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लीला - (भाग 27)

राह भर बीती रात के ख़यालों में बेतरह उलझी रही वह। ना नींद आई ना आँखें खुलीं। घर आते ही नहा-धोकर बिस्तर पकड़ लिया और लगभग घोड़े बेचकर सो गई।
रात दस बजे के लगभग किसी ने ज़ोर से गेट खटकाया तो प्रकाश एकदम डर गया। हालाँकि लीला ने लौटते ही उसे आश्वस्त कर दिया था! पर उसका भय बड़ा पुराना था। मगर लीला को जगाने के बजाय उसने छत पर चढ़कर देखा, दरवाज़े पर उसी का हमउम्र एक लड़का खड़ा था।
‘‘कौ ऽ न?’’ उसने कड़े स्वर में पूछा।
‘‘खोलो, प्रकाश!’’ लड़के ने ऊपर की ओर मुँह फाड़कर जैसे, घबराहट में कहा, ‘‘हम हैं...रामवीर सिंहऽ!’’
‘‘अरे!’’ प्रकाश पहचान गया। उसी के गाँव का तो है! वह जीने से आँगन में आया, फिर बेडरूम में होकर बाहर के कमरे में और लपक कर गेट खोल दिया...। रामवीर झट से भीतर आ गया। वह बेहद डरा हुआ था, बोला, ‘‘किबार बंद कर लेउ!’’
‘‘का-ए?’’ प्रकाश आशंका में मुँह फाड़ने लगा।
‘‘पुलस लगी है पीछूँ!’’
वह घबरा गया, ‘‘कतल करि आए-का!’’
‘‘कतलु-ई लगि रहो-ए।’’
‘‘तो झाँ काए आए?’’ उसने नज़र कड़ी कर ली।
‘‘जिजी कहाँ हैं?’’
‘‘हैं नाईं, तुम जाउ।’’ उसने दरवाज़ा रोक लिया।
और वह हमउम्र था, इसलिए रामवीर गिड़गिड़ा भी नहीं सकता था! बड़ी मुश्किल में पड़ गया, ‘‘जिजी हैं कहाँ?’’
‘‘कहँू-नईंऽ!’’ वह बे-मुरुव्वत हो धकेलने लगा दोनों हाथों से, ‘‘तुम जाइ रहे कि नईंऽ!’’
हुज्जत से लीला की आँख खुल गई। कान लगाकर उसने आहट लेते हुए पूछा, ‘‘को-है, लला!?’’
प्रकाश बोला नहीं। जबड़े भींचे उसे धकेल रहा था।
रामवीर चिल्लाया, ‘‘जिऽजी! हम-ऐं रामवीर, तिहाए रतनूपुरा वारे रामवीरऽ! नेक बाहिर तो आऊऽ!’’
और वह हड़बड़ाकर बिस्तर से निकल बाहर आ गई। लेकिन उसने रामवीर को पहले कभी देखा नहीं था,
‘‘किसके लड़के हो?’’
‘‘लाखन के।’’
‘‘कौन-से लाखन?’’
‘‘उपरले थोक के!’’
‘‘ब्राह्मननि में?’’
‘‘नईं, ठाकुरनि में।’’
‘‘सो, किस्सा का हैऽ!’’ उसने प्रकाश से पूछा।
उसका चेहरा तमतमाया हुआ था, ‘‘जे कतल करि आए हैं...पुलस पीछें लगी
है...!’’
‘‘नईं, हमाई बात सुनो,’’ रामवीर रोने लगा, ‘‘कतल एक मुसलमान को हे गओ-है। पुलस पूरे गाँम-ए बाँधि रई है। कतल तो भंगियन ने करो है, बिनसेईं चल रई-ती मुसलमाननि की!’’
‘‘तुमाओ का वारंट कढ़ो है?’’ लीला ने रास्ता खोजा।
‘‘हमाए दादा लिखवाइ दए हैं। वे खटिया में डरे हैं, तासें पुलस हमें धरि रई है!’’
‘‘तो तुम आज रात यहीं ठहर जाउ, सबेरे कछू करेंगे!’’ उसने निर्णय ले लिया।
रामवीर बाहर के कमरे में फर्श पर चटाई बिछा कर सो गया। लीला ने सुबह उठकर उससे पूछा, ‘‘तुमें हमारो पतो कोन्ने दओ?’’
‘‘तुमाए दादा ने। हम उनके ई पास गए-ते। कलैक्टर साब तुमाई बिरादरी के हैं। और...आप तो पार्टी में बी कछू बड़े पद पे हो!’’ वह रोनी सूरत किए गिड़गिड़ा रहा था।
लीला ने कहा, ‘‘ठीक है, देखत हैं...।’’ फिर उसने खाना बनाया जिसमें प्रकाश ने पूरी मदद की। नहा-धोकर खाने बैठी तो रामवीर से पूछा, ‘‘तुम हमाए चैका को खाइ-लेउगे? ...नईं तो पैसा ले जाउ, होटल में खाइ-लीजो!’’
रामवीर अत्यंत दयनीय दिख रहा था। चमार-कोरियों से भी गया-बीता! उसने हाँ में गर्दन हिला दी। लीला ने दाल-चावल और रोटियों से सजी थाली उसे पकड़ा दी।
सब लोग भोजन कर चुके तो उसने प्रकाश से कहा, ‘‘लला, हम देहात थाना जाइ रहे हैं, तुम रामवीर-ए झँई राखियो। कोऊ खटकाइ तो किबार न खोलियो, समझे!’’
रतनूपुरा ज़िला मुख्यालय के देहात थाने में लगता था। लीला ने वहाँ जाकर पता किया तो पता चला कि ‘सभी सवर्ण हिंदुओं को ऊपर से पकड़े जाने का आदेश है। ये राजनीतिक मामला है...।’
दारोग़ा और एस.ओ.॰ने हाथ उठा दिये।
तब वह एस.पी. के यहाँ पहुँची और उसने जिरह की कि, कत्ल भंगियों ने किया है तो फिर सवर्ण हिंदुओं को थाने में क्यों ठूँसा जा रहा है...?’
‘‘ये तो रूलिंग पार्टी की पालिसी है, मैडम!’’ एस.पी. ने गंभीरता से कहा, ‘‘प्रशासन तो उसके इशारे पर काम करता है।’’
लीला हताश होकर लौट आई। फिर उसने रतनूपुरा जाने का निश्चय किया, ताकि रामवीर के बीमार बाप को कुछ ढाँढ़स बँधा सके। ...मगर जब वह उपरले थोक में लाखन सिंह के घर पहुँची तो मूँज की खाट पर बिछी कथरी पर पड़े कृशकाय बुड्ढेे को देखकर स्तंभित रह गई। लाखन सिंह वही मुँछाड़िया लठैत था जिसने बचपन में उसकी छाती नोंच ली थी! टेंटुआ दबोच लिया था और कहा था...
लीला को वो ‘बाज़’ सरीखा झपट्टा कल की तरह याद हो आया...।
उसकी छातियों और गले में जैसे, निशान उभर आए! और वे भयानक शब्द प्राणों को फिर एक बार बेध गए, ‘बिना मुंजरा झुकाएँ कढ़ी तो गाँड़ में भुस भर देंगो! जान गई?’
देह रोष में काँप उठी...।
लाखन सिंह आज चारपाई में टट्टी-पेशाब ज़रूर कर रहा है, पर अपने जमाने में इसने जाने कितने मासूमों का उत्पीड़न और अपमान किया होगा? और रामवीर...वो आज संकट में फँसा है तो क्या, उसके भीतर उन्हीं आतताइयों का ख़ून दौड़ रहा है जिन्होंने सदियों तक मनुष्य को जानवर की तरह इस्तेमाल किया...।
चेहरा तमतमा उठा था। ...लौटने को हुई तभी लाखन सिंह की बूढ़ी स्त्री आ गई। उसने हाथ पकड़ के पूछा, ‘‘बिटीना, को हो अपुन?’’
‘‘प्रकाश की जीजी-ए!’’ साथ आए बच्चों के रेले में से दो-तीन ने एक साथ कहा।
‘‘लीला-ए का!’’ लाखन सिंह का दयाद्र चेहरा बोला। मुँह खुला था उत्तर की प्रतीक्षा में। लीला का नाम उसने भी सुन रखा था। नाम फैलते गाँव-देहात में देर नहीं लगती। जबकि वह अपनी ही करतूत से अनभिज्ञ था! पता नहीं कितनी लड़कियों को उस तरह धमकाया होगा उसने? वो तो तब आम बात थी उसके तईं।
‘‘हओ, लीला ही जान पड़त हैं!’’ औरत ने अपनत्व से कहा।
‘‘बैठो, बिट्टी!’’ लाखन सिंह ने अपना ठूँठ-सा हाथ उठाया। उसके पिचके हुए गाल और धँसी हुई आँखें जैसे दया की भीख माँग रही थीं। ओठों के किनारों पर गाढ़ा-गाढ़ा थूक जम गया था...हमेशा ऊपर की ओर उठी रहने वाली शान की प्रतीक मूँछें उलझ कर नीचे को लटक गई थीं। लीला पीढ़े पर बैठ गई तो वह दीनता से रोने लगा, ‘‘अब तुमई लाज राखियो...गाँम के मेहतर की बिटिया भी अपनी होत है। रामवीर की जिंदगानी बिगड़ जैहै! हमें तो जमराज घेर रए...।’’
(क्रमश)


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