भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 14 सीमा जैन 'भारत' द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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भूटान लद्दाख और धर्मशाला की यात्राएं और यादें - 14

14.तबो मठ 

जिसे हिमालय का अजंता भी कहा जाता है। यहां के भित्ति- चित्र बहुत ही सुंदर हैं, लेकिन जो चीज आल्ची मठ को और ज्यादा खास बनाती है, वह है इस मठ के पाँच-छः कमरों में खड़ी बोधिसत्त्व की विशाल मूर्तियां। ये मूर्तियां 2-3 मंजिल की ऊंचाई की है, जो उज्वलित रंगो से रंगे इन मंजिलों और छतों से उपर उठते हुए स्थिर खड़ी हैं।

इस क्षेत्र का सबसे पहला मंदिर जिसे लोटसा मंदिर कहा जाता है, जिसकी दीवारें बुद्ध के छोटे-छोटे हजारों चित्रों से भरी हुई दिखाई देती हैं। इस मंदिर में बुद्ध के हज़ार से भी अधिक चित्र चित्रित किए गए हैं। इसी के पास स्थित वैरोकना मंदिर के मंडल रंगे हुए हैं, जो बौद्ध मठों में अक्सर पाया जाता है। लेकिन आल्ची मठ के मंडल की खासियत है, उसपर की गई उभरी हुई कारीगरी जो उसे चौखट का स्वरूप देती है।

कुछ जगहों पर मुझे लगा जैसे यह कीमती रत्न और पत्थरों को रखने के लिए कोई खास जगह है पर मैं इसके बारे में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं कर सकी। मिट्टी से बने होने के कारण और अच्छी मरम्मत न हो पाने की वजह से कई जगहों पर चित्र धुंधले से पड़ते जा रहे हैं, तो कहीं पर टुकड़ों-टुकड़ों में मरम्मत का काम नज़र आता है।

आल्ची की चित्रकला शैली स्पष्ट रूप से कश्मीरी है। सिर्फ कश्मीरी चित्रकार ही लद्दाख के इस सख्त वातावरण में काम कर सकते थे। इन चित्रों में बहुत सी पारसी विशेषताएं नज़र आती हैं, जो आपको याद दिलाता है कि लद्दाख रेशम मार्ग का भाग रहा है जिसने पूर्व और पश्चिम की अनेकों संततियों को यहां से गुजरते हुए देखा है।

आल्ची मठ के आंगन में अद्वितीय स्तूप है जिसके भीतर आप जा भी सकते हैं। इसे भी भीतर से प्रचुरता में रंगा गया है। सर्दियों में लद्दाख की ठंड से बचते हुए आप खुशी-खुशी अंदर खड़े होकर इन चित्रों की प्रशंसा कर सकते हैं।

आल्ची मठ 10 वीं सदी की समाप्ती और 11 वीं सदी की शुरुआत के दौरान बनवाया गया था। यह उन 108 मठों में से एक माना जाता है जो महान अनुवादक रींचेन जंगपो द्वारा बनवाए गए थे। उनके द्वारा बनवाए गए कुछ मठ लमयुरु, तबो और नाको में भी देखे जा सकते हैं।

छ्ठा व सातवां दिन

लद्दाख की कईं जगह घूमने के बाद हम बहुत थक गए थे। कल मुझे अकेले ही पागोंग झील देखने जाना है। रात को वहीं टेंट में रुकने का इंतजाम मैंने करवा लिया था। अगले दिन मैं नुब्रा वेली को देखती हुई वापस आऊँगी।

पाँच घण्टे के रास्ते को तय करके हम पागोंग झील तक पहुँचे। दूर पर्वतों के बीच में से जब उस झील की एक झलक दिख रही थी तो वो मुझ पर कैसा जादू कर रही थी। कैसे बताऊँ? पर्वतों ने अपनी हथेलियों में किसी प्यारे बच्चे की तरह उस झील को सम्हाल कर रखा है। बिल्कुल वैसे ही जैसे हमारी हथेलियों में फूल भरे हों या हम जल अर्पण कर रहे हों। मुझे तो कुछ ऐसा ही लग रहा था। झील भी एक मासूम, शांत बच्चे की तरह अपने सात रंगों के साथ अपनी मस्ती में गुनगुना रही थी। 

पंच तत्व से बना हमारा ज़िस्म, जिसमें पानी का प्रतिशत सबसे ज्यादा होता है। शायद इसीलिए कईं लोगों को पानी बहुत मोहित करता है। इंसान के जीवन की शुरुआत माँ के गर्भ के खारे पानी से ही तो होती है। गर्भ से लेकर सागर तक का पानी एक-सा ही तो है। माँ के गर्भ से निकल कर हम दुनिया के गर्भ में बढ़ते हैं। 

बहुत ठंडी बर्फ़ीली हवा, झील का किनारा, पर्वतों के दायरे… इससे ज्यादा प्रकृति हमें क्या दे सकती है?! ये नज़ारा मेरी आँखों से अब कभी दूर नहीं हो पायेगा। जब भी अपनी यादों की खिड़की खोलूंगी मुझे यह झील दिखाई देगी। जिसनें इस दुनिया को, हमको बनाया है उसे याद करके आँखों में आँसू आ गए।

एक धन्यवाद, एक शुक्रिया! कितना दिया है तुमने? क्या हम इसे समझ पाये? अपनी शिकायतों के आगे कुछ देख पाये? मुझे आज इस जगत का रचयिता बहुत भोला, मासूम लगा। वो कैसे इतना कुछ देकर भी हमारी शिकायतें सुनता है? कभी कहता नहीं की जरा, एक नजर उस ओर तो करो जहाँ तुम खत्म होते हो! तुमसे आगे, तुम्हारे दर्द के आगे भी एक दुनिया है!

यहाँ सबके आँचल में कोई न कोई दाग तो है ही। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि ईश्वर ने हमारा साथ या हाथ छोड़ दिया है। हर कमी के बावजूद वो हमारे साथ है। पूर्णता की ओर का ये रास्ता हम उसकी ऊँगली थामकर तय कर सकते हैं।

रचनाकार कभी भी अपनी रचना को भूलता नहीं है। जैसे ही हम उसकी ओर हाथ बढ़ाते हैं वो हमें थाम लेता है। सिर्फ पहला कदम हमें आगे बढ़ाना पड़ता है उसके आगे…

झील के किनारे रात का समय, आसमान में सितारे, एक इंसान को कवि, लेखक, दार्शनिक क्या नहीं बना सकता है? आज ऐसा लग रहा था कि ये रात यहीं ठहर जाये। कुछ पल जीवन को कितना जीवंत कर सकते हैं ये मैंने आज जाना। 

रात की गहराई के साथ ठंड इतनी बढ़ गई थी कि मुझे अपने टेंट में जाना पड़ा। अपनी खिड़की से आसमान को देखते-देखते कब आँख लग गई पता नहीं! सुबह जब आँख खुली तो मंद, ठंडी हवा हौले से मेरे पास आई मुझे जगाने के लिए।

नुब्रा वेली को देखते हुए मैं अपने होटल में आ गई। मेरा मन थोड़ा उदास था। प्रकृति से दूरी कभी-कभी मुझे बहुत बेचैन कर देती है। वो जगह मेरे मन से हटती ही नही। एक अजीब सा खालीपन मेरे अंदर भर गया।

यहाँ से लौटना आसान नहीं था। गाड़ी में बैठते हुए भी लगा कुछ देर और ठहर जाऊँ। जीवन आगे बढ़ने का नाम है। ये मन बड़ा लालची है कितना भी सौंदर्य भर दो, और मांगता है। इसका मन भरता ही नहीं!