लीला - (भाग 30) - अंतिम भाग अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

लीला - (भाग 30) - अंतिम भाग

दियाबत्ती के घंटे भर बाद जबकि, बिजली अचानक चली गई और पेड़ जुगनुओं की बदौलत बिजली की झालरों की तरह जगमगा उठे...तब रेस्ट हाउस के लान में कलेक्टर शोजपुर की जीप धीरे से आकर रुकी और उस शख़्स को उतार कर वापस चली गई जिसका लीला को बड़ी बेसब्री से इंतजार था! ...आते ही उसने परदा उठाकर कमरे में जैसे ही झाँका, लीला पर नज़र पड़ते ही हड़बड़ा गया, ‘‘देर तो नहीं हुई?’’
उसे जैसे याद आ गया कि मैंने तुम्हें यहाँ कबसे बिठा रखा है, ‘‘सारी! एक मिनट और...आता हूँ अभी!’’ वह क्षमा-सी माँग उन्हीं पाँवों लौट गया।
और उसके पीछे चपरासी आकर आलमारी से उसके कपड़े निकाल ले गया...तो लीला का तनाव काफ़ी हद तक कम हो गया। अब तक अंदर ही अंदर सवाल-जवाब करते-करते वह मानसिक रूप से काफ़ी थक चुकी थी। ...थोड़ी देर में वही विश्वस्त सेवक सोफे की कुर्सियों के मध्य सेंट्रल टेबिल रख गया और फिर तनिक देर में सफेद सूती कुर्ते-पायजामे में चमकता वह तेजस्वी युवा आ बैठा तो उसके आ जाने पर ‘बिअर’ की बाटल, दो खाली ग्लास और तश्तरी में भुने हुए काजू भी...।

घटना, किसी फ़िल्मी दृश्य की तरह बड़े सलीके से घट रही थी। जिसे वह मीठी नींद में देख-सुन रही थी, गोया!
‘‘आपका स्वल्पाहार हुआ?’’ पैग़ बनाते हुए पूछा उसने।
‘‘जी!’’ वह मुस्कराई, ‘‘खाना भी तैयार समझिए...श्रीमान् की व्यवस्था है!’’
‘‘लीजिए, बिअर तो लेती होंगी!’’ ग्लास की ओर इशारा किया उसने।
इन्कार नहीं कर सकी आज। आँखें चुराकर उठा लिया ग्लास। महीन मुस्कान के साथ चिअर्स कर लगा लिया ओठों से!
सुर्ख़ साड़ी मैच करते ब्लाउज में गोरी देह पर ख़़्ाूब फब रही थी। लिपस्टिक और नेलपालिश से चमकते सुर्ख़ ओठ और नाखून अफ़सर को ग्लास में घुलते नज़र आ रहे थे...इस भेद से बेख़बर कि सुर्ख़ रंग इंक़िलाबी होता है! झटका-सा देते हुए पूछा, ‘‘बस कितने बजे है..?’’
जैसे, भूल ही गई थी कि आज जाना भी है! हड़बड़ाहट में बोली, ‘‘रात ग्यारह बजे!’’
घंटी का बटन दबा, चपरासी को बुला खाना मँगा लिया उसने...।
लीला को एक अजीब-सी बेचैनी ने घेर लिया। बात कहाँ से शुरू करे और कैसे? खाने की तो इच्छा भी नहीं हो रही थी। पर उसका साथ देना ज़रूरी लग रहा था। और जैसी कि आदत थी, वह चुपचाप, रुक-रुक कर और देर तक खाता था...!
बात करने का मौक़ा तो लगभग ख़त्म ही हो गया! अपने ऊपर खीज हो रही थी कि खाने-पीने के चक्कर में पड़ी ही क्यों...? आते ही बात रख देती और चलती बनती। मान लेता तो ठीक, नहीं तो कोई और उपाय करती...।
पछताती-सी वह खाने की मेज से उसके पहले ही उठ खड़ी हुई। आदी नहीं थी इसलिए, नशे के कारण देह काबू से बाहर हो रही थी। बैग कंधे पर डाल सूखे लफ़्ज़ों में बोली, ‘‘रिक्शा मिलेगा?’’
‘‘नहीं-तो!’’ वह जैसे, चक्कर में पड़ गया। जीप पहले ही वापस भेज दी थी।
‘‘फिर...!’’ आँखों में आँसू और आत्मा में अपमान छुपाए वह खड़ी थी।
‘‘रात में अकेले जाना ठीक रहेगा, क्या...?’’ गोया, एक और करारा झटका देने उसने पूछ धरा।
और वह गुमसुम! हाँ भी और ना भी...। उसे बड़ी आस थी, आस तुड़वा कर जा रही थी। हृदय धीर नहीं धर रहा था। तब तक इस गुत्थी से अनभिज्ञ चपरासी ने बिस्तर झाड़ कर बाक़ायदा मच्छरदानी लगा दी! फिर क़रीब आकर अदब से झुककर बोला, ‘‘बाई-साब! चादर तो रख दिए हैं, कम्बल भी निकलवाएँ क्या?’’
‘‘नहीं! इतनी सरदी नहीं है।’’ अफ़सर ने चौंक कर हस्तक्षेप किया।
‘‘जी-अच्छा-सर!’’ वह सैल्यूट देकर हट गया।
तब उसने मुस्कराकर लीला से कहा, ‘‘अब तुम कल चली जाना! ये लोग कुछ और ही समझ बैठे हैं...।’’
मगर जवाब में उसने आँखें भर लीं।
अफ़सर हतप्रभ, ‘‘क्यों! ऐसी क्या ग़ुस्ताख़ी हुई?’’
इस पर वह सुबकने लगी तो उसकी अक़्ल गुम गई। आख़िर लीला जब ख़ुद से चुपी तो बेहद नाराज़ी से पूछा उसने, ‘‘ये क्या नादानी है...आख़िर तुम क्या चाहती हो, मुझसे?’’
‘‘कुछ नहीं!’’ उसने गला साफ़ कर गंभीरता से कहा, ‘‘जानते हैं आप? रामवीर ज़मींदार के उस लठैत का बेटा है जिसने हमारी छाती नोंच ली थी और टेंटुआ पकड़ लिया था...मैं तीसरे-चैथे दर्जे की अबोध छोरी, उसके मालिक को मुजरा झुका के नहीं गुजरी तो उसने ये गत की...!’’
लाखन द्वारा दी गई गाली याद करके वह रोने लगी थी। आँखें पोंछते हुए बोली, ‘‘मैं इतनी सहम गई कि न रोई, न चिल्लाई, न भाग सकी। ...भाई-बाप क्या करते? क्या कर सकते थे, उस ज़माने में! बस, मुझे घर बिठा लिया...पढ़ाई छुड़ा दी।’’
‘‘तुम उन्हीं लोगों को बचाना चाहती हो?’’ उसने हैरानी से पूछा।
‘‘हाँ!’’ लीला ने दृढ़ता से कहा, ‘‘क्योंकि, आज मैं उस लाखन और रामवीर को बचाने की सिफारिश कर रही हूँ जो निरीह और निर्दोष हैं। दलित और कैसा होता है?’’
अफ़सर निरुत्तर हो गया। उसने कहा, ‘‘ठीक है, ये आपका मैटर है...हम लोगों के हाथ तो बँधे हैं!’’
‘‘क्या!’’
लीला उसे हैरत से देखने लगी। लगा, वह तो वास्तव में शक्तिहीन है...आदमी नहीं कोई कठपुतली है, जैसे!
तब अकेलापन और रात का भय सब काफूर हो गया। विकट रोष में भरी वह सूट से बाहर निकल आई। जाते-जाते जी में आया कि चीख़कर बता जाय, पार्टी ही सबकुछ नहीं होती...मैं लोगों को जगाकर तुम सबके दाँत खट्टे कर दूँगी!’
अफ़सर, चपरासी और चौकीदार सब पिटे हुए-से उसका जाना देख रहे थे।

(समाप्त)