अभी तक आपने पढ़ा अनाथाश्रम से पारस को लाने के एक वर्ष के अंदर ही अदिति प्रेगनेंट हो गई। घर में सभी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। जिसकी उम्मीद वे छोड़ चुके थे वह तोहफ़ा पारस के नन्हे कदम घर में पड़ते ही उन्हें मिल गया।
अब तो अदिति की देखरेख में पूरे समय विमला लगी ही रहती। उसके खाने-पीने से लेकर दवा तक हर चीज का ख़्याल वही रखती, बिल्कुल अपनी बेटी की तरह। अदिति पूरे नौ माह तक स्वस्थ रही। किसी तरह की कोई परेशानी के साथ टकराव नहीं हुआ और यह नौ माह का समय भी बीत गया।
अदिति को प्रसव पीड़ा शुरु होते ही तुरंत उसे अस्पताल लाया गया। विजय और घर के सब लोग आज थोड़े से तनाव में थे कि क्या होगा? कैसे होगा? सब ठीक से तो हो जाएगा ना। इसी तरह के कई सवालों से घिरे इंतज़ार कर रहे थे कि कब डॉक्टर आकर उन्हें अच्छी ख़बर सुनायेंगी। लगभग सात घंटे के लंबे अंतराल के बाद डॉक्टर आईं और कहा, "बधाई हो बेटी आई है।"
यह ख़बर उनके कानों को उस सुख का आभास करा गई, जिसकी उन्होंने आशा ही छोड़ दी थी। सब कुछ सामान्य था इसलिए जल्दी ही उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई।
विमला ने बच्ची को गोद में उठाकर चूमते हुए कहा, "क्यों ना इसका नाम हम पवित्रा रख दें। पारस और पवित्रा दोनों भाई बहन की जोड़ी बहुत अच्छी रहेगी।"
पवित्रा नाम सुनते ही अदिति ने कहा, "अरे वाह माँ आपने एक बार में ही इतना प्यारा नाम बता दिया कि अब और सोचने की ज़रूरत ही नहीं है।"
एक वर्ष के अंदर, दो बालक एक बेटा और एक बेटी को पाकर विजय का परिवार पूरा हो गया। वे सब दोनों बच्चों को बिल्कुल एक जैसा प्यार दे रहे थे। एक जैसे संस्कार दे रहे थे।
धीरे-धीरे समय आगे चलता गया, बच्चे बड़े होते गए। दोनों भाई बहन में बहुत ज़्यादा बनती थी। एक दूसरे के बिना वे रहते ही नहीं थे। मस्ती, लड़ाई, झगड़ा, प्यार, दुलार सब कुछ चलता रहता था। पवित्रा को पारस हमेशा छोटी कह कर ही बुलाता था।
स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉलेज। पारस और पवित्रा में केवल एक ही क्लास का अंतर तो था। कॉलेज में पहुँचते ही पवित्रा को स्कूटर और पारस को बाइक मिल गई। उनके पास कभी किसी चीज की कमी नहीं होती थी। पारस का ग्रेजुएशन भी पूरा हो गया। वह कंप्यूटर इंजीनियर बन गया। इसी बीच उसने कई कॉम्पिटिटिव परीक्षाएँ भी दी थीं, कई जगह इंटरव्यू भी दिए थे।
उसे एक अमेरिकन कंपनी में नौकरी मिल गई। उसे अब अमेरिका जाना था। वह बहुत ख़ुश था। पूरा परिवार भी उसके लिए बहुत ख़ुश था। बस यदि दुःखी थी तो छोटी। वह पारस को अपने से दूर जाते देखकर अपने अकेलेपन से घबरा रही थी। वह पारस को बहुत चाहती थी। हमेशा दोनों साथ-साथ ही तो रहते थे।
एक दिन उसने कहा, "पारस भैया अब तुम हमेशा-हमेशा के लिए हमसे दूर चले जाओगे। वहाँ जाकर फिर कोई हमेशा के लिए वापस नहीं आता। बस दो-चार दिन या दो-चार हफ़्ते के लिए ही तुम भी आओगे। मैं तुम्हारे भविष्य और सफलता के लिए बहुत ख़ुश हूँ लेकिन इस दूरी के कारण बहुत दुःखी हूँ।"
"अरे पगली वहाँ सेटल होने के बाद तुझे और माँ पापा जी को भी वहाँ बुला लूँगा।"
"माँ पापा जी वहाँ आकर क्या करेंगे। वे तो अपनी मिट्टी छोड़कर कभी नहीं जाएँगे। हाँ घूमने ज़रूर आ जाएँगे पर हमेशा रहने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे।"
"हाँ तू ठीक कह रही है पर इतना अच्छा अवसर मिला है तो जाना तो चाहिए ना?"
"हाँ बिल्कुल, यह बात तो सही है। सभी को कहाँ ऐसे सुअवसर मिलते हैं।"
पारस की जाने की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही थीं। विजय, अदिति और छोटी सब उसे मदद कर रहे थे। रात काफी हो गई थी। अब पारस के अलावा सभी सो चुके थे। पारस अपने कुछ सर्टिफिकेट्स ढूँढ रहा था। तभी वह उस कमरे में गया जहाँ वह यदा-कदा ही जाता था। यहाँ विजय की अलमारी में केवल उसकी ही फाइलें रहती थीं। पारस ने सोचा शायद पापा जी ने उसके सर्टिफिकेट्स वहाँ रख दिए होंगे। ऐसा सोच कर उसने वह अलमारी खोली और ढूँढने लगा।
तब उसे एक फाइल मिली जिसमें से उसे वह कागजात मिल गए जिसमें उसे अनाथाश्रम से गोद लिया गया था। उन्हें देखकर वह हैरान रह गया। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। ना जाने कितनी बार उसने उस काग़ज़ को उलट-पुलट करके देखा। कितनी बार पढ़ा, उसे ऐसा लग रहा था मानो उलट पलट कर देखने से वह काग़ज़ बदल जाएँगे किंतु यह वो सच्चाई थी जो कभी मिट नहीं सकती थी। उसके बाद नम आँखों के साथ पारस ने उन्हें वैसे के वैसे ही वापस रख दिया।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः