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लीला - (भाग-10)

अंत में अजान सिंह ने उसके हाथ ऐसे चूम लिये, जैसे, सतफेरी नारि...! अब क्या संकोच रह गया...? पर पसरट्टा पसरा था, जिसे समेटना था उन्हें...।
ज़्यादातर मेहमान चले गए पर मौसिया सास, माईं और एक दूर के रिश्ते के कक्का और सगा भाई रुक गए थे।
आधी रात तक वे लोग समेटा-समाटी में लगे रहे। चाचा का परिवार भी लगा था। कारज का काम! पसर तो हाल जाता है, समिटता नहीं है जल्दी!
बड़े-बड़े बर्तन-भाँड़े उन्होंने इकट्ठे करके एक ठौर पर जमा कर दिए थे। उनकी माँजा-धोई चल रही थी। बची हुई तरकारियाँ टूला में बँटवा दी थीं। गर्मी की ऋतु...बेकार में बुस जातीं...। लड्डू एक टीन और परात में भरकर रख दिए। तब चाचा ने कहा, ‘‘अब सोऊ, बासन सबेरे पोंहचाइ देंगे!’’
‘‘हओ,’’ अजान ने हामी भरकर प्रकाश को इशारा किया, ‘‘आओ, एक तरफ़ लगाइ दें!’’
चाचा चला गया लेकिन वे दोनों ज्वान ड्रम, कढ़ाए, बाल्टियाँ इत्यादि बर्तन छप्पर के एक कोने में लगाते रहे। लीला अपनी भतीजियों के साथ चकले-बेलने, थरियाँ-लुटियाँ इत्यादि धोती-माँजती रही...। आधी रात के लगभग जब चाँद डूबने लगा, हण्डी कम तेल की वज़ह से झपझपाने लगी तो, लीला ने भतीजियों से पुचकार कर कहा, ‘‘लली हो, अब जाइ सोओ तुम-लोग!’’ आगे बढ़कर वह भाई से भी बोली, ‘‘प्रकास लला, तुम-बी कढ़ि जाउ द्वारें हवा में...चोंतरा पे खटिया बिछाइ लियो, भली!’’
इस वक़्त वह पूरी तरह तनाव मुक्त थी, पर देह में हड़फूटन मची थी। डोकरियाँ आँगन में लुढ़क गई-तीं, काका गली में गपियात-गपियात एक ओंघ ले चुके-ते। अब अजान और उसके सोने की बारी थी।
भाई जब खटिया बाहर निकाल ले गया तो उसने अजान के कंधे से हिलग कर बैठी आवाज़ में कहा, ‘‘अब तुम्हऊ जाउ!’’
थकान उसे भी भरपूर थी। पैर बेतरह टूट रहे थे। आँखें झुकी पड़ रही थीं। पर दिल आज कुछ विचित्र ढंग से धड़क रहा था।
लीला भाँप गई, हड़काती-सी बोली, ‘‘जाओ ना!’’
अजान जिद नहीं कर पाया। मरे मन से चल दिया, पर उम्मीद नहीं मरी थी।
लीला पीछे-पीछे आई पोल तक साँकल चढ़ाने। गली सोई पड़ी थी, पोल सूनी। अजान ठिठक गया और वो भी उसे फ़ौजी हुकुम सुना चुकने के बाद जैसे, पश्चाताप में डूबी हुई। मगर तमाम देर असमंजस में डाले रखकर अंततः किवाड़ी देकर साँकल चढ़ा दी तो अजान का दम-सा निकल गया। ...फिर उसका दिमाग़ ख़राब हो गया।
वो तो सोच रहा था कि अब तो वह भी रिलेक्स होना चाहेगी! एक बोझ-सा उतर गया था। और इतनी बड़ी कामयाबी का सेहरा उन्हें एक-दूसरे के सिर जो बाँधना था! लेकिन उसने घास नहीं डाली तो अब उसे लग रहा था कि उसका होना ही व्यर्थ है! वह अथाईं पर आकर बैठ गया और बेहद मायूस-सा बंद किवाड़ी को ताक उठा। दूरी के बावजूद लीला से उसका संवाद जारी था...जिसमें वो कह रहा था कि जबसे तुमसे प्रीति लगी, ब्यालू की तो कौन कहे, घर में कलेऊ तक नईं करो हमने! जोलों स्वाद नईं चखत, आदमी सबर कर लेत है...ब्याह के बाद तो रोटी-पानी की नाईं जरूरी हे जातु-ए सोइवो! अब तुमेंऊ तो भूख लगति होइगी...कित्ते साल हे गए लाल सिंह-ए गएँ! ...हमाए होत काए तुजि रईं हो!’
तभी क्या देखता है कि, किवाड़ी एक बार फिर खुल गई है! और लीला हाथ में पानी का लोटा लिये गली में चली आ रही है...। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा।
वह पास आकर साधिकार बेहद क्षीण स्वर में बोली, ‘‘प्यास लगेगी राति में, जेठमास-एँ, टेंटुआ चुपकि रहो होगो! जि लोटा धरि लेउ सिराह्ने...घरें काए नईं गए?’’
उसने कोई जवाब नहीं दिया। कम्पित हृदय से देखता रहा, बस। जैसे, मौन में कहता रहा हो कि घर में ही तो हूँ...। फिर लीला नज़रें फेरकर जाने लगी तो उसने सहसा ऐसी बात कह दी जिससे लाटरी लग गई! उसने कहा था, ‘‘ऐइ! तुमने रेख छानि कें धर दई परात में कि नईं?’’
‘‘ओऽ सिगघरई, नाईं...’’ लीला करम ठोक चौंक गई, ‘‘हमें तो सुत्तिई नईं रही!
डुकरियन ने बी बताई नईं... हमें तो जे ठठकरम आत-ना!’’ वह झींकी।
‘‘अरे ठठकरम नईं हैं-जे! प्रानी की अगली जोनी के चिह्न बन जात हैं रेख में...। आजई को मेहत्त है-बस्स। तेरईं वारे दिना ही रेख छानि कें धरी जाति-ए परात में। ऊँचे पे धरियो ढाँक कें। चिटी-चेंटा न घुस जाँइं थरिया में।’’ उसने सावधान की।
लीला फटे-फटे नेत्रों से सुन रही थी। उसकी बात ख़त्म हुई तो बोली, ‘‘तो-फिर चलो धरो!’’ वह मुड़ ली, पीठ बोली, ‘‘तुमई करो जे तौनार!’’
अजान को जैसे राम मिल गए। उसका हृदय जुड़ गया। सहसा ही उसके क़दमों में इतनी गति आ गई कि अथाईं से उतर कर वह लीला से पहले पोल में पहुँच गया। और वह जैसे ही घुसी, अजान ने उसे चपेट कर अधीरता में चूम लिया।
तब वह जैसे, उत्तेजित हो फुसफुसाई, ‘‘हम तो पहलेंई जान्ते तुमाई जि चन्टाई! अब चलो, पहले वु काम तो निबटाइ लेउ!’’
और वे छलाँग-सी लगाकर आँगन में आ गए। मोरी के बग़ल में ताज़ा राख का ढेर लगा था जिसे लीला शाम को ही भटिया से भरकर लाई थीे बासन माँजने। अजान जल्दी में था, बोला, ‘‘आटा वारी चलनी और एक थरिया ले आऊ झट्ट!’’
लीला उसकी बग़ल से फुर्र से उड़ी चिड़िया की तरह, जैसे कील खुल गई...और चोंच में दाने की तरह हाथ में वे चीज़ें उठा लाई। अजान सिंह ने उकडूँ बैठकर दो पसे राख छलनी में डालकर थाली में छान ली, ‘‘चलो, जाइ मढ़ा में धरि दें!’’ उसने उठते हुए कहा।
मढ़ा ही तो बेडरूम...वह पीछे लग ली, आँखें हँस रही थीं।
तभी आँगन में पड़ी कोई डोकरी बड़बड़ाई, ‘‘एऽ...भुरारो भओ जातु-ए, अब तो पीठि टेकि लेउ नेक...काए अधरत्ता पे धत्ती धरें-ओ!’’
सुनकर अजान के पाँव देहरी पर ही गुठिला गए। लीला मुस्कराती हुई थाली लेकर अंदर चली गई...।

(क्रमशः)


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