लीला - (भाग-2) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग-2)

पर मन साफ़ था लीला का और उसे अपने आदमी का भी ख़्याल था! सुहागिन है तभी तो सारा बनाव-शृंगार है! और सजधज के रहती है, इसका मतलब ये तो नहीं कि किसी को नौतती है! वो तो पूरी तल्लीनता से अपनी गृहस्थी में जुटी थी। सास की सेवा-टहल, खाना-पीना; जानवरों का सानीपट्टा, दुहाऊ, सफ़ाई, नहलाना-धुलाना सब नियमित...। अजान सिंह को सफलता नहीं मिल पा रही! सब नए-नए गाने और डायलोग मुत गए उसके।
‘‘बड़ी पक्की है बेट्टा-आ, वा ने अपंओ कामु हनि के बाँधि लओ-ए!’’
‘‘ही-ही-ही-ही, ही! ही-ही...’’ मज़ाक उड़ता उसका अहीर थोक के लौंडों के बीच।
और तभी एक दिन अचानक, जैसे, बिल्ली के भाग से छींका टूटा, उसकी गाय रस्सा तुड़ा गई! दूध छुड़ा गई थी पहले ही। बछिया की चाह नहीं रह गई थी उसे! डोकरी पहले भी चेताती रहती थी कि ‘राँड़ लुगाई और लतिआई गाय का मुँह जिधर उठ जाय!’ सो, वह प्राण छोड़ दौड़ पड़ी उसके पीछे। और अब गाय, गाँव पार कर नहर की पटरी पर पुड़क रही थी!
लीला हाँफ गई। पसीना छूट रहा था उसका।
करम का खाया अजान सिंह भी तो वहीं मिल गया! इस बार उसने ग़ौर से देखा सूने में, पाँच-छह फुटी तगड़ी बछेड़ी-सी लीला को, गोरे रंग पर तीखे नाक-नक्श, नीली साड़ी पर सफेद ब्लाउज और ब्लाउज में चमकती आँखें! जिस ज़माने में गाँव की औरतें ब्रा पहनती न थीं, लीला की बाडी अलग चमकती।
उसने कहा, ‘‘तू ठैर...मैं घेर लाता हूँ!’’
पाँव टूट गए थे...पटरी पर बैठ गई। नहर में नीला पानी बह रहा था। किसान अधपकी धान के खेतों में गेहूँ फेंक रहे थे। सूरज की मद्धिम रोशनी में गाँव के सफेद घर क्षितिज के छोर पर बनी पेंटिंग से चमक रहे थे! लीला देखती रही...गाय को घेरता रहा वह। कभी खन्ती, कभी पटरी, कभी खेतों में घुड़दौड़ और क़दमताल के टुकड़ा-टुकड़ा दृश्य...।
‘ज्वानी चढ़ी है-जाय!’ उसने सोचा, ‘सहारे की नई भई, नईं तो नबि जाती!’ और तत्क्षण यही बात अपने बारे में भी सोच, तनिक शरम्या-सी गई वह!
गाय के सींगों से बँधी रस्सी अब अजान सिंह के हाथ में आ गई थी। वह उसके पीछे-पीछे डुरी चली आ रही थी। कितनी दौड़ी, फड़फड़ाई लेकिन पकड़ ली गई आख़िर!
वह चेती कि मेरे गले में भी तो रस्सी पड़ी है! और झट्ट से उठ खड़ी हुई...मगर अजान ने पास आकर रस्सा सौंपते हुए हाथ दबा दिया, ‘‘ले! अब सँभाल के रखियो।’’
झटका-सा लग गया, हौले से!
कुछ बोल नहीं सका वो-भी!
फिर वो चली गई, पर मन इधर छूट गया! गाय नकसेल हो चुकी थी, सो उसने भी मुड़ के देखा नहीं...। मगर अजान उसे धुंधली होने के बाद भी देखता रहा।
अगले दिन वह बरसीम के खेत पर बैठा मिला!
लीला उस रोज़ खूब मल-मल के नहाई थी। न सिर्फ बाल धोए थे; हाथ-पाँव भी खुरचे थे! और इसी में पिछलारा निकाल दिया! सूरज डुबाऊँ हो आया तब चली काँख में हँसिया दबा के! बूढ़ी ने टोकी भी कि ‘अब तूँ चूतड़ों पे दीया धर के ना जा! सैकड़ों खसम लगे हैं...’ पर वह मुँह ऐंठ कर चली आई। अंग-अंग मुलायम और खिला-खिला लग रहा था-अभी! सोच रही थी कि आज मिल जाय अजान सिंह तो देख ले! कल तो बेलच्छन-सी, कुचकटी धोती में चुटिया तक गुहे बिना दौड़ पड़ी थी गैया के पीछे!
लेकिन जो मिल गया तो धुकधुकी बँध गई! मुस्क्या के हाथ पकड़ लिया तो गोरा चेहरा लालभभूका हो आया,
‘‘छोड़...छोड़-ना!’’ वह बमुश्किल फुसफुसाई, आँखें लहक रही थीं।
‘‘छोड़ूँ-क्यों!’’ वह और सट गया, ‘‘तू चाहती नहीं-क्या? सपना क्यों देती है, जादूगरिनी है!’’
भाप पड़ने लगी चेहरे पर। आँखें फाड़-फाड़ देखा इधर-उधर, चारोंओर शाखा की दीवारें, सिर पर आसमान की छत। हरी दीवारें और नीली छत! ना मानुष-जिनाउर की गंध, ना चिरई-चांगुई की चिहुँक...जैसे डूबते सूरज के संग सब जीव गाँव की गोद में दुबकने चले गए! सम्मुख सतहत्था ज्वान! ज़मीन धँसकने लगी। हार में चचेरी बहन के संग ऐसे ही हो गया था...
‘‘मैं कोई सपना-फपना नहीं देती...तू छोड़!’’ यकायक कड़क हो गई, ‘‘मेरा आदमी लाम पे गया है! तू है कौन?’’
तब सारे अर्थ बदल गए। अजान मुरझा गया और वह बरसीम लेने लगी...। बड़े ततारोष में लौटी घर। सास ने पूछा, ‘‘कोऊ ऐसी-बैसी बात भई का?’’ ऊपर से गुमसुम बनी रही...भीतर-भीतर घुड़कती हुई, ‘ऐसी-बैसी बात की ऐसी की तैसी! कोऊ मद्द को चोदो ढिंग आ-भी तो ले?’
तब से दिन फिर गए। अब कोई पीछा न करता। गर्दनें तोड़-तोड़ अहीर थोक के लौंडे देखते ज़रूर, फबतियाँ भी कसते, ‘सती-सावित्री है!’ पर अजान न दिखता...।

सरकार ने मिलेट्री में घुआँधार भरती का अभियान तो इसीलिए छेड़ रखा था कि दुश्मन देश से जंग छिड़ने वाली थी! भरती के बाद ट्रेनिंग के दौरान ही लाल सिंह जान गया था कि वो रिक्रूट नहीं सिपाही है और ट्रेनिंग के बाद सीधा बार्डर पर चला जाएगा। पर ये बात उसने कभी ख़त में नहीं लिखी। वो लीला का सपना नहीं बिगाड़ना चाहता था। वो उसके साथ छावनी के फ़ौजी क्वार्टर में रहने का सपना देखती थी। अम्मां को तो चाचा के पास छोड़ने में कोई हरज न था। वैसे भी लगभग साझा परिवार था। चूल्हे अलग-अलग रख लिये और सिरफ करने को खेत उठा लिये थे! कोई नामज़द बँटवारा न हुआ था-अभी।
पर इतनी निष्ठुरता नहीं हुई, जितनी उसने सोच रखी थी। बार्डर पर भेजने से पहले अफ़सर ने उसे छुट्टी पर गाँव भेज दिया। फगुनौटी के दिन...। उन दिनों में भी अगर वो नहीं आता तो पता नहीं लीला का मन कैसा-कैसा होता! कि उसके आते ही नंगधड़ंग पेड़ों ने नए-नकोर पत्ते पहन लिये! हवा में ताज़गी घुल गई। नहर का पानी घंटों नहाने लायक हो गया। कनेर फूलों से लद गए। और रातें ऐसी होने लगीं, जैसी पहले कभी हुई न थीं। आसमान में रोज़ तारों की बरात नचती...घर-आँगन में सातों रंग एक संग बरसते; जिनमें नहाते-नहाते अघाते नहीं दोनों!
पर मिलन जितना गाढ़ा हुआ, विरह भी उससे कम दुखदायी न हुआ। अचानक तार आया कि ‘फ़ौजी चलो लाम पे...तुझको तेरा देश पुकारे।’
देस पुकारे कि मौत! आशंका में लीला की आँखें आँसुओं से भरकर सूज गईं। डोकरी ने बड़े पाँव पीटे कि ‘पूत, अब न जा! मैं मर जाऊँगी लाल...जा पराई जाई को का होगो!’ पर ऐसे भोले और स्वार्थी प्रश्नों को कोई ठौर न था। ग़मगीन लाल सिंह चला गया ड्रेस लगाकर और सिर पर काला ट्रंक उठाकर...। गाँव हँस रहा था कि ‘मज़े में था। आँधी आए, मेह आए, सूखा पड़े या तीता उसकी बला से! कौन धान सूखना था...अब ख़बर पड़ेगी बेटा को!’
सो स्यात्, गाँव की ही हाय लग गई जो एकदिन लाल सिंह लड़ते-लड़ते ही जूझ गया...। उसके कपड़े आ गए गाँव में और पेंशन! डोकरी फिफिया-फिफिया कर बावली हो गई और लीला बुझ गई। उसे दिन में भी रात नज़र आने लगी। जीते जागते प्राणी मरे समान लग उठे। जगत दुख-स्वप्न-सा प्रतीत होने लगा।

(क्रमशः)