’
तब लाल सिंह ने डोकरी अच्छी तरह समझाई कि ‘अम्मां! जा खेती-किसनई में तो देह की खेह है। ददा ज्वानी में बूढ़े हे कें मरि गए, तुम आँधरी और खपरिआ है गईं, साल भर की गुजर नईं होत जा धान में...मेहन्त-मँजूरी करने पड़त है, सो अलग! जौलों देह में जोर है,चल जागो, फिर पूर्ती नईं परि है! कल लरिका-बच्चा भी होंगे, खर्चा बढ़ेगो कि नईं...?’ तो वह थोड़ी देर को तो करम से हाथ लगाए चुपचाप बैठी रह गई। मगर फिर अचानक भरी बंदूक-सी दनाक से चल पड़ी, ‘‘ओरु जा लुगय्या को का करेगो! ले जागो संगें?’’
‘‘वो झंई रहेऽगी!’’ उसने भी झड़प दी डोकरी, ‘‘तुमाई और भेंस डंगरिआ की देखभाल को करेगोऽ?’’
‘‘नईं पू...त! मेरी देखरेख की चिंता छोंड़ि,’’ डोकरी फिफियाई, ‘‘तू लैजा! जि गाँम बड़ो मोंड़ी चोदु-ए...।’’
लाल सिंह दुविधा में पड़ गया, ‘‘जि नईं है सकत अम्मां!’’ वह खिसियाकर खीज उठा, ‘‘अभी तो ट्रेनिंग पे जाइ रहे हैं! रंगरूट गिरत्ती नईं रख सकत...और-फिर, तें-का अकेली उभाइगी जा घर मेंऽ?’’
तब लीला बीच में कूद पड़ी, ‘‘ए-तुम काए को मरी जाति-ओ...! कोऊ मद्द को चोदो आबेऊ तो मेरे जराँ...सारे-ए फारि खाउँगी!’’
बूढ़ी चुप। लाल सिंह की आँखें चमक उठीं। फिर वह भाँति-भाँति से माँ को समझा-बुझाकर और बैल जोड़ी चाचा को देकर सेना में चला गया। उसके पीछे सास-बहू माय-बहनियाँ-सी हिलमिल कर रहने लगीं। खेत बटाई पर उठा दिया। रहे दुधारू, सो, गाय दस और भैंस पंद्रह रुपया महीना पर चैपिया को दे दीं। पर इतने से पशुओं का पेट न भरता। कुछ न कुछ चारा तो और चाहिए था जानवरों को...। पुआल में मुँह न डालते; सानी और हरे की आदत जो पड़ी थी! और गाँव में गेहूँ की काश्त कम होती थी, इसलिए भूसा न मिलता। बाहर से लाए कौन, महँगा भी पड़ता! सो, झक मारकर लीला को हार में निकलना पड़ता घसियारी करने। लाल सिंह ने चिट्ठी में लिखा कि ‘किसी के चरी हो या किसी ने बरसीम बोई हो तो ठेके पर ले-लो! गाय-भैंस का काम चलता रहेगा!’ तनख़ा वो भेजने ही लगा था...। पत्र की रोशनी में लीला ने चल-फिर के जुगाड़ कर लिया। गाँव की असिंचित भूमि में जहाँ सिर्फ ख़रीफ़ की फ़सल हो पाती, उसने दो कच्चे बीघा खड़ी चरी ख़रीद ली।
और वो पछाँए हार से रोज़़ पिछलारे के टेम चरी का भारी गट्ठर लाने लगी।
सुनियोजित मेहनत से उसकी देह निरंतर कसती चली जा रही थी। लाल सिंह को सेना में गए छह-सात महीने हो गए। सारा पैसा यहीं आता, सो कुछ रुपए भी जुड़ गए थे। ख़र्च कोई ख़ास नहीं! भैंस के घी से भी चार पीपे भर गए थे। उसने सास को पटाकर गाँव के बनिया के मार्फत अपने लिये ब्रजबाला बनवा लिये। फेरी वाले से दो फेंसी साड़ियाँ ख़रीद लीं। ब्रा, क्रीम, पावडर, तेल, नेलपालिश, लाली वग़ैरह भी हाट से ले ली। सो अब, दुपहर में अक्सर सिंगारपटार करके टोले की जनीमान्सों में बैठने लगी।
उसके रहन-सहन में आए इस स्वाभाविक बदलाव से टोले की रौनक बढ़ गई और एक ख़ुशबू-सी उड़ने लगी। टोले से ही लगा अहीर थोक था। उसके चबूतरों पर बातें होने लगीं। और...जिन लोगों ने उसे पहले देखा था; लम्बा कछोटा मारे रुपाई करते या ढीले-ढाले ब्लाउज में चाँद ऊपर पूलियाँ ढोते, उन्हें तो कोई जिज्ञासा न हुई। उसका पसीना चूता माथा, गर्दन और कीचड़ में लथपथ हाथ-पाँव ही याद थे उन्हें...। पर जिन्होंने पहले नहीं देखा था और अब देखते थे, चरी के खेत पर आते-जाते...उन्हें वो पसीने का भभका नहीं, इत्र का झौंका नज़र आती।
जाड़ा लगते-लगते तीन-चार नौजवानों के मन में विशेष हलचल होने लगी। लीला उन दिनों नहर किनारे के एक खेत से बरसीम लेने जाने लगी थी। वे उसे राह में आते-जाते ज़रूर मिल जाते।
कोई-कोई फ़िक़रा कसते ग़ुज़र जाते तो कोई गीत गुनगुनाते हुए!
उसका मन साफ़ था। उसे गुस्सा आता न प्यार? बस, ख़ुद पर थोड़ा घमण्ड ज़रूर छा जाता, जिससे उसकी छाती और चौड़ी हो आती।
अंधी सास अक्सर चेताती, ‘‘बेटा-ओ! सम्हरि कें रहिये पूतिरिया...जि गाँम मेओ जानोबूझो-ए!’’
और वह पूरी दृढ़ता से कहती, ‘‘अए-तू, बनो रहन दे! गुर को पुआ नाँय लीला के कोऊ गुपकि लेइ!’’
तब डोकरी तो झेंप जाती पर वह ख़ुद को नवाजी गई इस उपमा पर ख़ुद ही पुलकित हो उठती। चेहरा शीशे में देख-देख मुस्काती अभिमान से...आँखें कंचे-सी चमकतीं।
मनचलों ने सलाह की कि यों तो कभी हाथ न धरने देगी, फंटू! भीति में कील ठोको पहलें, द्वार पीछें होगो...!’
तय हुआ कि अजान सिंह जादां सुंदर, लंबा-तगड़ा औ पुटौआ-वीर है! वा ने नईं छोड़ी टूला की एकऊ लौंडिया! वो तो गानों से और फिलिमी डायलोकों से ही फुसला लेगा इसे! इसी तीर को छोंड़ो निशाने पे!’
सो...अब तो वो चारा लेने जाए या पानी भरने, अजान हर जगह विद्यमान मिले!
उसे अनुख लगे और अच्छा भी! सो, सिंगारपटार में कमी न आए। टोले की जनीमान्सें बूढ़ी से कहें कि ‘जि बहुअर चारौ लेन जात है-के करवा चैथ को चंद्रमा देखन...!’
और बूढ़ी आँखें मुलमुला कर रह जाय बेचारी...। अकेले-दुकेले जीभ दाब के कहे उससे, ‘‘बहू-बेटा! टूला की लुगय्याँ तो छोतिएँ चोदी कीं... तें,’’ वह कोहनी तक हाथ जोड़ के गिड़गिड़ाय, ‘‘काऊ के भरमाए में जिन आ-जइये बेटा! नईं तो अपंए पुरखन नो-की धुइ जागी...’’
‘‘हओऽ!’’ वह परिहास कर ताली देती, ‘‘मैं तो अब भजी जातिओं, सिगघरई!’’
बूढ़ी समझ नहीं पाती कि सच और झूठ क्या...? आज आँखें होतीं तो देख लेती! लुगय्याँ बताती हैं कि ‘रण्डी-विड़य्यनि से ठप्पा हैं जाके! दिन भर उल्टो पल्लू डारें, मूँड़ खोलें फिरत रहत है...। काजर, लाली, पोडर, बेंदी...रातऊ में चमकत हैं!’

(क्रमशः)