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किलकारी - भाग २

अभी तक आपने पढ़ा अदिति और विजय को विवाह के नौ वर्ष पूरे होने तक भी संतान प्राप्ति नहीं होने के कारण अदिति उदास रहने लगी थी। उसकी उदासी को देखते हुए विजय ने अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेने का मन बना लिया। इस संबंध में जब विजय ने अपने माता पिता से बात की तो उन्होंने कुछ देर विचार करने के बाद अपनी सहमति दे दी।

अपने माता-पिता की सहमति मिलते ही विजय ने कहा, "तो ठीक है मैं कल ही अदिति से भी बात कर लेता हूँ और . . . "

विमला ने बीच में ही टोकते हुए कहा, "क्या अदिति मान जाएगी?"

"हाँ माँ लगता तो है, सुबह पता चल जाएगा। चलो अब मैं जाता हूँ। आप लोग भी सो जाइए, रात काफ़ी हो रही है।"

विमला अदिति से बहुत प्यार करती थी। बच्चे के ना होने की बात पर कभी भी विमला ने उसे एक भी अपशब्द नहीं कहा। वह समझती थी कि इसमें हमारे दोनों बच्चों की कोई ग़लती नहीं है। यह सब भाग्य का खेल है। वह हर काम में भी अदिति को मदद करती थी।

दूसरे दिन रविवार था। अदिति ने सुबह सबके लिए नाश्ता तैयार किया। वह सब खाने के लिए डाइनिंग टेबल पर बैठे। तब विजय ने कहा, "अदिति हम लोग तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं।"

"हाँ बोलो ना विजय क्या बात है," अदिति घबरा गई और उसकी आँखें विजय की आँखों को इस तरह देखने लगी मानो वह कह रही हों प्लीज़ कुछ ऐसा मत कह देना जिसे वह सहन ना कर पाए । अगले ही पल उसने सोचा, तीनों बात करना चाहते हैं। कहीं बच्चे को लेकर . . . या विजय का दूसरा विवाह . . .! कुछ ही पलों में कितना कुछ सोच लिया था अदिति के दिमाग़ ने।

"नहीं-नहीं यहाँ तो सभी मुझे कितना प्यार करते हैं।"

तभी विजय ने कहा, "अदिति कहाँ खो गई?"

अदिति चौंक गई, "नहीं कुछ नहीं, तुम क्या कह रहे थे?"

"अदिति क्या हम अनाथाश्रम से बच्चा गोद ले-लें?"

अदिति ने ख़ुश होकर मुस्कुराते हुए कहा, "विजय मैं तो कब से इस इच्छा को अपने मन में दबाए हुए बैठी हूँ लेकिन कभी कहा नहीं यह सोच कर कि पापा और माँ को कैसा लगेगा?"

विमला ने कहा, "अदिति बेटा यह तो बहुत ही अच्छा निर्णय है। हम दोनों तैयार हैं। रात को हमने आपस में बात की थी लेकिन इस पर आखिरी मुहर तो तुम्हें ही लगानी है। बेटा तुम यदि इसे ठीक समझती हो, और यदि तुम यह कर सकती हो तो हम आगे बढ़ सकते हैं।"

"हाँ मैं क्यों नहीं कर सकती माँ?"

"बेटा यह एक कठिन तपस्या है। उसके बाद यदि तुम्हारी गोद भी भर गई तो उस बच्चे के साथ कभी भी अन्याय नहीं होना चाहिए।"

"हाँ माँ मैं उसे बहुत प्यार दूँगी उसी तरह जैसे मानो मैंने ही उसे जन्म दिया हो।"

"बस बेटा हम सब तुम्हारे मुँह से यही सुनना चाहते थे।"

अदिति की प्यासी आँखों में आँसू छलक आए। उसे देखकर सभी भावुक हो गए। अदिति ने अपने आँसू पोंछते हुए सभी को चाय देने के लिए केतली हाथ में उठाई। उस समय अदिति के हाथ काँप रहे थे। उसके हाथ से केतली लेते हुए विमला ने कहा, "लाओ बेटा मैं देती हूँ।"

चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अब उनके बीच यह सलाह मशवरा चल रहा था कि लड़का गोद लें या लड़की।

अदिति ने कहा, "मुझे तो कुछ भी चलेगा बेटा हो या बेटी, बस मेरी गोदी सूनी ना रहे।"

विजय ने कहा, "मैं बेटे बेटी में कोई फ़र्क़ नहीं समझता फिर भी मेरी इच्छा है कि हम बेटा लेकर आएँ।"

टेबल से सामान उठाते हुए विमला ने पूछा, "क्यों बेटा ही क्यों चाहिए?"

चाय की आखिरी चुस्की लेते हुए विजय ने कहा, "माँ मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बेटी की शादी कैसे परिवार में होती है। कैसा जीवनसाथी मिलता है, बहुत ही चिंता का विषय होता है। आज भी दहेज के लिए लोग मुँह फाड़े खड़े ही रहते हैं। मॉडर्न हो गए हैं सारे पर दहेज प्रथा का साथ ना छोड़ पाए। यदि ऐसा कुछ घट जाता है तो फिर उस बच्ची का जीवन संकटों के बीच घिर जाता है। वह बच्ची फिर कभी पहले जैसी ख़ुश नहीं रह पाती।"

यह सुनते ही अदिति घबरा गई और उसके हाथ से चाय टेबल पर छलक गई । मेज पर गिरी चाय को साफ़ करते हुए उसने कहा, "नहीं बाबा मुझे भी डर लगता है, हम तो बेटा ही लेंगे।"

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः

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