लीला - (भाग 29) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग 29)

दिमाग़ चकरी की भाँति घूम रहा था। ज़िंदगी में इतनी हलचल क्यों है? एक भी दिन शांति से नहीं ग़ुज़रता...। पहले की तरह फिर यकायक जा खड़ी हो तो वे भी क्या सोचेंगे उसके बारे में! कह भी चुके हैं, ‘राजनीति तो गंदी है, शौक के लिये थोड़ी-बहुत समाज सेवा अलग बात है!’
तब वह सोचने लगी कि यह केस राजनीति का है या समाज सेवा का? माना कि राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार आज सवर्ण समाज बना है, पर सदियों से तो दलित वर्ग ही सामाजिक अन्याय, शोषण, उत्पीड़न और उपेक्षा का शिकार रहा आया है!
इस ख़्याल ने उसे भीतर तक आहत् कर दिया। तब...इस बाबत् उसने सोचना ही छोड़ दिया। लेकिन थोड़ी देर बाद उसे वही बात फिर याद आने लगी कि ख़ून से ख़ून का धब्बा तो नहीं धोया जा सकता! मानवता बड़ी चीज़ है। बदले की कार्यवाही तो घोर सामाजिक अपराध है...। फिर वह चाहे राजनीतिक षड्यंत्र ही क्यों न हो, उसे रोकना होगा!’

शोजपुर वहाँ से 110 किलोमीटर दूर था। बस यात्रा में लगभग तीन घंटे खर्च हो जाते। वह घर पहुँच कर यात्रा की तैयारी करने लगी। प्रकाश और रामवीर को ठीक से समझा दिया कि हिलमिल के रहना। क्वाटर भीतर से बंद राखियो। डरपियो जिन। पुलस आए तो किबार मत खोलियो...भली!’

शोजपुर पड़ोसी ज़िला। पहली बार नहीं आई थी वह। पर इस तरह इमरजेंसी में और ख़ासकर कलेक्टर के दफ़्तर तो पहली बार ही आई थी। धूप ढलान पर थी। वक़्त चार-साढ़े चार का। यात्रा से क्लांत उसका चेहरा बेतरह कुम्हला गया था। प्रतीक्षा कक्ष में बैठी इसी उधेड़बुन में लगी थी कि आज भेंट नहीं हुई और रात में या सुबह जल्दी, वे टूर पर निकल गए तो फिर कहाँ ढूँढ़ती फिरेगी...?’ इसी अनिश्चितता को लेकर उसके प्राण सदा हलक़ में आ अटकते हैं। ...अंदर अधिकारियों की बैठक चल रही थी। दफ़्तरी उसकी पर्ची पहँुचाने को बिल्कुल तैयार न था। वह इसी बात पर अड़ा हुआ था कि कल आकर मिल लेना। साहब से ‘मिलने का समय दोपहर में दो से तीन तक’ रखा गया है!
पर उसने हिम्मत नहीं हारी। इस बीच उसने दो बार पानी पिया, एक बार बाथरूम गई और कम से कम दस बार परेशानी के कारण माथे पर झिलमिलाते पसीने को पोंछा।
पाँच बजे के लगभग डी.एम. के चेम्बर से अधिकारियों का रेला-सा निकला तो वह उठ कर अर्दली के स्टूल के पास पहुँच गई और तमतमाए चेहरे से बोली, ‘‘मैं एक राजनैतिक दल के ज़िला महिला प्रकोष्ठ की प्रधान हूँ...और तुम मुझे भी डी.एम. से नहीं मिलने दे रहे तो फिर ग़रीब पब्लिक के साथ क्या न्याय करते होगे!’’
इस पर चरपरासी ने उसे एकदम घूर के देखा, बोला, ‘‘देखिये मैडम! यहाँ भाषण झाड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। ...आप बाहर से आई हैं इसलिए मिलवाए देता हूँ,
वर्ना...’’
लीला ने आँखें झुका लीं। वह गुलाबी साफ़ा बाँधे था। स्टेट के ज़माने का बुजुर्ग जमादार। सभी इज़्ज़त करते होंगे उसकी, तभी इतना आत्मविश्वास झलक रहा है चेहरे पर। ...थोड़ी देर में वह वापस आकर झटके से बोला, ‘‘जाइए!’’
अंदर दो-तीन अधिकारी फाइलों में भिड़े मिले। कलेक्टर उसे देखते ही चौंक गया, ‘‘अरे-आप! कैसे आईं यहाँ?’’
‘‘सर! एक इमरजेंसी आ गई थी,’’ कड़े रुख से यकायक घबरा गई थी वह। मगर दम लगाकर पूरी बात कह डाली, ‘‘रतनूपुरा में एक मोम्डन का मर्डर हो गया है, किसी स्वीपर ने किया सुनते हैं...पुलिस है कि पूरे गाँव को थाने में बिठा रही है-सर ऽ!’’
‘‘आप क्या हैं?’’ उसने सख़्ती से पूछा।
लीला ने अपने पीछे देखा। उसे यक़ीन नहीं हुआ कि प्रश्न उसके लिये है...? पीछे कोई नहीं था। उत्तर देने से पहले ही वह हाँफ गई, ‘‘सर...मैं आपसे अकेले में पूरी बात करना...’’
‘‘यहीं कहो!’’ वह नरम नहीं पड़ा, जैसे, अजनबी हो!
लीला ने कुर्सियों पर विराजमान फाइलों में भिड़े महान अफ़सरों को देखा, वे जैसे वहाँ थे ही नहीं! न देख पा रहे थे कुछ, न सुन पा रहे थे, बस भिड़े थे फाइलों में।
फिर भी उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। कैसे खोले बचपन का वह संदर्भ! और कैसे समझाए कि ख़ून से ख़ून का धब्बा नहीं धुलता...! और वह मदद करना चाहती है।
न...वो हिंदू-मुस्लिम, दलित-सवर्ण कुछ भी नहीं है। मनुष्य है। मानवता के लिये...
वह रोने लगी,
‘‘मैं यहाँ नहीं कह पाऊँगी...आप नहीं सुनेंगे तो सबकुछ नष्ट हो जाएगा।
आप...!’’
अफ़सर फिर एक अजीब साँसत में फँस गया। उसने बड़ी उलझन के साथ देखा उसे, फिर फोन उठाया और नंबर मिला कर कहा, ‘‘कलेक्टर बोल रहा हूँ...मैडम आ रही हैं, बिठाना इन्हें!’’
वह चेहरा पोंछ कर बाहर निकल आई। जमादार ने इस बार सहानुभूति से देखा उसे। नीचे आकर लीला ने रिक्शा ले लिया।
वह जिस रेस्टहाउस में ठहरा था, वह अधिकतर रेसीडेंसियल परपज के लिये इस्तेमाल होता था। यह स्थान शहर की गहमागहमी से दूर एक आवासीय कालोनी के निकट था। जिन अधिकारियों को तबादले पर आने के साथ ही सिविल लाइन में बँगले नहीं मिल पाते, वे अक्सर अकेले यहीं आ धमकते...। रेस्टहाउस के लिये ख़ानसामा, चौकीदार, सफ़ाई कर्मचारी आदि पृथक से तैनात थे। अफ़सरों के आने पर सम्बन्धित विभाग अपने चपरासी भी मुहय्या करा देता।
अफ़सर का फोन यहाँ के चौकीदार ने ही अटेण्ड किया था और उसकी समझ में तो यही आया था कि मैडम यानी कलेक्टर साहब के घर से...बाई साहिबा आ गई हैं! उन्हें ठहराने का बंदोबस्त करना है...। यह बात उसने ख़ानसामा और चपरासी को भी बता दी। इसलिए, लीला के आते ही उन सब ने पलक पाँवड़े बिछा दिए! उसके नहाने और नाश्ते की हाथोंहाथ व्यवस्था कर दी। झटपट साहब के सूट में ही एक और बेड लगा दिया और शाम के खाने का मीनू पूछकर डिनर के इंतज़ाम में लग गए।
लीला को अपने भाग्य पर फिर एक बार अविश्वास-सा हो रहा था। डूबते-डूबते अचानक कैसे किनारा पा जाती है? सारा कलेश झर जाता है...।
नहा-धोकर फिर एक बार फूल-सी हल्की, स्वच्छ और सुगंधित हो गई थी वह। रेस्ट हाउस के चारोंओर बड़े घने पेड़ थे। पक्षी दिन भर की यात्रा से अपने रैनबसेरों पर लौट आए थे। जीवन झरनों की तरह कलकल निनाद करता हुआ बह रहा था। उसके हृदय में भयमिश्रित गुदगुदी मची थी। एवरग्रीन की नाइट रह-रह कर उसके ज़हन में कौंध रही थी...। सचमुच वह एक दुर्लभ क्षण था जिसमें अपने उद्धारकर्ता को सहज में ही प्रतिदान दे वह ऋण मुक्त हो गई थी!
(क्रमश)