किलकारी - भाग ६   Ratna Pandey द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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किलकारी - भाग ६  

अभी तक आपने पढ़ा पारस के कंप्यूटर इंजीनियर बनते ही उसे एक अमेरिकन कंपनी में नौकरी मिल गई। उसके अमेरिका जाने की तैयारियाँ चल रही थीं। पारस अपने कुछ सर्टिफिकेट्स ढूँढ रहा था। तभी उसे एक फाइल मिली जिसमें उसे अनाथाश्रम से गोद लेने के काग़ज़ मिल गए। वह नम आँखों के साथ उन काग़ज़ों को वहीं रखकर अपने कमरे में वापस आ गया।

अपने कमरे में वापस आकर पारस चुपचाप बिस्तर पर लेट गया। जब से उसने होश संभाला तब से लेकर अब तक के ना जाने कितने ही पल उसकी आँखों में दृष्टिगोचर हो रहे थे। इतना प्यार, इतना दुलार, बिल्कुल छोटी की तरह। माँ पापा जी ने कभी छोटी और उसमें अंतर किया ही नहीं। वह सोच रहा था यदि वह यहाँ से बाहर निकल गया तो माँ पापा जी अकेले हो जाएँगे। छोटी तो आज है कल ससुराल चली जाएगी, उसके बाद उनका क्या होगा।

तभी घर के बाहर के दरवाजे को ज़ोर-ज़ोर से खटखटाने की आवाज़ आने लगी। पारस जाग रहा था वह तुरंत ही उठकर गया और दरवाज़ा खोला। सामने ऊषा आंटी घबराई हुई खड़ी थीं। पारस को देखते ही वह बोलीं, "बेटा तुम्हारे अंकल को हार्ट अटैक आया है घर पर और कोई तो है नहीं, तुम जल्दी चलो प्लीज़।"

"अरे हाँ आंटी आप चिंता मत करो," कहते हुए पारस ने विजय और अदिति को आवाज़ लगाई, "माँ पापा जल्दी उठो राकेश अंकल को हार्ट अटैक आया है।"

वे दोनों भी उठ गए और वे ऊषा के साथ उनके घर पहुँचे। पारस ने अपनी कार निकाली और अस्पताल में फ़ोन भी कर दिया। बीच रास्ते तक पारस उन्हें ले आया। वहीं पर आधे रास्ते में उन्हें कार से निकाल कर एंबुलेंस में डाल कर अस्पताल ले गए। यह सब इतनी तेजी से हुआ सिर्फ़ इसलिए डॉक्टर राकेश की जान बचा पाए।

ऊषा धन्यवाद के मीठे शब्द बोलती जा रही थी। उसने कहा, "पारस बेटा आज जो तुम ना होते तो मैं अकेली क्या करती। राकेश तो यह दुनिया छोड़कर ही चले जाते। तुम मेरे लिए भगवान बन कर आए हो।"

"नहीं आंटी आप यह सब मत कहिए। अब तो अंकल ठीक हैं डरने की कोई बात नहीं है।"

अदिति ने ऊषा के आँसू पोंछते हुए कहा, "बस अब चिंता मत करो। हम यहाँ रुकते हैं तुम्हारे पास। पारस तुम घर जाओ बेटा, पवित्रा अकेली है।"

"जी माँ मैं जाता हूँ।"

कार चलाते समय पारस सोच रहा था, "जिसने उसे जीवन के इतने सुंदर सुनहरे पल दिए, उसके जीवन के हर पल को रंगीन बना दिया, उनसे दूर जाकर मैं उनके जीवन को बेरंग कैसे कर सकता हूँ। अब तक मुझे उनकी ज़रूरत थी लेकिन और कुछ वर्षों में उन्हें मेरी ज़रूरत पड़ेगी।"

घर आकर भी वह रात भर बेचैनी में इधर से उधर करवटें बदलता रहा। पूरी रात खुली आँखों से जागते हुए एक लंबे सपने की तरह गुज़री थी। जिसमें कभी उसे भूतकाल का बचपन याद आता। कभी वर्तमान और कभी आने वाला वह भविष्य जिसमें उसे उसके बूढ़े माँ पापा जी अकेले खड़े दिखाई देते। वह उसे पुकारते पर उनकी आवाज़ उसे सुनाई नहीं देती। वह उसे निहारते पर वह उन्हें देख नहीं पाता। वह अपनी बाँहें फैलाते पर वह लिपट नहीं पाता। आख़िरी में उनके आँसू दिखते जो वह पोंछ नहीं पाता।

सुबह नाश्ते के समय विजय ने पूछा, "पारस बेटा, तुम्हारी तैयारी पूरी हो गई। देखना कुछ छूट ना जाए, अब तुम्हारे जाने के केवल 5 ही दिन बाक़ी है।"

तभी पारस ने पानी का घूँट निगलते हुए कहा, "पापा जी मैं नहीं जा रहा।"

अचरज भरे स्वर में, "क्या-क्या . . .,” कहते हुए विजय उठकर खड़े हो गए, " यह क्या कह रहे हो पारस तुम? क्या हो गया? तुम्हें समझ में भी आ रहा है तुम क्या कह रहे हो और क्यों नहीं जा रहे? रात तक तो सब ठीक था बेटा, अचानक क्या हुआ? सब जानते हैं तुम ने इसके लिए कितनी मेहनत की है। दिन रात एक कर दिया था तुमने।"

"पापा जी मन नहीं कर रहा। जैसे-जैसे जाने का समय नज़दीक आ रहा है वैसे-वैसे मन में धुकधुकी हो रही है, बेचैनी हो रही है। आपको छोड़कर जाने के लिए मन तैयार नहीं हो रहा।"

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः