साधक की साधना Rajesh Maheshwari द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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साधक की साधना

साधक की साधना

 

      जबलपुर शहर में नर्मदा नदी के किनारे कुंडलपुर नामक कस्बे में एक प्रसिद्ध महात्मा जी अपने आश्रम में निवास करते थे। वे स्वभाव से बहुत मृदु, सरल और सबके प्रति परोपकार की भावना रखते थे। उनकी आवश्यकताएं बहुत सीमित थी और वे धन की लोलुपता से बहुत दूर रहते थे। वे बहुत संतुष्ट जीवन जी रहे थे। उनके दो शिष्य थे जिनका नाम महेन्द्रनाथ और केशवनाथ था। वे दोनो स्वामी जी के मार्गदर्शन में विद्या ग्रहण कर रहे थे। स्वामी जी जानते थे कि दोनों के स्वभाव में जमीन आसमान का अंतर है महेन्द्रनाथ का आचरण सीधा, सरल और सहज स्वभाव का था जबकि इसके विपरीत उनका दूसरा शिष्य केशवनाथ ज्ञान के अहंकार के कारण अपने आप को श्रेष्ठ समझता था और वह क्रोधी स्वभाव का था।

      दोनो की शिक्षा पूर्ण होने पर वे आश्रम से विदा होने से पहले महात्मा जी के पास आशीर्वाद लेने गये। महात्मा जी ने दोनो को आशीर्वाद देते हुए महेन्द्रनाथ को कहा कि तुम अपना स्वभाव जैसा आज है वैसा ही जीवन पर्यंत रखना और ध्यान रखना किसी लोभ में आकर अपने व्यक्तित्व को मत परिवर्तित करना। उनके दूसरे शिष्य केशवनाथ को आशीर्वाद देते हुये महात्मा जी ने कहा कि तुम बहुत ज्ञानी हो परंतु तुम्हारी सारी उपलब्धियाँ तुम्हारे क्रोधी एवं अहंकारी स्वभाव के कारण जीवन में सही मार्ग से विमुख कर देती हैं तुम उस पर नियंत्रण रखो तो जीवन में यश और मान सम्मान अवश्य प्राप्त करोगे। दोनो ही आश्रम से महात्मा जी को प्रणाम करके विदा हो जाते है।

      केशवनाथ शहर आकर अपने आश्रम की स्थापना करता है और धीरे धीरे अपने प्रपंचों द्वारा लोगो का विश्वास पाकर प्रतिष्ठा व मान सम्मान प्राप्त कर आसपास के इलाकों में भी प्रसिद्ध हो जाता है। वह सोचता है कि मेरी बुद्धि का कितना अच्छा प्रतिफल प्राप्त हो रहा है जिससे आज बडे बडे प्रतिष्ठित धनवान लोग भी मेरे शिष्य बन गये है। अब उसके मन में धीरे धीरे धन के प्रति आसक्ति आने लगती है और वह अपने यश और कीर्ति के अभिमान में गलत पथ पर चल पडता है और धनोपार्जन को ही जीवन का उद्देश्य मानने लगता है।

      केशवनाथ की प्रसिद्धि दिनों दिन फैलती जा रही थी और उसकी प्रसिद्धि सुनकर महेन्द्रनाथ अपने मित्र केशवनाथ की खोज खबर लेता हुआ उसके पास पहुँचता है। वह उसके रहन सहन व दिनचर्या को देखकर वह हतप्रभ रह जाता है। वार्तालाप के दौरान केशवनाथ घमंड से बताता है कि मैंने अपनी बुद्धि से इतना मान सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त की है अगर मैं स्वामी जी के बताये गये मार्ग चलता तो शायद ढंग से दो वक्त का भोजन भी प्राप्त नही कर पाता। तुम भी अपने जीवन के सिद्धांतों को बदल डालो और गुरूजी के उपदेशों को भूलकर धन को ही भगवान समझो तो मेरे समान यश, कीर्ति और वैभवपूर्ण जीवन का आनंद ले सकोगे।

      महेन्द्रनाथ अपने गुरूजी के प्रति अपमानजनक शब्द सुनकर अपने मित्र के अहंकार को देखकर उसे समझाने की कोशिश करता है और सही मार्ग पर लाने का प्रयास करता है। बातों ही बातों में केशवनाथ गुस्से में क्रोधित होकर अपशब्दों का प्रयोग करते हुये कहता है कि मैं ज्ञान में तुमसे श्रेष्ठ हूँ तुम चुपचाप यहाँ से चले जाओ और मुझे शिक्षा देने का प्रयास मत करो वरना अच्छा नही होगा। अपने और गुरूजी के अपमान के बाद भी महेन्द्रनाथ विनम्र रहते हुए केशवनाथ को पुनः सही रास्ते पर आने हेतु निवेदन करता है।

      यह सुनकर वह क्रोधित होकर अपशब्दों का प्रयोग करते हुए महेन्द्रनाथ को मारने के लिये अपने हाथ उठा लेता है तभी एक ईश्वरीय संयोग से एक सर्प आकर केशवनाथ को डस लेता है। वह दर्द के कारण चीख उठता है और उसे साक्षात मृत्यु का अहसास होने लगता है। कुछ क्षण मूर्छित अवस्था में केशनवाथ को अपने पाप कर्मो का अहसास होता है और वह महेन्द्रनाथ से कहता है कि मित्र बहुत देरी हो गई तुम्हें बहुत पहले आकर मुझे पथ भ्रष्ट होने बचा लेना था तभी महेन्द्रनाथ कहता है कि मित्र घबराओ मत गुरूजी के द्वारा प्रदत्त एक दवा मेरे पास है जिससे सर्प विष उतर जाता है।

      केशवनाथ पुनः कहता है कि नही मित्र मुझे अपने कर्मो का संज्ञान हो गया है अब अगर मैं जीवित बच भी गया तो वह जीवन मेरे लिये मृत्यु से भी अधिक कष्टकारी होगा। अतः मुझे इस संसार से विदा लेने दो। अब इस आश्रम की बागडोर तुम्हारे हाथों सौंपकर मैं शांतिपूर्वक मृत्यु का वरण करने जा रहा हूँ। वह गुरूजी के प्रति कहे अपशब्दों के लिये क्षमा मांगते मांगते अपने प्राण त्याग देता है।