लीला - (भाग-3) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग-3)

घटना का असर इतना घातक हुआ कि डोकरी का बोल चिरई माफ़िक हो गया! देर तक हाथ-पाँव न डुलाती तो नब्ज़ टटोलकर तसल्ली करना पड़ती। लीला के भी काजर, बिंदी, लाली, पाउडर छूट गए थे। घर में मरघट-सी शांति पड़ी रहती जिसे पड़िया-बछिया या गाय-भैंस रँभाकर यदा-कदा तोड़तीं। चौबीसों घंटे भाँय-भाँय मची रहती। तब...महीनों बाद चाचा-चाची, भाई-भौजाई ने बात उकसाई कि ‘कहीं बैठ जाय-वो! फलाँ जगह वो दूजिया है, फलाँ जगह वो है! अरे, घर में ही कोई देवर-जेठ कुंवारा या रंड़ुआ होता तो अंत ठोर काए चिताउते?’
‘पर या में कोई बुराई नईं है। हम लोगन में तो ऐसो होत आओ है! बड़ौआ जाति की नाईं नईं हैं के घरई में लहास सराइ लें!’
मगर लीला उनकी बातों में नहीं आई। उसका ध्यान इन बातों पे जमा ही नहीं। अव्वल तो उसे दूसरे की ज़रूरत न थी। फिर दूसरा कर लेने से पेंशन का घाटा भी उठाना पड़ता! सो, उसने ऐसा कोई रिस्क लेना उचित नहीं समझा जिसमें धन और मन दोनों की क्षति होती।
अब वो गाँव में तो सादा तरीके से रहती। पर ज़िला मुख्यालय जाती पेंशन-फण्ड के काम से तो ज़रा शऊर से जाती। रंगीन-मटमैली की जगह सफेद साड़ी-ब्लाउज पहनती और हाथ में लिये रहती एक काला पर्स जिसमें कि ज़रूरी काग़ज़पत्तर होते। सदा अकेली आती-जाती। कभी एक पिल्ले को भी आगे-पीछे न लगाती। जैसे, जान गई हो कि जिसके घर में आदमी नहीं होता, उधर मरद तो बरसाती नाले की तरह उफन कर बहते हैं!

ज़िला सैनिक कल्याण बोर्ड के दफ़्तर और बैंक-ट्रेझरी में आते-जाते उसकी ज़़बान सुधर गई थी। लीला अब हर किसी को आप और हर बात पर जी-साब, जी-हाँ! कहना सीख गई थी। साक्षर पहले से ही थी, अब मिल जाने पर अख़बार और छोटी-मोटी पुस्तिकाएँ भी पढ़ लेती। समय कट जाता और नालेज बढ़ जाता। कुल मिलाकर एक नई दुनिया के दरवाज़े खुल रहे थे उसकी तरफ़; अकेलापन, निरीहता और संकोच दूर भाग रहे थे।
तब ऐसी ही एक साँझ...जब उसे ज़िला मुख्यालय में देर हो गई, बस अड्डे पर आख़िरी बस नदारद मिली तो बरसाती हवा के ठण्डे झकोरों के बावजूद माथे पर घबराहट के मारे पसीने की बूँदें झिलमिला उठीं। असमंजस की स्थिति में वो इधर-उधर ताक रही थी। उन साइकिल सवारों को पहचानने की कोशिश कर रही थी जो सड़क पर से ग़ुज़र रहे थे...कि उन्हीं क्षणों में अजान सिंह साइकिल लिये उसकी ओर बढ़ा। क़रीब आकर उसे भी लगा, ‘अरे! ये तो अपनी लीला ही है!!’
‘‘ऐ...तू यहाँ कैसे?’’ उसे कोई गुप्त ख़ुशी हुई, जैसे!
लीला पल दो पल कुछ झिझकी फिर धीमे स्वर में बोली, ‘‘घर जा रहे थे, बस निकल गई!’’
‘‘तो क्या? आ-फिर चलें!’’ किसी रहस्य को छुपाने में उसका दिल धड़क उठा।
गाँव ज़्यादा दूर न था। मात्र तेरह-चौदह किलोमीटर! बस भी पेंड़ा पर उतार देती और तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता। सुविधा के लिये तमाम लोग साइकिल से शहर आते-जाते। कई लोग अपनी महिलाएँ भी साइकिल के कैरियर पर लाते-ले जाते। कोई आपत्ति न थी यों गाँव जाने में! पर अजान सिंह उसके घर का आदमी न था और उसे कोई जवाब न सूझा, दुविधा में पड़ गई कि शहर में भी कहाँ रहेगी? फिर सामने खड़े अजान को देखा। उसकी आँखों में विश्वास और व्यवहार बड़ा विनम्र लगा।
‘‘जी, चलो।’’ उसने हिम्मत बाँध ली।
अजान लपक कर साइकिल पर चढ़ा, लीला रफ़्ता-रफ़्ता दौड़ी और उछल कर कैरियर पर लद गई। शुरू में हैंडिल थोड़ा डगमगाया जो उसने सँभाल लिया। फिर राह पकड़ते हुए पुलकित स्वर में बात छेड़ी, ‘‘और सुना, कैसी कट रही है?’’ पर वह ख़ामोश बनी रही। तब थोड़ी देर में सड़क पर टायरों की साँय-साँय होने लगी। सूरज अपना शेष उजाला भी समेट ले गया।
अजान ने फिर टोका, ‘‘हमें बिछड़े हुए हो गए होंगे 8-10 महीने...?
‘‘जी!’’ लीला ने जैसे डरी हुई आवाज़ में कहा।
‘‘छह-सात महीने तो स्यात् लाल सिंह की शहादत को हो गए?’’
‘‘हाँ!’’ उसे जैसे, झटका लगा। फिर आगे मुँह से कोई बोल न फूटा। तो जाने कैसे लगा अजान को कि वो रोई है...सो वह साइकिल धीमी कर, पाँव आगे से निकाल उतर पड़ा और धड़कते हुए दिल से बोला, ‘‘मैं लाल सिंह तो नईं हो सकता पर तुझे कुछ न कुछ सहारा दे सकता हूँ।’’
लीला ने मुँह फेर लिया। उसका कलेजा काँप उठा था। वह साइकिल से उतर पड़ी। क्षणिक असमंजस के बाद अजान सिंह ने फिर लंगड़ी भरी और सधकर सीट पर बैठ गया। सवारी के अभाव में लीला के सिमटे क़दम यकायक फिर बढ़े, तेज हुए और वो फिर से उछलकर कर कैरियर पर बैठ गई।
लाल सिंह का लम्बा कद, भरवाँ शरीर, चौड़ी-मज़बूत छाती और रसीली आँखें जिनकी ताब झेली नहीं जाती थी; लीला के इर्द-गिर्द चल उठा। फिर...कब पेंड़ा आ गया, पक्की सड़क छूट गई और गाँव की पगडण्डी पर मटक उठी साइकिल, उसे भान न रहा। चेत तो तब हुआ जब अजान साइकिल से उतर पड़ा और बोला, ‘‘बैलेंस नहीं बन रहा!’’
‘‘हें-एँऽ!’’ लीला अकबका कर कैरियर से कूद पड़ी।
‘‘आगे आ जाओ-अब।’’ वह हेंडिल से बायाँ हाथ हटाता हुआ बोला। मगर उसने तालू से जीभ चिपका-छुड़ा ‘कुच्च’ कर ना में गर्दन हिला दी।
आसमान में कटे-फटे बादलों के बीच कहीं बिजली चमक जाती और कहीं चाँद! हवा बंद होने के कारण उमस बढ़ गई थी। गीले खेतों में अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ था। और अजान की गहरी चुप्पी से वातावरण बोझिल हो उठा था। दूर-दूर चल रही लीला को अब लग रहा था कि मैंने इसे बहुत मायूस कर दिया है! सो, नज़दीक आ सफ़ाई-सी देती हुई बोली, ‘‘जी...मैं आपसे वो...पाक मोहब्बत करना चाहती हूँ!’’
अजान ने एक पल ठहर कर सुना उसे और दूसरे ही पल खिसियाना-सा बोला, ‘‘जी, इस उमर में पाक नहीं प्योर मोहब्बत की जाती है...।’’
उसी क्षण बिजली कड़की और दूर कहीं मोर बोल उठे। लीला मन ही मन माफ़ी माँगने लगी और अजान भी मन ही मन ख़ुश होने लगा। उसे भविष्य की आशा बँध रही थी...।
अजान सिंह अब भोर होते ही टोले की अथाईं पर आ विराजता। कभी ट्रांजिस्टर सुनता और कभी अख़बार बाँचता। उस ठिये से लीला की झोंपड़ी घर-भीतर तक खुल्लमखुल्ला दिखती। ज़िंदगी में जो अध्याय एकाध साल पहले से खुलने के लिए फड़फड़ा रहा था, वही अब खुलने जा रहा था...जो अपने घर-आँगन से वह भी अथाईं पर बैठे-ठाले अजान सिंह को ज़्यादातर निरखती रहती। उसे अपनी वही नादान ग़ुज़ारिश ‘मैं तुमसे पाक मोहब्बत करना चाहती हूँ और उस पर अजान सिंह की झड़प, इस उमर में पाक नहीं प्योर मोहब्बत की जाती है’ रह-रहकर याद आती और वो मन ही मन हँस लेती।
फिर जैसे, धान का गाँव पुआल से पहचान लिया जाता है, वैसे ही सयानों ने यह क़िस्सा भी भाँप लिया! और लौंडों और लुगाइयों ने तो पीठ पीछे उसका नाम भी लीला गुण्डी धर लिया!

(क्रमशः)