लीला - (भाग-6) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग-6)

अजान को लगा कि यह इस बात का संकेत है कि ये खूँटा उखड़ा, सोई हम आज़ाद! फिर मस्ती से गलबहियाँ डाल सरकारी काटर में रहेंगे! पेंसिन और खेतीबारी है तो...का जरूरत नौकरी-चाकरी की?’ मगर उसने लीला की ओर देखा तो हैरत में पड़ गया, आँखें छलछला आई थीं, चेहरा कातर हो उठा था...।
-इस औरत को वह शायद ही कभी समझ सके!’ उठकर चला आया।
उसके चार-पाँच दिन बाद आधी रात के समय टूला की ओर से भारी रो-राट सुनाई पड़ी। सो फिर भोर तक उसकी आँख नहीं लगी। पौ फटे दिशा-मैदान के बहाने उधर से निकला... मिट्टी ज़मीन में रखी थी और लीला बद्हवास-सी क़रीब बैठी सिसक रही थी। सिसियाना-सा वह ताल पर चला गया।
उन दिनों लीला की हालत देखकर लगता था कि उसका बड़ा बेशकीमती सहारा छिन गया है, जबकि सच ये था कि वही लौटकर बूढ़ी की लाठी थी और सास के कारण इतना बंधन था कि वह दिन-रात बदनामी सहकर भी गाँव के दलदल में पड़ी थी। शहीद कालोनी के अच्छे-भले क्वार्टर में बेवज़ह ताला पड़ा था। यहाँ रहकर न वह नौकरी तलाश पा रही थी, न कोई हुनर सीख पा रही थी, जैसे, सिलाई, बुनाई या ब्यूटीशियन का कोर्स। इसी सपने के लिये तो उसने गाय-भैंस मेंट दी। गाय चचिया ससुर को दे दी, संग बछिया और पड़िया भी...और भैंस बटाई पर उठा दी। ब्याए पे रकम मिलेगी। यों...हर तरफ़ से फ्री हो गई। लेकिन बूढ़ी से बड़ा बंधन था। उसने कितना ज़ोर दिया कि ‘चलके कालोनी में रहो, अम्मां!’ पर वह नहीं हटी। एक ही रटन लगाए रही, ‘अपंए जियत पुरखनि की देहरी नईं छोड़ोंगी...।’
अजान फ़राग़त से लौटकर फिर अथाईं से होकर ही ग़ुज़र रहा था। उसने देखा, दो औरतें विलाप करती हुई लीला की झोंपड़ी की तरफ़ जा रही हैं...और लीला उनसे भी तेज स्वर में दहाड़ें मार उठी है। फिर केरूना करने लगीः
‘‘हाय...हम-तो...लुटि गए...जिजीऽ! हा-य! वे गए तो ह-म-ने जा छाती पे पथरा धर लए-तेऽ के महतरिया तो हें-गी...ईं! हाय, अब तो कोऊ...धीर को बँधय्या नइयाँ...!’’
अजान सिंह ठिठका रहा। लीला का रुदन-गीत नकली नहीं था। पर उसे अपनी सास से इतना मोह था, यह उसने आज जाना! और जाना कि जिसके भीतर प्रेम होता है, जिसका भी अंतर प्रेम से भरा होता है, वह सभी पर अपना प्रेम उँड़ेलता ही है। लीला को आदमी और सास से ही नहीं, गाय-भैंस से भी प्रेम था। उन्हें मेंट कर भी वह हफ़्तों उदास रही थी।
अजान लौटकर आया तब बाप चबूतरे की चारपाई पर पड़ा काँख रहा था। उसे देखते ही बोला, ‘‘आज तो सास गुजरि गई तिहारी...मट्टी नईं ले जाइ रहे?’’
वह हतप्रभ रह गया कि इसने इतने नाजुक मौव़े$ पर भी चटकोला घाल दिया, जबकि दो साल से ख़ुद भी खटिया गोड़ रहा है!’ फिर वह भीतर नहीं गया। कुएँ पर जाकर कुल्ला किया और सीधा लीला के द्वार पर चला आया, जहाँ घर-भय्यों ने ठठरी बाँध ली थी। औरतों ने कुहराम मचा रखा था। वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा चबूतरे के कोने पर बैठ गया।
सोच रहा था कि बहुत लानत-मलामत हो चुकी, अब इस गाँव में रहना नहीं है मुझे! जब घर में ही कोई इज़्ज़त नहीं बची तो गाँव में रहकर क्या लूँगा? और हमसे तो ये चमार लोग भले! इनमें कितना एका है! एक अंधी और बूढ़ी डोकरी क्या मरी, पूरा टूला मूँड़ के भर है! आसपास के पुरों-टोलों से भी जाति-बिरादरी दौड़ी चली आ रही है। और पिछवाड़े लगा अहीर थोक मानो विदेश है! ये लोग इंसान नहीं हैं-क्या? तुम किस बात में बड़े हो? ब्याह-शादी न करो, मरियत में तो बग़ल में आ खड़े हो? ढोर-डांगर नहीं, जीता-जागता इंसान मरा है-भई!’
बूढ़ी की मौत ने जैसे, अंतरंग तक बहिर्मुखी कर दिया उसे! और मौत का एहसास कराया लीला ने। जिसकी बदौलत आज वह एक जनसमुद्र की दो स्पष्ट खाँपों को देख पा रहा था। ...और देख पा रहा था कि गाँव के अन्य मोहल्ले थोक थे! जैसे, बामन थोक, अहीर थोक, कुँअर थोक, बनिया थोक आदि और चमरौटी थोक न था। चमरटूला था। बामन, बनिया और अहीर थोक में पक्के घर थे। कुँअर थोक में घर और हवेलियाँ थीं। किंतु चमरटूला में झुँपड़ियाँ थीं। चमरटूला का अलग कुआँ, अलग मरघट! बामन थोक में नुकरिहा और पुरेह्त, बनिया थोक में बोपारी और किसान, अहीर थोक में किसान और फ़ौजी और कुँअर थोक में ज़मींदार और ऐलकार और फ़ौजी थे, जबकि चमरटूला में अधिकांश छोटे किसान और मंजूर!
बी.ए. तक पढ़ाई की थी उसने। इस नाते हिंदी साहित्य और सामान्य हिंदी के अलावा इतिहास और राजनीतिशास्त्र भी पढ़ा था। और...उसे पता था कि राजपूत सामाजिक और ऐतिहासिक रूप से युद्ध और शासन सम्बन्धी कार्यों से सम्बद्ध रहे हैं। चाहे वे दिल्ली अथवा ग्वालियर के शासक हों या किसी छोटी जागीर, इलाके या ठिकाने के मालिक! कुछ नहीं तो गाँव के मुखिया ही सही...। शासन करना एक प्रकार से उनका वंशानुगत अधिकार था।
और...भारतीय संविधान के बारे में पढ़ते समय वह युग-पुरुष अम्बेडकर के बारे में जानकर ख़ासा रोमांचित हुआ था, जिनका लक्ष्य समाज को पूर्णतः नया सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक आयाम प्रदान करना था। संविधान सभा में अथवा बाहर उन्होंने स्वयं इस तथ्य को कभी छुपाया नहीं कि उनका प्राथमिक उद्देश्य दलित जातियों के हितों की रक्षा करना था। ...वे दलितों के हितों के प्रमुख रचनाकार थे। उनकी बदौलत नए संविधान में जात-पाँत, छुआ-छूत का निषेध कर दिया गया। शिक्षा, आत्म-विकास तथा व्यवसाय के चुनाव आदि विषयों में सभी नागरिकों को समानता प्रदान कर दी गई। सामाजिक विधानों के माध्यम से विभिन्न जातियों के बीच विवाह को मान्य कर दिया गया। दलितों को उनकी परंपरागत सामाजिकार्थिक निर्योग्यताओं को देखते हुए लोकसभा तथा विधानसभाओं में स्थान सुरक्षित किये गए। शासकीय सेवाओं में आरक्षण प्रदान किये जाने का प्रावधान किया गया। उनकी शिक्षा व विकास हेतु राज्यों को आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिये गए...। पर क्या, सुधार हुआ...? वह चमरौटी को देखता और सोचता कि, न तो जात-पाँत का भेद मिटा और न इनके दलित होने की पहचान मिटी। इसके विपरीत पारंपरिक सामंजस्य और घट गया। जातिवाद के इस नए विकास ने अपनी संस्थाएँ, स्कूल, राजनैतिक दल और नेता और खड़े कर लिये हैं!

(क्रमशः)