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वे बहत्तर घण्टे

मेरा यह प्रयास समर्पित है

श्रृद्धेय श्री वेणुगोपाल जी बांगड़ को

जिनकी पितृव्य स्नेह स्निग्ध छाया ने

प्रदान किया है

हर पल

संरक्षण और सम्बल

आत्म-कथ्य

एक उद्योगपति परिवार में जन्म लेने के कारण और एक उद्योगपति के रुप में जीवन व्यतीत करने के कारण मैंने एक उद्योगपति के जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव तथा एक उद्योग के संचालन में रास्ते में आने वाले पर्वतों और खाइयों को देखा और उन्हें पार किया है। जब मैं इक्कीस साल का था तभी मेरे पिता मुझे छोड़कर परलोक चले गये थे। उनकी संपत्ति के अतिरिक्त जीवन के संघर्ष में पिता से मिलने वाले मार्गदर्शन और ज्ञान से मैं वंचित रहा। मैं अनुभव करता हूँ कि यदि वह मुझे मिला होता तो जीवन में उतनी कठिनाइयाँ और उतना संघर्ष नहीं होता जितना मेरे सामने रहा।

मेरे मन में यह विचार निरन्तर आता रहा कि हमारी नयी पीढ़ी जो उद्योग के क्षेत्र में असीमित सपनों के साथ पदार्पण कर रही है अथवा इस दिशा में आगे बढ़ने का विचार रखती है उसे संसार के टेड़े-मेड़े रास्ते का जितना भी हो सके उतना परिचय अवश्य दूं।

सूर्योदय के साथ

प्रारम्भ हुआ मन्थन

जन्म और मृत्यु के

सत्य पर चिन्तन

दुनियां में सब होगा

लेकिन हम न रहेंगे

हमारे लिये तब

कितने आंसू बहेंगे

दस्तूर है जमाने का

रहनुमा होते हैं कम

किसी के बिछुड़ने से

कम को ही होता है गम

किसी की आंख से निकले

दो आंसू

जीवन को देंगे सार्थकता

फिर नया रुप लेगी

आत्मा की अमरता

तन तो है आत्मा का घर

सीमित है उसका सफर।

मेरी यह पुस्तक उसी प्रयास का हिस्सा है। जीवन की अनेक घटनाओं और अनुभवों को मैंने कल्पना से जोड़कर कहानी के रुप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसकी रचना में श्री अभय तिवारी, श्री राजीव गौतम, श्री के. कुमार, श्री प्रेम दुबे एवं श्री सतीश अवस्थी का भी मैं आभारी हूँ जिनके विचार-विमर्श से इसको पूरा करने में मुझे बहुत सहायता मिली है। आशा करता हूँ कि हमारे भविष्य को इससे अवश्य लाभ होगा।

जबलपुर राजेश माहेश्वरी

रामनवमी 106,नयागाँव हाउसिंग सोसायटी,

संवत 2071 जबलपुर, म. प्र.

अनुक्रमणिका

वे बहत्तर घण्टे

माँ

मित्रता

कलाकार

बँटवारा

खण्डहर की दास्तान

पनघट

बारबाला

जय जवान जय किसान जय विज्ञान

यमराज और चित्रगुप्त

मेरा देश महान

नारद और महन्त

ऐसा भी हुआ

हृदय परिवर्तन

जिद

राम और विभीषण

कुलदीपक

मोक्ष

बुद्धिमान और बुद्धिहीन

आत्म निर्णय

प्रेम

चोर पुलिस

नेता जी और रक्तदान

जीवन दर्शन

नेता और खरबूजा

विदाई

वे बहत्तर घण्टे

गुजरात भीषण अकाल से पीड़ित था। हाहाकार मचा हुआ था। इन्सानों की जो दुर्दशा थी सो तो थी ही पशु-पक्षी और जानवर भी बेमौत मर रहे थे। फसलें सूख चुकी थीं। खेत दरक गये थे। इन्सानों के लिये अनाज की व्यवस्थाएं तो सरकार कर रही थी। सरकार के पास अनाज के भण्डार थे लेकिन जानवर विशेेष रुप से गाय-भैंस आदि बेमौत मर रहे थे। कहीं भी चारा-भूसा दाना-पानी नहीं बचा था। इन्सानों को अपनी जान के लाले पड़े थे वे पशुुओं के लिये चाहकर भी कुछ कर सकने में असमर्थ थे। केन्द्र सरकार ने गुजरात में चारा और भूसा भेजने के लिये रेल्वे की सुविधा निशुल्क कर दी थी। पूरे देश में लोग गुजरात की दुर्दशा को देख और समझ रहे थे। मदद भी कर रहे थे। लेकिन समस्या थी कि वहां के पशुधन के जीवन की रक्षा किस प्रकार की जाए।

मैंने सोचा- मेरा नगर संस्कारधानी कहलाता है। मेरे पितामह स्वर्गीय सेठ गोविन्ददास जी ने गौ रक्षा के लिये आन्दोलन किये। इस प्रयास में उनके तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु से भी कुछ मतभेद हो गए थे। मुझे भी गुजरात में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रही गायों के लिये कुछ करना चाहिए। मैंने निश्चय किया कि मैं एक रैक भरकर भूसा गुजरात भिजवाउंगा और इस प्रकार भिजवाउंगा कि और लोगों की संवेदनाएं इस दिशा में जागृत हों और वे भी इस दिशा में प्रयास करें। सबसे पहले मैं अपने काकाजी सेठ बालकृष्ण दास जी मालपाणी के पास गया और मैंने उन्हें अपना संकल्प बतलाया। वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना आशीर्वाद देते हुए कहा कि ईश्वर करे तुम इस प्रयास में पूरी तरह सफल रहो। मेरा जो भी सहयोग तुम्हें चाहिए तुम ले सकते हो।

काकाजी का आशीर्वाद मिलने के बाद मैं सबसे पहले अपने लायन्स इण्डिया के मित्रों के पास गया और उनसे इस विषय पर चर्चा की। वे सभी इस कार्य में सहयोग देने के लिये तैयार हो गये। उसी दिन शाम को इस कार्य के लिये कार्य योजना पर विचार करने सभी एकत्र हुए। पहला विचार यह बना कि भूसा क्रय करके यहां से भिजवाया जाए। पता नहीं कौन सी ईश्वरीय प्रेरणा के कारण मैंने कहा कि भूसा क्रय करके नहीं वरन लोगों से सहयोग के रुप में प्राप्त करके भिजवाया जाए। मेरी बात से सभी लोग सहमत तो हो गए परन्तु इस कार्य का दायित्व भी मुझे ही सौंप दिया गया।

वहां से लौटकर मैं विचार करता रहा कि भूसा किस क्षेत्र से संग्रहित किया जाए। हमारे क्षेत्र में शहपुरा और पाटन क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जहां हमारे परिवार की खेती की जमीनें हैं जिन पर खेती होती है। यह बहुत उपजाऊ क्षेत्र है और यहां से आवश्यक मात्रा में भूसा प्राप्त हो सकता है। वहां के क्षेत्रीय विधायक ठाकुर सोबरन सिंह मेरे मित्र थंे। वहां के किसानों से भी हमारे पारिवारिक संबंध थे। यह विचार आने के बाद दूसरे दिन सुबह ही मैं ठाकुर सोबरन सिंह से फोन पर बात करके उनके पास पहुँच गया।

मेरी सारी बातें सुनकर वे बोले कि आपका विचार तो बहुत अच्छा है। गौरक्षा तो हमारा कर्तव्य है। मैं आपको विचार करके जल्दी ही उत्तर दूंगा। मैं उनके पास से चला आया। मुझे लगा कि वे इस कार्य से बच रहे हैं। वहां से आकर मैं अन्य विकल्पों पर विचार करने लगा। इस बीच दो-तीन दिन का समय बिना किसी प्रगति के बीत गया। अचानक तीसरे दिन सोबरन सिंह जी का फोन आया। वे बोले-

आप मेरे पास जिस कार्य के लिये आये थे उसके विषय में आगे आपने क्या किया ? आप केवल बात ही करने आये थे या कुछ करना भी चाहते हैं ?

आपने कहा था कि आप विचार करके बतलाएंगे। मैं आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था।

मैं तो हमेशा आपके साथ हूँ। बतलाइये आगे मुझे क्या करना है और आप क्या कर रहे हैं?

इसकी योजना तो आपके साथ बैठकर ही बनाना है। लायन्स इण्डिया परिवार में इस विषय पर चर्चा हुई थी। वहां सभी लोग सहयोग कर रहे हैं। हमें जनसहयोग से भूसा एकत्र कर उसे भेजना है। भूसे की ढुलाई और लदाई में होने वाला सारा व्यय लायन्स इण्डिया परिवार की ओर से वहन किया जाएगा।

आप समय निकालकर आ जाइये तो हम काम प्रारम्भ कर दें। तब तक मैं यहां के अन्य किसानों आदि से भी इस विषय पर चर्चा कर लेता हूँ।

अगली मुलाकात में यह तय हो गया कि गरमी का मौसम देखते हुए दिन में संपर्क करना संभव नहीं हो पाएगा। इसलिये रात के समय हम किसानों से संपर्क करेंगे। यह काम अगले दस दिन में पूरा करना था। इसलिये उसी दिन शाम से काम प्रारम्भ कर दिया गया। मैंने जब यह बात अपने चचेरे भाई श्रीकृष्ण मालपाणी को बतलाई तो उसने मुझे अपनी जीप देते हुए कहा कि इसके लिये आप इस जीप का प्रयोग कीजिये। गांव में आप अपनी कार से सब जगह संपर्क नहीं कर पाएंगे।

संध्याकाल में मैं सोबरन सिंह जी के यहां शहपुरा पहुँच गया। वे पूरा रुट मैप तैयार कर चुके थे। उसमें उन्होंने संपर्क के लिये गांवों का क्रम, किसानों के नाम और मोबाइल नम्बर आदि लिख कर तैयार कर लिये थे। उन्होंने यह भी अनुमान लगा लिया था कि कहां कितना भूसा प्राप्त हो सकेगा। मैं जब पहुँचा तो उनकी यह तैयारी देख कर मेरा उत्साह दुगना हो गया। उनके इस कार्यक्रम में मैंने केवल इतना ही परिवर्तन किया कि कार्य का श्रीगणेश अपने गांव मनकेड़ी से किया।

मनकेड़ी में जब हम लोगों ने वहां के किसानों से बात की तो वे न केवल सहयोग के लिये तैयार थे वरन सहयोग करते हुए उनके मनों में जो प्रसन्नता थी वह उनके चेहरे और उनकी बातचीत में भी झलक रही थी। इसने हमारे उत्साह को और भी अधिक बढ़ा दिया। हम एक के बाद दूसरे गांव जाकर संपर्क करने लगे। गौ माता की रक्षा के लिये सहयोग देने हर आदमी तैयार था और जिसमें जितना सामर्थ्य था वह उससे बढ़कर सहयोग कर रहा था। हम जहां भी गये हमारी बात सुनने के बाद कई गांवों में तो लोगों ने हमारा तिलक किया और मालाएं पहनाकर हमारा सम्मान किया। ऐसा कोई गांव नहीं रहा जहां बिना खाये पिये हमें गांव से जाने दिया गया हो।

कुछ गांव वालों ने हमें सुझाव दिया कि आप वहां से उन गायों को यहां बुला लीजिये हम उनकी पूरी सेवा करेंगे और जब वहां स्थिति ठीक हो जाएगी तो उन गायों को वहां वापिस भिजवा देंगे। लोगों के उत्साह और समर्पण की भावना को देखते हुए यह सुझाव बहुत महत्वपूर्ण था किन्तु यह व्यवहारिक नहीं था। इसीलिये इसे स्वीकार करना संभव नहीं था।

इस कार्य में मेरी जीप में तो मैं और सोबरन सिंह जी व उनका एक साथी ही रहता था किन्तु कुछ और ग्राम वासी भी अपनी गाड़ियों पर हमारे साथ इस कार्य में लग चुके थे। परिणाम यह था कि हमारा तीन-चार गाड़ियों का जत्था लगातार काम में लगा रहता था।

एक दिन आधी रात को जब हमारा यह जत्था एक गांव में बिना किसी पूर्व सूचना के पहुँचा तो दूर से ही गाड़ियों के जत्थे को आते देख कर गांव वाले समझे कि डाकू आ रहे हैं। हम लोग जब तक गांव पहुँचे और हमारी गाड़ियां बखरी के सामने जाकर खड़ी हुईं तब तक वे लोग छतों पर बन्दूकें तान कर पोजीशन ले चुके थे और किसी भी क्षण फायर करने के लिये तैयार थे। मैं तो इस माजरे को समझ ही नहीं सका किन्तु सोबरन सिंह जी समझ चुके थे। उन्होंने गाड़ी में बैठे-बैठे ही जोर की आवाज लगाई और उन्हें कहा कि मैं ठाकुर सोबरन सिंह हूँ। ठाकुर साहब से मिलने आया हूँ। सन्नाटे में उनकी आवाज गूंज उठी। उन्होंने जब यही आवाज दुबारा लगाई तो एक आदमी हमारे पास आया और यह निश्चय हो जाने के बाद कि डाकू नहीं हैं उसने आवाज लगाकर बाकी सब को सूचित किया तब जाकर हम अपनी गाड़ियों से उतर सके।

हम जब भीतर पहुँचे और हमने अपने आने का कारण उन्हें समझाया तो वे बड़े प्रसन्न हुए। ठाकुर साहब वहां के प्रतिष्ठित किसान थे। हमारी बात सुनकर उन्होंने तत्काल कह दिया कि मेरी कोठी में जो भूसा पड़ा है आप जितना चाहें ले लीजिये। जब हमने उन्हें बतलाया कि इसे भेड़ाघाट स्टेशन पर पहुँचाना है तो उन्होंने हमसे कहा कि आप निश्चिन्त रहिए। यह सारा भूसा समय पर वहां पहुँचा दिया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि अब आपको इस गांव में किसी और से संपर्क करने की आवश्यकता नहीं है। मैं सब से बात कर लूंगा और जो जितना सहयोग देना चाहेगा वह वहां उतना भूसा पहुंचा देगा। इस गांव में अब आप अपना समय खर्च मत कीजिये।

उनके आश्वासन के बाद जब हम वहां से चलने लगे तो उन्होंने हमें नहीं जाने दिया। आधी रात को उन्होंने खाना बनवाया हमारे लाख मना करने बाद भी उन्होंने खाना खिलाया, तिलक लगाया, माला पहनाई और विदाई देने के बाद ही हमें वहां से जाने दिया। उस दिन वहां इतना समय हो गया था कि हमें जिन दो गांवों में और उसी रात जाना था वहां नहीं जा सके। हमें वहां अगले दिन जाना पड़ा।

एक दिन तो गजब हो गया। हमारा जत्था एक गांव में पहुँचा तो एक बुजुर्ग जिनके सोबरन सिंह जी से पारिवारिक और आत्मीय संबंध थे उन्होंने सोबरन सिंह जी से कहा- तुम ये किस चक्कर में फंस गये हो। बाबू साहब तुम्हें गौ रक्षा के नाम पर गांव-गांव घुमा रहे हैं और अपने पैर जमा रहे हैं। आगे चलकर वे विधान सभा की टिकिट ले आएंगे और तुम्हारी टिकिट कटवा देंगे। उस समय तुम उनका विरोध भी नहीं कर पाओगे। राजनीति से तुम्हारा पत्ता साफ हो जाएगा। तुम अपने ही हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की बेवकूफी कर रहे हो। तुम्हें इतनी सी बात भी समझ में नहीं आ रही है और तुम अपने को राजनीतिज्ञ समझते हो।

उनकी बात सुनकर सोबरन सिंह एक बारगी तो सोच में पड़ गए फिर संभल कर विनम्रता से उनसे बोले- अगर बाबू साहब को टिकिट पाना होता और राजनीति में आना होता तो उनकी और उनके परिवार की राजनीति में इतनी पैठ है कि वे कब की टिकिट ले कर मैदान में कूद चुके होते। मैं इन्हें जानता हूँ। रही बात पैर जमाने की तो उसके लिये उन्हें मेरे सहारे की जरुरत नहीं है। उनके पैर पहले से ही इतने जमे हुए हैं कि वे टिकिट लेकर इस क्षेत्र में आसानी से फतह पा सकते हैं।

ये जो भूसा इकट्ठा किया जा रहा है इसके भेजने की क्या व्यवस्था है और इस बात की क्या गारण्टी है कि इसका दुरूपयोग नहीं होगा ?

उनका प्रश्न सुनकर सोबरन सिंह जी मेरी ओर देखने लगे। मैंने उन्हें बतलाया-

सरकार ने बिना किसी भाड़े के रेल द्वारा इस भूसे को गुजरात भेजने की व्यवस्था की है। वहां गायों को अलग-अलग स्थानों पर एकत्र किया गया है। यह भूसा राजकोट भेजा जाना है। वहां के सांसद डॉ. वल्लभ भाई कठीरिया इसे प्राप्त करेंगे और फिर उनकी देखरेख में यह भूसा गायों तक पहुँचेगा। जिससे गायों को भोजन मिल सके और उनकी जीवन रक्षा हो सकेगी। इसका पूरा प्रबंध किया जा चुका है। रेल्वे ने एक रैक भी एलाट कर दिया है जो आज से दसवें दिन भेड़ाघाट स्टेशन पर लग जाएगा और ग्यारहवें दिन रवाना हो जाएगा। उसे व्ही. आई. पी. ट्रीटमेण्ट दिया जाएगा और वह सीधा राजकोट पहुँचेगा। इसके लिये रेल्वे ने प्लेटफार्म साफ कर दिया है जहाँ यह भूसा एकत्र किया जा रहा है।

बाबू साहब आप चिन्ता मत कीजिये। मैं इस कार्य में आपकी सहायता करुंगा। मैं प्रतिदिन सुबह भेड़ाघाट स्टेशन जाऊंगा और वहां की व्यवस्थाएं संभाल लूंगा। इससे आप का दिन का समय बचेगा जिसका आप दूसरी जगह उपयोग कर सकते हैं। वही बुजुर्ग बोले।

इसके बाद उन्होंने वहीं बैठे-बैठे दस बारह लोगों को फोन लगाकर बात की और ढेर से भूसे की व्यवस्था और कर दी। वे सुबह आठ बजे स्टेशन पर पहुँच जाते थे। भूसे को व्यवस्थित तरीके से रखवाने की व्यवस्था करते थे और उसका हिसाब रखते थे।

इस भूसा संग्रह में एक बात जो विशेष उल्लेखनीय है वह यह कि इस कार्य का हल्ला पूरे क्षेत्र में हो चुका था। इसका परिणाम यह रहा कि जहां कहीं भी हम लोग जाते लोग बड़े आदर और सम्मान के साथ हमारा स्वागत करने लगे। जिन होटलों या ढाबों आदि में हम चाय पीते या जलपान करते कोई भी हमसे पैसे लेने के लिये तैयार नहीं होता था। इस बात की जानकारी नगर के समाचार पत्रों को भी हो गई थी। उनके प्रतिनिधि भेड़ाघाट जाकर कार्य की प्रगति की जानकारी एकत्र करने लगे और उसे समाचार पत्रों के माध्यम से प्रचारित करने लगे। हम लोगों के भी साक्षात्कार लेकर प्रकाशित किये गये। यह भूसा संग्रह एक आन्दोलन का रुप ले चुका था जिसकी नियमित समीक्षा लोगों द्वारा और अखबारों द्वारा की जा रही थी।

भेड़ाघाट स्टेशन का पूरा प्लेटफार्म भूसे से भरा हुआ था। सात दिन बीत चुके थे। हम लोग संतुष्ट थे कि इतना भूसा एकत्र हो गया है कि एक रैक आसानी से भर जाएगा। हमें लग रहा था कि हमारा काम लगभग पूरा हो चुका है और अब केवल भूसे को रैक में भरकर भेजना ही बचा है। रेल्वे ने भी उत्साह पूर्वक सहयोग दिया था और रैक दसवें दिन की जगह नौवें दिन ही स्टेशन पर आकर खड़ा हो गया। उसमें अट्ठाइस बैगन थीं।

भूसा भरा जाने लगा। गांव वाले बड़ी संख्या में आकर इसमें सहयोग कर रहे थे। जब पूरा भूसा रैक में भरा जा चुका तो यह देखकर हमारे हाथ पैर ही फूल गये कि पूरा भूसा भरे जाने के बाद भी एक भी बैगन पूरी नहीं भरी थी। सभी मंे आधा-अधूरा भूसा भरा था। बैगन के रवाना होने में मात्र बहत्तर घण्टे बाकी थे और पूरा रैक भरने के लिये उससे भी अधिक भूसा और चाहिए था जितना भरा जा चुका था। दस दिनों में हमने जितना भूसा एकत्र किया था उससे अधिक भूसा बहत्तर घण्टों में कैसे पाया जा सकेगा ?

मैं सोच रहा था कि हमारा उद्देश्य और कार्य कितना भी सकारात्मक हो पर हमें उसको पूरा करने का संकल्प लेने से पहले अच्छी तरह से इस बात पर विचार कर लेना चाहिए कि यह कार्य कैसे सफल होगा, कितने परिश्रम की आवश्यकता होगी, कितना समय लगेगा और आवश्यक साधन कैसे प्राप्त होंगे आदि....आदि... ।

हम भावनाओं में बहकर त्वरित निर्णय ले लेते हैं और कभी-कभी मुसीबत में भी फंस जाते हैं। हमें प्रतिष्ठा कार्य के सम्पन्न होने पर ही मिलती है। अधूरे कार्य रहने पर कारण चाहे जो भी हों हम हास्य के पात्र बन जाते हैं। हमारे मन में संकल्प था एवं प्रभु के प्रति पूर्ण विश्वास था। प्रसिद्धि की कोई तमन्ना नहीं थी। गौमाता की पीड़ा कम हो सके और उनके जीवन की रक्षा हो सके यही अभिलाषा हमारे मनों में थी। इसलिये भीतर ही भीतर हमें यह भी लग रहा था कि कार्य अवश्य पूर्ण होगा। किन्तु कैसे पूरा होगा यह समझ में नहीं आ रहा था।

रात के लगभग दस बजे का समय था। हम लोग चिन्ता में डूबे हुए प्लेटफार्म पर विचार कर रहे थे। कोई हल नहीं सूझ रहा था। तभी एक चमत्कार हुआ। एक किसान साइकिल पर पीछे एक बोरा भूसा भरकर लाया और उसने वह एक रैक में खाली कर दिया। उसके बाद वह हम लोगों के पास आया और उसने हम लोगों के पैर पड़े। वह इस कार्य के लिये हमें बधाई तो दे ही रहा था साथ ही उसके मन में बहुत थोड़ा सहयोग देने का संकोच भी था। हमने उससे चाय पीने का आग्रह किया किन्तु उसने उसे अस्वीकार कर दिया और वह हमें दुआएं देता हुआ वहां से चला गया। उसके कुछ ही देर बाद एक और बैलगाड़ी भरकर भूसा लेकर आई और फिर उसके बाद तो थोड़े-थोड़े अंतर से कोई बैलगाड़ी में भरकर भूसा लाता और भर जाता और कोई टैक्टर ट्राली में लाकर भूसा भर जाता। यह क्रम जो प्रारम्भ हुआ तो तब तक चलता रहा जब तक कि पूरा रैक भर नहीं गया।

जिस समय रेल्वे के कर्मचारी भूसे से भरी हुई बैगन को लॉक करते तो पहले यह चैक करते थे कि कहीं कोर्इ्र आदमी उस भूसे के भीतर तोे दबा हुआ नहीं है। इस प्रक्रिया में एक बैगन के भीतर एक आदमी मिला। जब उससे पूछा गया कि तुम यहां भीतर कैसे हो तो वह बोला कि मैंने सोचा कि इसी गाड़ी में जाकर गुजरात घूम आउंगा।

अगले दिन प्रातः सात बजे यह विशेष रैक गुजरात के लिये रवाना हो गया। रवानगी के समय रेल्वे के सभी वरिष्ठ अधिकारी, लायन्स इण्डिया के पदाधिकारी व सदस्य, प्रतिष्ठित नागरिक, दानदाता, ग्रामवासी और पत्रकार आदि उपस्थित थे। डी. आर. एम. रेल्वे ने स्वयं हरी झण्डी दिखाकर उसे रवाना किया। रवानगी के पूर्व ड्राइवर और गार्ड हम लोगों से मिलने आये और उन्होंने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की कि उन्हें इस पावन कार्य को करने का सौभाग्य एवं दायित्व मिला है। उसी समय फोन पर काकाजी श्री बालकिशन दास जी मालपाणी ने हमें आशीर्वाद दिया और कहा कि आप लोगों ने एक बहुत अच्छा कार्य किया है।

रेल्वे स्टेशन से घर लौटते हुए मैं सोच रहा था-

सच्ची सफलता के लिये

आवश्यक है

मन में ईमानदारी

सच्चा मार्ग

क्रोध से बचाव

वाणी में मधुरता

सोच समझ कर निर्णय

ईश्वर पर भरोसा

और उसका निरन्तर स्मरण।

यदि यह हो

तो हर कदम पर सफलता

निश्चित है

और निश्चित है

सुख, समृद्धि, वैभव और आनन्द।

इस ट्रेन को बिना कहीं रोके सीधा राजकोट पहुँचाये जाने की व्यवस्था की गई थी। अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार यह ट्रेन राजकोट पहुँच गई। वहां सांसद डॉ. वल्लभ भाई कठीरिया ने उसका स्वागत किया और वह भूसा गायों तक पहुँचाने की व्यवस्था की। उनकी व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि कुछ ही घण्टों में वह चार सौ इक्क्यासी टन भूसा अपने गन्तव्य पर पहुँच गया। वहां के जिलाधीश ने फोन पर हम लोगों को भूसा प्राप्त होने की सूचना दी एवं उसके समुचित उपयोग से हमें अवगत कराया। उन्होंने यह भी कहा कि यदि आप लोग चाहें तो अपने किसी प्रतिनिधि को भेजकर इसकी पुष्टि कर सकते हैं। यह आपके प्रदेश से प्राप्त हुआ पहला और महत्वपूर्ण योगदान है। इसके लिये हमारा राज्य आपका आभारी है।

अगले दिन हमें गुजरात के विधानसभा अध्यक्ष का संदेश प्राप्त हुआ। वे चाहते थे कि हम लोग वहां पहुँचें और हमारा सम्मान किया जाए। हम लोग विगत पन्द्रह दिनों में बहुत थक चुके थे अतः हमने विनम्रता पूर्वक उनके आमन्त्रण को अस्वीकार करते हुए सधन्यवाद क्षमा याचना की। एक दिन बाद नगर के गुजराती मण्डल ने डॉ. राजेश धीरावाणी के नेतृत्व में हम लोगों को एक समारोह में आमन्त्रित कर सम्मानित किया। इस प्रकार के और भी अनेक कार्यक्रम विभिन्न संस्थाओं ने किये किन्तु जो प्रसन्नता, जो आत्म संतोष, जो आनन्द और जो अनुभूति मुझे भूसे का रैक रवाना करते हुए हुई थी वैसी जीवन में फिर कभी नहीं हुई।

माँ

श्यामा सुबह-सुबह नहा-धोकर एक लोटे में जल और डलिया में फूल लेकर मन्दिर चली जा रही थी। यह उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या थी। अचानक उसे किसी शिशु के रोने का स्वर सुनाई दिया। उसने उस ओर देखा जिस ओर से वह आवाज उसे सुनाई दी थी। वहां उसे कोई भी नहीं दिखा पर आवाज आ रही थी। उसके पैर किसी दैवी प्रेरणा से उस ओर मुड़ गए।

मन्दिर के पास की उस खुली जगह में कपड़ों में लिपटा हुआ एक शिशु पड़ा था। आसपास कोई नहीं था। शिशु रो रहा था। श्यामा ने उसे अपनी गोद में उठा लिया। वह उस शिशु की मां की तलाश में इधर-उधर देखने लगी। उसे कोई नहीं दिखा। तब उसके मन में विचार आया कि शायद वे मन्दिर गए हों। उसके गोद में लेने से वह शिशु चुप हो गया था। वह कुछ देर तक उसे गोद में लिये हुए खड़ी रही, पर कोई नहीं आया। जब समय अधिक होने लगा तो वह उसे लेकर मन्दिर के पुजारी के पास गयी।

पण्डित जी यह बच्चा बाहर चबूतरे पर अकेले पड़ा-पड़ा रो रहा था। किसका है? उसने पण्डित जी से पूछा।

पता नहीं बेटी ! अभी तो यहां कोई नहीं आया।

मैं काफी देर से प्रतीक्षा कर रही हूँ। इसे किसको सौंप दूं?

अब अभी तो यहां कोई नहीं है। कुछ देर और ठहर जाओ इसे लाने वाल आ जाए तो उसे सौंप देना। श्यामा फिर काफी देर तक मन्दिर के अन्दर ठहरी रही। उसने उस शिशु को पानी पिलाया। श्यामा को उस शिशु को गोद में लिये हुए एक घण्टे से भी अधिक हो गया था। इस बीच पुजारी का मन्दिर के पट बन्द करने का समय हो गया था। उसने मन्दिर के कपाट बन्द कर दिये थे और वह घर जाने की तैयारी कर चुका था। श्यामा चिन्तित थी। घर पर उसका बेटा अकेला था। वह भी अभी छोटा ही था।

पुजारी जी जब जाने लगे तो श्यामा ने उनसे पूछा कि पण्डित जी इस बच्चे का क्या करुं?

मैं क्या कहूँ? ऐसा करो अभी तो तुम इस बच्चे को अपने ही पास रखो। जब कोई इसे पूछता हुआ आएगा तो मैं उसे तुम्हारे घर भेज दूंगा।

श्यामा उसे बच्चे को घर ले आई।

श्यामा का एक बेटा था सूरज। अभी उसका किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं हुआ था। पति की मृत्यु हो चुकी थी। पति की मृत्यु के बाद श्यामा के सामने उसका और उसके बेटे का भविष्य था। वह अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से पूरा कर रही थी। वह अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी। महिलाओं और बच्चों के कपड़े सिलकर और खाली समय में बड़ी, पापड़ आदि बनाकर उन्हें बेचकर वह अपने दो प्राणियों के परिवार का पालन-पोषण कर रही थी। जब वह उस शिशु को लेकर घर पहुँची तो सूरज ने उससे पूछा- माँ यह कौन है?

श्यामा को समझ में नहीं आया कि एक पांच साल के बच्चे के इस स्वाभाविक जिज्ञासा भरे इस प्रश्न का क्या उत्तर दे। उसने उसे संतुष्ट करने की दृष्टि से कह दिया तुम्हारी छोटी बहिन है।

इसका नाम क्या है?

इस प्रश्न का भी कोई उत्तर ष्यामा के पास नहीं था। पर कुछ न कुछ उत्तर तो देना ही था। वह बोल पड़ी- इसका नाम चांदनी है।

सूरज ने आगे कोई और प्रश्न नहीं किया। वह उस नन्हीं सी गुड़िया जैसी चांदनी से खेलने लगा। श्यामा भी उसे सूरज के पास खेलता छोड़कर घर के काम करने लगी।

संध्या के समय श्यामा फिर मन्दिर गयी और उसने पुजारी से बात की। उस शिशु को लेने कोई नहीं आया था। श्यामा चिन्तित हो गई। वह उस शिशु को लावारिस छोड़ नहीं सकती थी और उसके माता-पिता का कोई अता-पता नहीं था।

अनेक दिनों तक श्यामा उसके माता-पिता को तलाशने का प्रयास करती रही पर उनका कोई पता नहीं चल सका। इस बीच चांदनी उसके घर की ही सदस्य बन चुकी थी। धीरे-धीरे उसने चांदनी के माता-पिता की खोज बन्द कर दी। इस नये शिशु के आ जाने से अब वे तीन हो चुके थे। श्यामा उसे प्यार से चांदनी कहकर पुकारती थी।

श्यामा और सूरज उस नन्हीं सी जान को पूरी तरह अपना चुके थे। जिस स्नेह से श्यामा उसका पालन पोषण कर रही थी उतनी ही आत्मीयता के साथ सूरज उसे खिलाता और उसके साथ खेलता था। जब सूरज पाठशाला जाने लगा तो चांदनी भी उसके साथ जाने की जिद करती किन्तु अभी वह बहुत छोटी थी। जब सूरज के पाठशाला से आने का समय होता तो चांदनी उसकी प्रतीक्षा करती। समय के साथ श्यामा यह पूरी तरह भूल चुकी थी कि चांदनी उसकी अपनी नहीं किसी और की संतान है।

समय बहुत तेजी से बीतता रहा। चांदनी भी पाठशाला जाने लगी थी। सूरज और चांदनी दोनों होनहार थे। वे सिर्फ अपनी मां के ही नहीं बल्कि सभी के प्रिय थे और श्यामा को उन पर गर्व था। उसने उन दोनों को उच्च शिक्षा दिलवाई और अच्छे संस्कार दिये।

सूरज को अमेरिका की एक कम्पनी में अच्छे पद पर काम मिल गया। जब वह अपने भविष्य और अपनी मां से बिछोह की दुविधा में था उस समय श्यामा और चांदनी ने उसे दुविधा से मुक्त कराया और उसे अमेरिका जाने की प्रेरणा दी थी। वह अमेरिका चला गया। वहां से वह अपनी माँ और बहिन के लिये रूपये आदि भी भेजता था और उनका लगातार खयाल भी रखता था। कुछ समय बाद उसकी मित्रता एक अमेरिकन लड़की से हो गई। माँ और बहिन की रजामन्दी के साथ ही वह सूरज की जीवन संगिनी बन गई और वह अमेरिका में ही बस गया।

चांदनी यहां एक स्कूल में शिक्षिका हो गई थी। वह मां का पूरा ध्यान रखती और उसकी सेवा करती थी। श्यामा के जीवन में अब कोई अभाव नहीं था। सुख, संतोष और शान्ति से उसका जीवन चल रहा था पर उम्र बढ़ रही थी। उम्र ने अपना प्रभाव दिखाया और वह बीमार हो गई। चांदनी उसकी पूरी देखभाल और इलाज करा रही थी। मां की बीमारी से सूरज भी विचलित था। वह अमेरिका से छुट्टियां लेकर भागा-भागा मां के पास आया। वह मां और बहिन को अपने साथ अमेरिका ले जाना चाहता था लेकिन वे दोनों राजी नहीं हुए। जब उसका समय पूरा हो गया तो उसे अकेले ही वापिस जाना पड़ा।

चांदनी मां की देखभाल करती रही पर मां की हालत दिनांेदिन खराब होती जा रही थी और एक दिन वह इस दुनियां को छोड़कर चली गई। जाने से पहले उसने चांदनी को बतला दिया कि चांदनी को जन्म देने वाली वह नहीं कोई और मां है। वह तो सिर्फ पालने वाली मां है। चांदनी ने सूरज की अनुपस्थिति में मां का अन्तिम संस्कार किया। जब सूरज वापिस आया तब तक उसकी मां पंचतत्व में विलीन हो चुकी थी।

भाई-बहिन ने मिलकर मां का अंतिम संस्कार किया। फिर सूरज के वापिस पश्चिम में जाने का समय हो गया। उसके कुछ पहले एक दिन अवसर देखकर चांदनी ने सूरज से कहा-

भैया! मां के कुछ जेवर मेरे पास रखे हैं। जाने से पहले आप वे लेकर सुरक्षित रख लेना।

वे जेवर तुम्हीं रखे रहो।

वे तो आपके हैं।

हां ! मेरे हैं तब भी उनको तुम्हीं रखे रहो।

आपको पता नहीं है। मां ने एक दिन मुझे मेरे इस घर में आने की कथा बताई थी।

सूरज बीच में ही बोल पड़ा- तुझे मां ने बताई थी और मैंने अपनी आंखों से देखी थी और तुम जो सोच रही हो वह भी मैं समझता हँू। घर जैसा है वैसा ही रहेगा जो यहां है वह यहां ऐसा ही रहेगा और तुम जैसे इस घर में रह रही हो वैसे ही रहोगी। मैं कुछ लेने या ले जाने वाला नहीं हूँ।

सूरज चांदनी से बड़ा था। चांदनी उसका अदब और सम्मान करती थी। दोनों में अटूट स्नेह था। उसकी वह स्नेह और अधिकार युक्त बात सुनकर चांदनी मौन रह गई। वह सूरज से कुछ न कह सकी लेकिन उसके मन में यह बात घर कर गई थी कि उसे जन्म देने वालों ने उसे लावारिस छोड़ दिया था। उसे बार-बार यह लगता था कि उसे मां की सारी पूंजी उसके बेटे सूरज को दे देना चाहिये। यह उसी की है पर सूरज की बात काटना भी उसके लिये संभव नहीं था। वह जानती थी कि आज दुनियां में अगर कोई उसका है तो वह सूरज ही है और वह यह भी जानती थी कि सूरज उसे बहुत चाहता है। वह अपनी छौटी बहिन के लिये कुछ भी कर सकता है।

अगले दिन चांदनी ने फिर समय देखकर सूरज से कहा- भैया! मैं सोच रही थी कि मां के नाम से एक आश्रम बना दिया जाए जहां अनाथ बच्चों को सहारा मिले और उनके जीवन को संवारा जाए।

सूरज नादान नहीं था। वह चांदनी के मन की बात समझ गया। उसे यह भी समझ में आ गया कि चांदनी ऐसा क्यों कह रही है। वह कुछ पल मौन रहा और फिर उसने उसे अपनी सहमति दे दी।

सूरज ने अपने पुराने घर में मां की पूंजी में अपनी ओर से भी कुछ धन लगाकर उस घर में मां के नाम से एक आश्रम खोल दिया। वह आश्रम अनाथ बच्चों को संरक्षण देने उनका पालन पोषण करने और उनके जीवन को संवारने के लिये खोला गया। इसके कारण सूरज को कुछ दिन और भारत में रूकना पड़ा। जब यह काम पूरा हो गया तो वह उस आश्रम की जवाबदारी चांदनी को सौंपकर वापिस अमेरिका चला गया।

चांदनी उस आश्रम की संचालिका थी। एक समय वह स्वयं अनाथ थी किन्तु आज वह दूसरे अनाथों की नाथ थी और उन्हें जीवन दान दे रही थी।

मित्रता

कुसनेर और मोहनियां एक-दूसरे से लगे हुए जबलपुर के पास के दो गांव हैं। कुसनेर के अभयसिंह और मोहनियां के मकसूद के बीच बचपन से ही घनिष्ठ मित्रता थी। वे बचपन से साथ-साथ खेले-कूदे और पले बढ़े थे। अभय सिंह की थोड़ी सी खेती थी जिससे उसके परिवार का गुजारा भली-भांति चल जाता था। मकसूद का जबलपुरिया साड़ियों का और सूत का थोक का व्यापार था। उसके पास खेती की काफी जमीन थी। खुदा का दिया हुआ सब कुछ था। वह एक संतुष्टि पूर्ण जीवन जी रहा था।

अभय सिंह की एक पुत्री थी। पुत्री जब छोटी थी तभी उसकी पत्नी का निधन हो गया था। उसने अपनी पुत्री को मां और पिता दोनों का स्नेह देकर पाला था। उसे अच्छी शिक्षा दी थी। वह एम. ए. कर चुकी थी। अब अभय सिंह को उसके विवाह की चिन्ता सताती रहती थी। अथक प्रयासों के बाद उसे एक ऐसा वर मिला जो उसकी पुत्री के सर्वथा अनुकूल था। अच्छा घर और अच्छा वर मिल जाने से अभय सिंह बहुत खुश था। लेकिन अभय सिंह के पास इतना पैसा नहीं था कि वह उसका विवाह भली-भांति कर सके। उसे चिन्ता उसके विवाह के लिये धन की व्यवस्था की थी। जब विवाह के लिये वह पर्याप्त धन नहीं जुटा सका तो उसने सोचा- मेरा क्या है मेरे पास जो कुछ है वह मेरी बेटी का ही तो है। ऐसा विचार कर उसने अपनी कुछ जमीन बेचने का निश्चय किया।

मकसूद का इकलौता पुत्र था सलीम। उसका विवाह हो चुका था। सलीम का एक छोटा चार साल का बच्चा भी था। पुत्री के विवाह के लिये जब अभय सिंह ने अपनी जमीन बेचने के लिये लोगों से चर्चा की तो बात सलीम तक और सलीम के माध्यम से मकसूद तक भी पहुँची। मकसूद को जब यह पता लगा कि अभय सिंह बेटी के विवाह के लिये अपनी जमीन बेच रहा है तो यह बात उसे अच्छी नहीं लगी। एक दिन वह अभय के घर गया। सलाम-दुआ के बाद उनमें बातचीत होने लगी।

सुना है बिटिया का विवाह तय हो गया है।

हाँ! मण्डला के पास का परिवार है। लड़के के पिता अच्छे और प्रतिष्ठित किसान हैं। लड़का पढ़ा लिखा है पिता के साथ खेती भी देखता है। एक इलैक्ट्रानिक्स की अच्छी दुकान भी मण्डला में है जिसे पिता-पुत्र मिलकर चलाते हैं। सुमन बिटिया के भाग्य खुल गये हैं। उस घर में जाएगी तो जीवन संवर जाएगा और मैं भी चैन से आंख मूंद सकूंगा।

शादी की तैयारियों के क्या हाल हैं?

वैसे तो मैंने सभी तैयारियां अपने हिसाब से कर रखी थीं। लेकिन उन लोगों की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर कुछ और तैयारियों की आवश्यकता थी। मैंने सोचा कि मेरे बाद मेरा सभी कुछ सुमन का ही तो है। मेरे पास आठ एकड़ जमीन है अगर उसमें से चार एकड़ निकाल दूंगा तो इतनी रकम मिल जाएगी कि सभी काम आनन्द से हो जाएंगे। बाकी बचेगी चार एकड़ तो मेरे अकेले के गुजारे के लिये वह काफी है।

यह जमीन बेचकर तुम्हारे अनुमान से तुम्हें लगभग कितना रूपया मिल जाएगा।

एक से सवा लाख रूपये एकड़ के भाव से तो जाएगी ही। लगभग चार पांच लाख रूपया तो मिल ही जाएगा। इतने में सारी व्यवस्था हो जाएगी।

तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया कि न तो तुमने मुझे यह बताया कि सुमन का विवाह तय हो गया है और न ही तुमने मुझे यह बताया कि तुम अपनी जमीन बेच रहे हो। क्या तुम पर और सुमन पर मेरा कोई अख्तियार नहीं है ? क्या वह मेरी भी बेटी नहीं है ?

ऐसी तो कोई बात नहीं है। मैंने सोचा कि जब तुम्हारे पास जाउंगा तो सब कुछ बता दूंगा पर अभी बोनी आदि का समय होने के कारण मैं उस तरफ नहीं निकल पाया। वरना तुम्हें बिना बताये तो आज तक मैंने कोई काम किया ही नहीं है ?

तब फिर जमीन बेचने का निश्चय तुमने मुझसे पूछे बिना कैसे कर लिया मेरे रहते तुम बेटी की शादी के लिये जमीन बेचो यह मुझे कैसे स्वीकार होगा। अब रही बात रूपयों की तो वे तुम्हें जब तुम चाहोगे तब मिल जाएंगे। जमीन बेचने का विचार मन से निकाल दो और बेटी की शादी की तैयारी करो। इतना कहकर मकसूद वहां से चला गया।

उनकी मित्रता ऐसी थी कि अभय कुछ न कह सका। वह तैयारियों में जुट गया। उसने जमीन बेचने का विचार यह सोचकर त्याग दिया कि बाद में जब भी जरुरत होगी तो वह या तो जमीन मकसूद को दे देगा या उसके रूपये धीरे-धीरे लौटा देगा।

विवाह के कुछ दिन पहले मकसूद का संदेशा अभय के पास आया कि मेरी तबियत इन दिनों कुछ खराब चल रही है। तुम शीघ्र ही मुझसे आकर मिलो। उस दिन रात बहुत हो चुकी थी इसलिये अभय नहीं जा सका। मकसूद की बीमारी की खबर सुनकर वह विचलित हो गया था। दूसरे दिन सबेरे-सबेरे वह घर से मकसूद के यहां जाने को निकल पड़ा। अभी वह मोहनियां तक पहुंचा भी नहीं था कि उस ओर से आ रहे एक गांववासी ने उसे देखा तो बतलाया कि मकसूद का स्वास्थ्य रात को अधिक खराब हो गया था और उसे जबलपुर में मेडिकल कालेज ले जाया गया है।

यह सुनकर अभय ने उस व्यक्ति से कहा कि गांव में वह उसकी बेटी को बतला दे कि वह जबलपुर जा रहा है मकसूद चाचा की तबियत खराब है और वहां से अभय सीधा जबलपुर की ओर चल दिया। जब वह मेडिकल कालेज पहुँचा तो मकसूद इस दुनियां को छोड़कर जा चुका था।

अभय ने सलीम, सलीम की मां और उसकी पत्नी को सांत्वना दी। वह उनके साथ गांव वापिस जाने की तैयारियां करने लगा। उसके ऊपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा था। एक ओर उसका सगे भाई से भी बढ़कर मित्र बिछुड़ गया था और दूसरी ओर उसे बेटी के हाथ पीले करना थे।

मकसूद को सुपुर्दे खाक करने के बाद अभय गांव वापिस आ गया। अगले दिन सबेरे-सबेरे मोहनियां से एक आदमी आया और उसने अभय से कहा कि उसे भाभी जान ने बुलाया है। अभय भारी मन से मोहनियां गया। वहां जाकर वह मकसूद के यहां सलीम के पास बैठा। सलीम बहुत दुखी था। अभय सिंह बड़े होने के नाते उसे सान्त्वना देता रहा जबकि वह स्वयं भी बहुत दुखी था। कुछ देर बाद ही सलीम की मां उदास चेहरे का साथ वहां आईं। उनकी आंखें सूजी हुई थीं। उन्हें देखकर अभय सिंह की आंखों से भी आंसू का झरना फूट पड़ा। कुछ देर बाद जब उनके आंसू थमे तो कुछ बातें हुई। उसी समय अभय सिंह ने विदा मांगी। तभी सलीम की मां ने एक लिफाफा अभय की ओर बढ़ाया। वे बोलीं- तीन-चार दिन से इनकी तबियत खराब चल रही थी। परसों जब उन्हें कुछ अहसास हुआ तो उन्होंने यह लिफाफा मुझे दिया था और कहा था कि यह आपको को देना है। अगर मैं भूल जाउं तो तुम उसे याद से दे देना।

अभय ने उस बन्द लिफाफे को उनके सामने ही खोला। उसमें पांच लाख रूपये और एक पत्र था। अभय उस पत्र को पढ़ने लगा। पत्र पढ़ते-पढ़ते उसकी आंखों से टप-टप आंसू टपकने लगे। उसकी हिचकियां बंध गई और गला रूंध गया। सलीम ने वह पत्र अभय के हाथ से ले लिया और हल्की आवाज में पढ़ने लगा-

प्रिय अभय, तुम्हारे जमीन बेचने के निर्णय से मैं बहुत दुखी हुआ था। लेकिन मेरे प्रस्ताव को जब तुमने बिना किसी हील-हुज्जत के मान लिया तो मेरा सारा दुख चला गया। हम दोनों मिलकर सुमन को विदा करें यह मेरी बहुत पुरानी अभिलाषा थी। मुझे पता है कि भाभी जान के न होने के कारण तुम कन्या दान नहीं ले सकते हो इसलिये मैंने निश्चय किया था कि सुमन का कन्यादान मैं और तुम्हारी भाभी लेंगे। लेकिन कल से मेरी तबियत बहुत तेजी से खराब हो रही है और न जाने क्यों मुझे लग रहा है कि मैं सुमन की शादी नहीं देख पाउंगा। पांच लाख रूपये रख जा रहा हूँ। उसका विवाह धूम-धाम से करना। तुम्हारा- मकसूद

पत्र समाप्त होते-होते वहां सभी की आंखों से आंसू बह रहे थे। उसने भाभी जान से कहा-

भाभी जान! आज मकसूद भाई होते तो ये रूपयों को लेने में मुझे कोई गुरेज नहीं था लेकिन आज जब वे नहीं रहे तो इन रूपयों को लेना मुझे उचित नहीं लग रहा है। इसलिये मेरी प्रार्थना है कि ये रूपये आप वापिस रख लीजिए।

भाभी जान की रूलाई रूक गई। वे बोलीं- भाई साब अब हमारे पास बचा ही क्या है। उनके जाने के बाद अगर हम उनकी एक मुराद भी पूरी न कर सके तो वे हमें कभी माफ नहीं करेंगे। खुदा भी हमें माफ नहीं करेगा।

तभी सलीम बोला- चाचाजान आप नाहक को सोच विचार में पड़े हैं। दुनियां का नियम है आना और जाना। हम सब मिलकर सुमन का विवाह करेंगे। वह मेरी भी तो छोटी बहिन है। मैं उसके लिये बड़े भाई के भी सारे फर्ज पूरे करुंगा और अब्बा की ख्वाहिश भी पूरी करुंगा। आप ये रूपये रख लीजिये और अगर और भी आवश्यकता होगी तो हम वह भी पूरी करेंगे।

सुमन का विवाह नियत समय पर हुआ। सलीम ने उसके भाई की सारी रस्में भी पूरी कीं और अपनी पत्नी के साथ उसका कन्यादान भी किया। आज भी लोग उस विवाह को याद कर उनकी मित्रता की मिसाल देते हैं।

कलाकार

मोहनसिंह बचपन से ही कलात्मक अभिरूचि का था और दूसरों की नकल करना उसका प्रमुख खेल था। जब वह पाठशाला जाने लगा तो उसके शिक्षकों ने उसके इस गुण को पहचाना और वह विभिन्न स्कूल में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में भाग लेने लगा। उच्च कक्षाओं तक पहुँचते-पहुँचते वह एक अभिनेता के रुप में अपनी बस्ती और अपने महाविद्यालय में लोकप्रिय हो चुका था।

उसका महाविद्यालय उसके गांव से अधिक दूर नहीं था। एक बार उसके गांव से दूर की एक बस्ती से एक सज्जन उसके महाविद्यालय में आमंत्रित किए गए। उनका नाम था रासबिहारी शास्त्री और उन्हें सम्मान के साथ शास्त्री जी कहकर पुकारते थे। वे मोहन का अभिनय देख कर बहुत प्रभावित हुए। वे एक निर्देशक थे। विभिन्न नाटक तैयार करना और उनका मंचन करना उनका शौक भी था और वे काम भी यही करते थे। उनका जीवन रंगमंच को ही समर्पित था। धन-सम्पत्ति तो उनके पास अधिक नहीं थी पर वे अपना काम पूरे समर्पण के साथ करते थे। उन्होंने मोहन को अपने पास बुलाया और अपने साथ जोड़ लिया।

एक बार शास्त्री जी के एक नाटक तैयार किया। नाटक का नाम था कालनेमि के पुतले। उसमें मोहन को एक साधु का अभिनय करना था। शास्त्री जी ने उस नाटक पर बहुत परिश्रम किया। उसका प्रदर्शन बनारस में होना था। अपने अभिनय को श्रेष्ठ बनाने के लिये मोहन ने भी खूब परिश्रम किया। उसने अपने पात्र को जीवन्त बनाने के लिये अपने बाल और दाढ़ी-मूंछ भी बढ़ा लिये। उसकी वेशभूषा, उसके अभिनय और उसकी संवाद शैली ने सभी को बहुत प्रभावित किया। वह उस नाटक का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुना गया।

बनारस के पास ही एक बस्ती थी रामपुर। शिवदयाल जी रामपुर के प्रतिष्ठित व्यक्ति

थे। वे उस नाटक से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शास्त्री जी से अपनी रामपुर में भी उस नाटक का मंचन करने का अनुरोध किया। उन्होंने आवश्यक पारिश्रमिक देने और सारी व्यवस्थाएं करने का भी वचन दिया। शास्त्री जी भी सहमत हो गए।

रामपुर में जहां सारे कलाकारों को ठहराया गया था वह स्थान बस्ती से लगभग दो-तीन किलोमीटर दूर था। नियत समय पर नाटक का मंचन हुआ और उसकी बहुत सराहना हुई। स्थानीय कलाकारों के कार्यक्रम और नाटक का मंचन पूरी रात चला। सुबह के लगभग साढ़े चार बजे कार्यक्रम का समापन हुआ। मोहन सिंह यह सोचकर कि सुबह का टहलना भी हो जाएगा, कार्यक्रम स्थल से पैदल ही उस स्थान की ओर चल पड़ा, जहां उन्हें ठहराया गया था। बीच में एक छोटा सा गांव था।

जब वह उस गांव के पास से गुजर रहा था तभी तालाब से नहाकर निकलते हुए कुछ लोगों की दृष्टि उस पर पड़ी। वे उसे कोई सन्त समझ बैठे। उन्होंने आकर उसके पैर छुए। मोहन ने भी अपनी अभिनय कला का प्रयोग करते हुए उन्हें आशीर्वाद दिया। इसके बाद उनके और मोहन के बीच वार्तालाप प्रारम्भ हो गया।

मोहन एक शिक्षित युवक था। उसके चेहरे पर यौवन और सदाचार का तेज था। उसकी वाणी में सन्तों सा गाम्भीर्य था। वह निश्छल प्रकृति का था इसलिये उसके स्वर में निश्छलता और आत्मीयता थी। वे उससे बहुत प्रभावित हुए। वे लोग भी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्हें लगा कि सुबह-सुबह एक सन्त के दर्शनों और उनके सानिध्य का लाभ प्राप्त हुआ है। वे उससे गांव चलने और कुछ देर ठहरने का आग्रह करने लगे। उनका भोलापन और उनकी आत्मीयता देखकर मोहन उनके आग्रह को नहीं ठुकरा सका। वह उनके साथ गांव में चला गया।

जिन सज्जन के साथ मोहन उनके घर गया था उन्हीं के यहां मोहन के दैनिक कर्मों से निवृत्त होने की व्यवस्था कर दी गई थी। जब तक वह तैयार हुआ तब तक उनके दहलान में गांव वालों का मजमा जुड़ चुका था। पूरे गांव में यह समाचार फैल चुका था कि एक पहुँचे हुए सन्त का गांव में आगमन हुआ है।

अब तक सुबह हो गयी थी। चारों ओर प्रकाश फैलने लगा था। गांव के और भी लोग निकलने लगे थे। कुछ उसके पैर पड़कर आगे बढ़ गए तो कुछ वहीं उसके पास ठहर गये। जो लोग उसे गांव लेकर आये थे वे उसके लिये जलपान आदि ले आए। मोहन ने जलपान किया। मोहन गांव वालों की सहजता पर मुग्ध था। उसे वह सब अच्छा लग रहा था। गांव वालों की प्रसन्नता और अपने ऊपर उनकी श्रद्धा और विश्वास के कारण वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार कर रहा था जैसा कि कोई पहुँचा हुआ सन्त करता है।

गांव वालों के अनुरोध पर उसने गांव वालों को जीवन के यथार्थ को समझाया। वह पीड़ा से पीड़ित हुआ और हो गया असहाय। अब उसे चाहिये कोई बने उसका सहाय। सहाय भी एक दिन हो गया असहाय। अब उसे भी चाहिए कोई दूसरा सहाय। जीवन का क्रम बस ऐसा ही चलता जाय।

इस प्रकार के प्रवचन देता हुआ वह वहां पर तीन दिन रहा। इस बीच दिन भर लोगों का आना-जाना लगा रहता। उसे तरह-तरह की भेंट चढ़ाई जाती। जो फल-फूल मिठाई आदि आती उसे तो वह गांव वालों में ही बांट देता था। जो पैसा चढ़ाया जाता वह उसे रखता जाता था। तीन दिन बाद उसने वहां से जाने का निश्चय किया। उसने अनुभव किया कि गांव में पीने के पानी की समस्या है। लोग पास की नदी का पानी लाकर पीते हैं। उसी नदी में जानवर भी नहाते और उसी में गांव वाले भी नहाते और कपड़े आदि धोते हैं। जिस दिन वह वहां से चलने लगा तो उसने गांव वालों को समझाया और इन तीन दिन में जो भी धन राशि उसे प्राप्त हुई थी वह उन्हें देकर उसने उन्हें गांव में एक कुआं खोदने के लिये प्रेरित किया। लोग उसकी बातों से और भी अधिक प्रभावित हुए। कुएं की खुदाई प्रारम्भ कराके वह उस बस्ती पर अपनी अमिट छाप छोड़ते हुए वहां से चला गया।

बटवारा

नागपुर में सेठ करोड़ीमल नाम के एक बड़े उद्योगपति रहते थे। उनके पास खेती की काफी जमीन भी थी। पत्नी का देहान्त हो चुका था। अब परिवार में उनके अलावा उनके तीन पुत्र रमेश, महेश और उमेश व उनकी पत्नियां और बच्चे थे। उनका भरा-पूरा परिवार सुख से रह रहा था। सेठजी के एक मित्र थे राजीव। राजीव स्वयं बहुत बड़ी सम्पत्ति के मालिक एवं उद्योगपति भी थे। उन्होंने एक दिन सेठ जी को सलाह दी कि आपकी उम्र सत्तर के आसपास हो गई है, इसलिये आपको अपने सामने ही अपनी संपत्ति का बटवारा तीनों पुत्रों के बीच कर देना चाहिए। अभी सभी के बीच प्रेम है और यह काम आसानी से खुशी-खुशी निपट सकता है। सेठ जी को यह सुझाव अच्छा लगा। वे बोले- तुम ठीक कह रहे हो। मैं भी कुछ दिनों से यही सोच रहा था। मैं चाहता हूँ कि इस काम में तुम भी मेरा साथ दो ताकि यह कार्य बिना किसी व्यवधान के राजीखुशी से हो जाए।

मुझे सहयोग देने में कोई एतराज नहीं है लेकिन मैं मध्यस्थ के रुप में नहीं वरन एक सहयोगी और सलाहकार के रुप में ही सहयोग कर सकूंगा। किसी भी विवादास्पद स्थिति में मेरा यही प्रयास होगा कि उसे आपस में सलाह करके सुलझाया जाय।

बिलकुल ठीक है मैं भी यही चाहता हूँ। जीवन में जटिलताएं और व्यस्तताएं बढ़ती जा रही हैं। आज के वातावरण में संयुक्त परिवार का संचालन कठिन होता जा रहा है। जब समृद्धि आती है तो बटवारा जन्म लेता है। आपस में मतभेद होने के पहले ही बटवारे को कर देना चाहिए। ताकि आपस में मनभेद न हो पाये। पारिवारिक शान्ति और सद्भाव के लिये यह आवश्यक भी है।

आपस में समस्याएं हल नहीं होने पर बात न्यायालयों में जाती है जहां कीमती समय बर्बाद होता है। आपसी खटपट होने से पारिवारिक उद्योग और व्यापार भी प्रभावित होता है। यदि बटवारा सही समय पर कर दिया जाए तो पारिवारिक विवाद नहीं पनपता और पारिवारिक एकता कायम रहती है।

सेठ जी अपने तीनों पुत्रों और पुत्र वधुओं को बुलाकर बतलाया कि वे नहीं चाहते कि उनके न रहने पर उनके पुत्र आपस में लड़े-भिड़ें या दूर-दूर रहें। वे चाहते हैं कि उनमें सदैव वैसा ही प्रेम और एकता कायम रहे जैसी आज है। इसके लिये आवश्यक है कि मैं अपनी सम्पत्ति का बटवारा तुम तीनों के बीच कर दूं। इस काम में राजीव काका भी सहयोग कर रहे हैं। सभी लोग इस पर सहमत हो गये।

राजीव ने उन सब से कहा कि बटवारा मूल भूत तीन सिद्धांतों पर आधारित होता है। इसे ईमानदारी, नीतिसंगतता एवं सच्चाई पर आधारित होना चाहिए। ईश्वर को साक्षी मानकर ही चल-अचल संपत्ति बांटी जाए। किसी के भी मन में पीड़ा नहीं होना चाहिए। यदि आप लोग मेरी बातों से सहमत हों और इसे लिखित में दें तो मैं आगे आपके साथ सहयोग करके इसे करने का प्रयास करुं। वरना मेरा समय देना व्यर्थ है।

तीनों भाई अपनी सहमति लिखित रुप में दे देते हैं। जैसे ही यह बात मुनीमों और अन्य कर्मचारियों को पता होती है वैसे ही तीनों के हितैषी आपस में कानाफूसी प्रारम्भ कर देते हैं। राजीव सेठ जी से अनुरोध करता है कि आपके पास जो चल संपत्ति नगद एवं सोना, चांदी व हीरे जवाहरात आदि हों उनकी एक सूची बनाकर उसका बटवारा करके तीनों को उससे अवगत करा दें ताकि आपके बाद उसे वे आपस में उसी प्रकार बांट लें।

सेठ जी ने राजीव की बात से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि मैं अपनी सारी सम्पत्ति तो अभी बांट देना चाहता हूँ किन्तु सोना, चांदी आदि का बटवारा मैं सबसे अन्त में करुंगा। पहले बाकी अचल संपत्ति का बटवारा हो जाने दो। वे राजीव को अलग से समझाते हैं कि अभी मैं सोना-चांदी आदि का बटवारा इसलिये नहीं करना चाहता क्यों कि मैं चाहता हूँ कि वह मेरे पास ही रहे। मैं अपनी अचल सम्पत्ति बांट देना चाहता हूँ ताकि मेरे तीनों बच्चे अपने-अपने हिस्से को संभालें और अपना कामकाज स्वयं देखने लगें। सेठ जी का मुंह लगा मुनीम जो सदैव सेठ जी के साथ रहता था वह भी इन बातों को सुन रहा था।

परिवार में जो भवन आदि थे उनका विभाजन बिना किसी विवाद के हो गया और इसकी लिखा-पढ़ी भी कर ली गई। सेठ जी का सबसे छोटा बेटा उमेश काफी शान्त, सरल और संतोषी प्रवृत्ति का था। एक मुनीम था रघुनाथ जो बचपन से ही उसके प्रति बहुत स्नेह रखता था। रघुनाथ काफी समझदार, अनुभवी और दूरदर्शी था। उसने उमेश को समझाया कि आप अनावश्यक विवाद में न पड़ते हुए सारी खेती की जमीन और पांच करोड़ रूपया लेकर अलग हो जाइये। यद्यपि यह आपके हिस्से से बहुत कम है मगर इससे आप भविष्य में होने वाली बहुत सी परेशानियों और विवादों से बच जाएंगे।

उमेश को रघुनाथ पर बहुत विश्वास था। उसने उसके कहे अनुसार प्रस्ताव रख दिया। उसके प्रस्ताव को सुनकर बाकी दोनो भाई बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि अब उनके हिस्से में पहले से अधिक और महत्वपूर्ण संपत्ति रहेगी।

सेठ जी और उनके बाकी दोनों पुत्र इसे नहीं समझ सके। उस कूटनीतिज्ञ मुनीम ने बड़ी चतुराई से सारी नगद पूंजी अपने छोटे मालिक को दिलवा दी थी। इससे नगद संपत्ति तो पूरी छोटे के हिस्से में चली गई। अब शेष रह गया उद्योग, व्यापार और जेवरात तो जेवरात का बटवारा अभी सेठ जी कर नहीं रहे थे। केवल कारखानों का ही बटवारा करना बचा था। उनके दो कारखाने थे और दोनों के मूल्य में बहुत अन्तर था।

राजीव का सुझाव था कि जिसे कम मूल्य का कारखाना मिल रहा है उसे जेवरात के माध्यम से बराबर कर दिया जाए और उसके बाद जो जेवरात बचें उन्हें सेठजी अपने पास रखें। उनका बंटवारा सेठ जी के बाद हो जाएगा।

सेठ जी इसके लिये सहमत हो गए। अगले दिन बटवारे के लिये सेठ जी ने अपने सारे जेवरात आदि देखने के लिये अपनी तिजोरी खोली तो उनके होश उड़ गए। उनके सारे जेवरात उस तिजोरी से गायब थे। पूरे घर में कोहराम मच गया। सभी एक दूसरे पर अविश्वास और संदेह कर रहे थे। सेठ जी को बहुत गहरा सदमा लगा था। इस सदमें में उन्हें हृदयाघात हो गया। सभी ने बहुत प्रयास किया किन्तु उन्हें नहीं बचाया जा सका। कारखानों का बटवारा खटाई में पड़ गया।

इस स्थिति में दोनों ही भाइयों ने कारखानों की ओर ध्यान देना बन्द कर दिया। कारखानों के अधिकारियों और कर्मचारियों को देखने सुनने वाला कोई नहीं रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही महिनों में लाभ पर चलने वाले वे कारखाने घाटे की स्थिति में आ गये। इससे भी दोनों भाइयों की आंख नहीं खुली। वे कारखानों के बटवारे के विवाद में लगे रहे। धीरे-धीरे स्थिति यह बनी कि घर के आवश्यक खर्चों की पूर्ति भी कठिन होने लगी। ऐसी स्थिति में रघुनाथ ने उन दोनों भाइयों से संपर्क किया। उसने उन्हें सुझाव दिया कि आपका कारखाना घाटे में चल रहा है। आप उसे हमें बेच दीजिए और हमसे नगद रकम ले लीजिये।

रमेश और महेश उसके लिये सहमत हो गये। रघुनाथ इसके लिये उमेश से सहमति लेकर उनसे चर्चा करता है। उन कारखानों का तत्काल में कोई खरीददार भी नहीं था। परिणाम यह हुआ कि रघुनाथ कारखानों को लगभग आधी कीमत पर खरीदना तय कर लेता है। रमेश और महेश भी इसके लिये सहमत हो जाते हैं।

सब कुछ तय हो जाने पर रघुनाथ जब उमेश को इसके विषय में बतलाता है तो उमेश कहता है-

यह ठीक है कि इस समय मेरे दोनों भाई परिस्थिति से मजबूर होकर आधी कीमत पर कारखाने बेचने के लिये तैयार हो गये हैं किन्तु मैं उनकी मजबूरी का फायदा नहीं उठाना चाहता। मैं चाहता हूँ कि कारखानों का जो उचित मूल्य है वह मैं अपने भाइयों को दूं।

इसके लिये वह अपने भाइयों से मिलता है और उनसे बात करता है। उन्हें अपनी इच्छा बतलाता है और कहता है कि इस समय वह दोनों कारखानों का पूरा मूल्य देने की स्थिति में नहीं है। वह उन्हें इस बात के लिये सहमत कर लेता है कि एक भाई को कारखाने के बदले नगद रकम देगा और दूसरे भाई को कारखाने के बदले खेती की जमीन देगा। उसके भाई भी इसके लिये सहमत हो जाते हैं। इस प्रकार यह बटवारा सम्पन्न हो जाता है।

सेठ जी के जो जेवर गायब हो गए थे वे उनके विश्वास पात्र मुनीम ने ही गायब किये थे। वह उन्हें एक साथ बाजार में नहीं बेच सकता था। वह उन्हें एक-एक कर धीरे-धीरे बाजार में बेचकर नगद रकम प्राप्त कर रहा था। उसने समाज को यह बताने के लिये कि धन कहां से आया है। शेयर मार्केट में पैसा लगाना प्रारम्भ कर दिया। वह अचानक धनलाभ बतलाने के चक्कर में जुआ भी खेलने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही समय में उसमें शराबखोरी व वेश्यावृत्ति की भी लत लग गई। इस सबने उसके पैसों को निगलना प्रारम्भ कर दिया।

इन प्रवृत्तियों के कारण उसके परिवार के अन्य सदस्यों में भी अनेक दुर्गुण आ गए। पूरा घर पैसों की बर्बादी में लग गया। कुछ ही समय में स्थिति यह बनी कि चोरी के सारे जेवर आदि तो चले ही गए उसने अपनी मेहनत से जो धन कमाया था वह भी चला गया। उसका पूरा परिवार बर्बाद हो गया।

खण्डहर की दास्तान

नर्मदा के तट पर एक भवन का खण्डहर देखकर एक पर्यटक ने उसके निकट एक झोपड़े में धूनी रमाये बैठे हुए एक सन्त से पूछा- यह खण्डहर ऐसा क्यों पड़ा है?

वे बोले- बहुत समय पहले की बात है, यहां पर मोहन सिंह नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह गरीब था किन्तु ईमानदार, कठोर परिश्रम करने वाला, बुद्धिमान एवं सहृदय था।

वह जो भी अर्जित करता था उसमें से सामने रहने वाले एक अपंग और गरीब व्यक्ति को प्रतिदिन भोजन कराता था। वह स्वयं जाकर उस अपंग को भोजन दिया करता था। वह प्रायः संध्या के समय मेरे पास आकर दिनभर की दिनचर्या बतलाता था और मुझसे सलाह भी लेता रहता था। प्रभु की कृपा से उसकी मेहनत रंग लाई। धीरे-धीरे उस पर लक्ष्मी की कृपा होने लगी। उसके पास धन आने लगा। उसकी आर्थिक स्थिति सुधरने लगी। उसके जीवन में सुख के साधन जुटने लगे। उसने इस सुन्दर भवन का निर्माण कराया और इसे अपना निवास बनाया। वह नर्मदा जी का परम भक्त था। अपने दिन का प्रारम्भ वह नर्मदा जी की स्तुति के साथ करता था। अपनी उन्नति के लिये नर्मदा माँ का आशीर्वाद मांगता था।

उसका एक पुत्र था। उसका स्वभाव अपने पिता से विपरीत था। एक दिन अचानक मोहन सिंह का निधन हो गया। मोहन सिंह के निधन के बाद उसके पुत्र ने उस अपंग व्यक्ति को भोजन देने के लिये अपने नौकर को भेजा। जब वह नौकर उस अपंग के पास भोजन लेकर गया तो उसने भोजन लेने से मना कर दिया और कहा कि इस घर से इतने दिन का दानापानी ही उसके भाग्य में था। मोहन सिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र उसका कामकाज नहीं संभाल सका और धीरे-धीरे जमीन जायदाद सभी कुछ बिक गया। वह गरीबी की हालत में पहुँच गया।

उसकी मित्र मण्डली गलत आदतों की शिकार थी। उनके साथ रहकर उसमें भी जुआ, सट्टा, शराब आदि के सभी व्यसन आ गये। एक दिन वह अधिक शराब के नशे में लड़खड़ता हुआ घर तक पहुँचा किन्तु घर के भीतर न जा सका और दरवाजे पर ही उसकी मृत्यु हो गई। अब उसका कोई वारिस न होने के कारण यह भवन आज खण्डहर में तब्दील हो चुका है। यह खण्डहर इस बात का प्रतीक है कि जहां सद्कर्म होते हैं वहां सृजन होता है और वहां लक्ष्मी व सरस्वती का निवास होता है, किन्तु जहां दुष्कर्म होते हैं वहां न तो सरस्वती रहती है और न लक्ष्मी ठहरती हैं वहां विनाश हो जाता है।

पनघट

मुझे पिछले माह ही राजस्थान के एक कस्बे में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं अपने एक रिश्तेदार की पुत्री के विवाह समारोह में शरीक होने वहां गया था। वहां पर शाम के समय मैं आसपास घूमने के लिये निकल पड़ा। एक स्थान पर पहुँचकर मैं यह देखकर हत्प्रभ रह गया कि आज भी आदमी और आदमी के बीच सवर्ण और निम्न जाति का भेदभाव कितनी गहराई तक बरकरार है। आज भी एक निम्न जाति का व्यक्ति किसी सवर्ण के कुएं से पानी भी नहीं ले सकता। ऐसा ही एक दृष्टांत मेरे सामने था।

एक वृद्ध महिला और उसका पोता एक कुएं के पास खड़े थे। उनकी हालत बहुत दयनीय दिख रही थी। मैंने उन्हें कुछ पैसे देने का प्रयास किया। वह वृद्धा बोली- बाबू जी! भगवान के लिये हमें कुछ पानी पिला दो। मैं और मेरा यह पोता दोनों ही बहुत प्यासे हैं। मैंने उससे कहा कि सामने कुआं है, उसमें रस्सी बाल्टी लगी है, फिर भी तुम प्यासी हो?

वह बोली- बाबू जी वो ऊंची जाति वालों का कुआं है? हम लोग नीच जात हैं, हम उससे पानी नहीं ले सकते।

वह कुलीनों का कुआं था। गरमी का समय था। वह वृद्धा और उसका पोता बहुत प्यासे थे। उनका इतना साहस नहीं था कि वे उस कुएं से खींचकर पानी निकाल लें और अपनी प्यास बुझा लें। वह वृद्धा चाहती थी कि मैं कुएं से पानी निकाल कर उसे दे दूं, क्यों कि मैं सवर्ण हूँ, इसलिये मेरे कुएं से पानी निकालने में कोई बुराई नहीं थी और मेरे द्वारा वह पानी उसे दिये जाने में भी कोई हर्ज नहीं था।

वह नहीं जानती थी कि वहां मैं एक परदेशी था। मैं स्वयं वहां के तौर-तरीकों से परिचित नहीं था। वास्तव में मेरे मन में भी यही झिझक थी। मैं अचंभित भी था कि आज तरक्की के इस दौर में जब सारा संसार एक परिवार बनने की स्थिति की ओर तेजी से बढ़ रहा है उस दौर में हमारे अपने देश में जाति के आधार पर अमानवीय भेदभाव अभी भी सशक्त रुप में बरकरार है।

मैं अनावश्यक रुप से किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता था। मैंने अपने पास रखी पानी की एक बोतल उसे दी। उसने पहले अपने पोते को पानी पिलाया। वह पोते को पानी भी पिला रही थी और मेरे प्रति अपनी विनम्र कृतज्ञता भी ज्ञापित करती जा रही थी। जब पोता तृप्त हो गया तथा उसने और पानी पीने से इन्कार कर दिया तो वृद्धा ने स्वयं पानी पीना प्रारम्भ किया। मैं उसे देखते हुए आगे बढ़ गया।

शाम को विवाह का प्रीति भोज था। जिनके यहां मैं विवाह में गया था वे उस क्षेत्र के प्रतिष्ठित उद्योगपति एवं व्यवसायी थे। वे एक अच्छे मिलनसार और व्यवहार कुशल व्यक्ति थे। विवाह समारोह में सभी वर्गों के लोग आये हुए थे। परिवार के लोग विवाह के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने एवं अतिथियों के आदर सत्कार में व्यस्त थे। लोग अलग-अलग समूहों में बातों में मशगूल थे। मैं जिस समूह में बैठा था उसमें कुछ प्रशासनिक अधिकारी भी बैठे थे। उनसे मेरा परिचय हो चुका था। मैंने उनसे बातों ही बातों में सुबह के वाकये का जिक्र किया।

उनमें से एक जो पुलिस मकहमे से थे वे बोले- यह सब यहां बहुत सामान्य बात है। आप इसे पहली बार देख रहे हैं इसलिये इतने भावुक हो रहे हैं। कानून भावुकता के आधार पर नहीं बल्कि वास्तविकता के आधार पर प्रभावशील होता है। उसकी अपनी सीमाएं हैं। वह हस्तक्षेप कर सकता है किन्तु तभी जब कि कोई घटना या दुर्घटना हो अथवा किसी के द्वारा मामले में हस्तक्षेप के लिये लिखित आवेदन दिया जाए। इसमें भी पुख्ता सबूतों का होना बहुत आवश्यक होता है। किन्तु होता यह है कि यदि किसी कार्यवाही के लिये शासन प्रशासन आगे बढ़ता है तो उसे सामाजिक सहयोग नहीं मिलता। जो पीड़ित या प्रताड़ित है वह भी प्रशासन का साथ दने से मुकर जाता है। वैसे यह समस्या कानूनी समस्या कम है और सामाजिक समस्या अधिक है इसीलिये इसका समाधान भी कानून और दण्ड के माध्यम से कारगर रुप में नहीं किया जा सकता। इसके लिये सामाजिक प्रयास आवश्यक हैं। समाज में विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में जो लोग शीर्ष पर बैठे हैं वे यदि प्रयास करना प्रारम्भ करें तो हालातों में सुधार हो सकता है। उदाहरण के लिये हमारे धर्मगुरु, गैर राजनैतिक रुप से समाज के उत्थान में लगे हुए हमारे सामाजिक विद्वान आदि यदि इस दिशा में प्रयास करें तो ऐसा नहीं है कि यह परिवर्तन नहीं आ सकता और इन लज्जाजनक स्थितियों से बाहर नहीं आया जा सकता। आप स्वयं जिसकी चर्चा कर रहे हैं यदि आप उससे बात करेंगे तो वह भी इस घटना से मुकर जाएगी।

मुझे उनकी बातों पर संदेह था। मुझे लगा कि वे भी भावावेश में अपनी बात की पुष्टि के लिये उस वृद्धा का सहारा लेने का प्रयास कर रहे हैं। मैंने उनकी बात से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि- ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने उसकी आंखों में विवशता, दीनता और फिर कृतज्ञता भी देखी है। मेरा विश्वास है कि वह इस सच्चाई को डंके की चोट पर बतलाएगी।

उन्होंने मुझसे पूछा कि वह मुझे कहाँ मिली थी। मेरे बतलाने पर वे बोले यह जगह तो पास में ही है। अभी यहां का कार्यक्रम प्रारम्भ होने में समय है, चलिए हम चलते हैं। यदि वह वृद्धा मिल जाएगी तो उससे भी बात कर लेंगे। वरना टहलना हो जाएगा।

हम लोग पैदल ही उस ओर चल दिये जहां वह मुझे सुबह मिली थी। दैवयोग से जब हम वहां पहुँचे तो वह वहीं थी। मैंने पहले उस वृद्धा का अभिवादन किया और फिर पूछा- अम्मां पहचाना मुझे? मैं सुबह आपको पानी की बोतल दे गया था।

मेरी बात के उत्तर में उसके मुंह से मेरे लिये दुआएं निकलने लगीं। यह देखकर मेरे साथ आये वे अधिकारी इतना तो समझ ही गये कि मैंने उनसे जो कुछ कहा था वह सच था। अब उन्होंने उसे वृद्धा से पूछा- माता जी वह कुआं कहां है?

वृद्धा ने हाथ के इशारे से बतलाते हुए कहा- वह रहा।

उन्होंने फिर पूछा- वह किसका कुआं है?

उसने फिर जवाब दिया- गांव के क्षत्रियों और ब्राम्हणों का है। हमारे पुरखे बताते रहे कि यह कुआं पूरे गांव ने मिलकर बनवाया था। पर इस पर ऊंची जात वालों ने अपना हक जमा लिया तब हम नीची जात वालों ने अपने लिये एक नया कुआं खोदा। उन्हें वह कुआं गांव में नहीं खोदने दिया गया। वह गांव के बाहर दूर पर खोदा गया। गांव की सारी गंदगी और गंदा पानी उसी ओर बहकर जाता है। पूरा गांव उसी ओर निस्तार के लिये जाता है। हम नीची जात वालों को वहां से पानी भरकर लाना पड़ता है। मेरी उमर अब इतनी नहीं रही कि मैं उतने दूर से पानी भरकर ला सकूं और मेरा यह पोता इतना छोटा है कि यह पानी ला नहीं सकता। चार बरस पहले गांव में महामारी पड़ी थी उसी में इलाज न मिल पाने के कारण इसके मां-बाप मर गये तब से हम दादी पोता अकेले हैं। इसकी उमर अभी कुल छैः साल की है।

उसकी बात सुनकर वे अधिकारी भी कुछ भावुक हो गये थे। अपने स्वर को सामान्य रखते हुए उन्होंने कुुछ धीमें स्वर में उससे कहा- माता जी, कुओं का बंटवारा इस तरह से नहीं किया जा सकता। पानी तो भगवान का वरदान है। मैं यह कुआं सब के लिये खुलवा दूंगा। सब लोग इससे पानी ले सकेंगे। मैं गांव के बाहर वाला कुआं भी साफ करवा दूंगा और वहां की गंदगी दूर करवा दूंगा। वह वृद्धा आश्चर्य से उनकी ओर टुकुर-टुकुर देखने लगी। वे कहे जा रहे थे- लेकिन इसमें तुम्हें हमारी मदद करना पड़ेगी। हम तुम्हारी ओर से शिकायत दर्ज करेंगे और इस कुएं पर जिनका कब्जा है उनसे बात करेंगे यदि वे मान जाते हैं तो ठीक वरना उन पर मुकदमा कायम करेंगे। इसके बाद जब अदालत में इसकी सुनवाई हो तो तुम्हें वहां जज के सामने सब कुछ सच-सच बताना पड़ेगा।

यह सुनते ही उसके चेहरे का भाव बदल गया। वह बोली भैया तुम कहां से आये हो? तुम अपनी बात तुम जानों पर मैं तुम्हारी बात नहीं मान सकती। मुझे इसी पानी में रहना है। मैं मगरमच्छों से बैर नहीं ले सकती। मुझे तो तुम माफ ही कर दो।

अब तक मैं चुपचाप उनका वार्तालाप सुन रहा था। मैंने हस्तक्षेप करते हुए उस वृद्धा से पूछा- अम्मां सच बोलने में तुम्हें किस बात का डर है?

उसने बतलाया- एक बार गांव के एक लड़के की नई-नई शादी हुई थी। उसकी जोरु ने जब यह देखा तो वह पुलिस में शिकायत करने चली गई। पुलिस ने शिकायत तो नहीं लिखी उल्टे जिन लोगों की वह शिकायत करने गई थी उन्हें ही बतला दिया। उन लोगों ने भरे गांव में उसको पति सहित उठवा लिया और फिर उसके पति के सामने ही बहुत से लोगों ने उसका बलात्कार किया। बाद में उसे मारकर फेक दिया। सब कुछ पुलिस के सामने हुआ। पुलिस भी तो उन्हीं की है। अभी मुझे इस लड़के के कुछ काबिल होने तक जीना है। मैं आपका साथ नहीं दे सकती।

वे अधिकारी निरूत्तर थे। मैंने आंख का इशारा किया और हम सब शादी के मण्डप में वापिस आ गये।

बारबाला

जीवन में गरीबी देती है अभाव, चिन्ता और परेशानियां। परन्तु आशा की किरणें, सच्ची लगन और परिश्रम से जीवन संवर जाता है। वाराणसी की तंग गलियों में एक गरीब परिवार में लड़की ने जन्म लिया जिसका नाम माया रखा गया। माता पिता ने अपनी गरीबी के बावजूद उसे हर संभव सुविधा प्रदान करते हुए बारहवीं कक्षा तक की शिक्षा दिलाई थी।

माया काफी सुन्दर, सभ्य एवं चरित्रवान लड़की थी। वह बचपन से ही अपनी कक्षाओं में अव्वल आती थी। उसमें शास्त्रीय संगीत और नृत्य के प्रति बचपन से ही लगाव था। उसमें जीवन में कुछ करके ख्याति पाने की लालसा थी। वह परिवार के अभावों से भी परिचित थी।

उसकी एक बचपन की सहेली थी प्रेमा। वह मुम्बई में काम करती थी और प्रतिमाह अपने परिवार को काफी रूपये भेजती थी और साथ ही साथ वहां पर अध्ययन भी कर रही थी। वह सावन के महिने में अपने घर आयी हुई थी।

एक दिन माया उसके साथ बैठी थी। तभी प्रेमा ने उससे पूछा- अब आगे तुम क्या करने वाली हो?

मैं पुलिस में जाना चाहती हूँ। उसके लिये ग्रेजुएशन करना है लेकिन घर की हालत तो तुम जानती ही हो। घर वाले तो चाहते हैं कि मेरा विवाह कर दें और अपनी जवाबदारी से मुक्त हो जाएं।

वे ठीक ही तो सोचते हैं। आखिर एक दिन तो विवाह करके घर बसाना ही है।

वो तो ठीक है लेकिन मुझे लगता है कि जिन माता-पिता ने इतनी मुसीबतों से मेरा पालन-पोषण किया और मुझे पढ़ाया लिखाया उनके प्रति मेरा भी तो कुछ कर्तव्य है। फिर यदि आज मेरा कोई भाई होता तो सोचती कि वह उनकी देखरेख करेगा। मेरे अलावा उनका कौन है?

तो क्या जीवन भर कुंवारी रहोगी?

नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं सोचती हूँ कि कोई काम करके उनको सहारा दूं और अपने दम पर आगे पढ़ाई करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करुं।

तुम क्या करना चाहती हो?

यही तो समझ में नहीं आ रहा है। आखिर तुम भी तो यहां से इतनी दूर मुम्बई जाकर काम कर रही हो।

प्रेमा ने उसे बतलाया कि वह मुम्बई में बारबाला के रुप में काम कर रही है। इस काम में पैसा तो मिलता है पर सम्मान नहीं मिल पाता। ऐसा नहीं है कि सभी बारबालाएं अपने तन का सौदा करती हैं। पर कुछ हैं जो अपने तन का सौदा करने लगती हैं। उनके कारण ही यह काम बदनाम हो गया है।

उनमें और भी बहुत सी बातें होती रहीं लेकिन कोई निष्कर्ष वे नहीं निकाल सकी थीं।

माया इस प्रयास में लगी थी कि उसे कोई ऐसा काम मिल जाए जिससे वह अपनी पढ़ाई भी जारी रख सके और उसके घर पर भी कुछ मदद हो जाए लेकिन उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। इसी बीच एक दिन अचानक ही उसके पिता को सीने में दर्द हुआ। उसके पिता को हृदयाघात हुआ था। गरीबी के कारण उन्हें समय पर और पूरा उपचार प्राप्त नहीं हो सका और काल के क्रूर हाथों ने माया से उसके पिता को छीन लिया। अब मां अकेली रह गई और परिवार साधन विहीन हो गया।

पिता के निधन के बाद माया पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसकी माँ कुछ करने की स्थिति में नहीं थी, यद्यपि वह पास-पड़ौस में छोटे-मोटे काम कर लिये करती थी लेकिन उससे दोनों मां-बेटी का गुजारा संभव नहीं था। माया ने परिस्थितियों से समझौता करते हुए मुम्बई जाने का फैसला कर लिया और प्रेमा के पास पहुँच गई। प्रेमा ने उसे अपने पास ही रखा और उसे गम्भीरता पूर्वक समझाया कि यहां पर हम जैसी लड़कियों को आसानी से बारबाला का काम मिल जाता हेै इसमें हमें नृत्य करके आगन्तुकों को रिझाना होता है। उनके जेब से रूपये अपने आप ही बाहर आने लगते हैं। जो कुछ भी प्राप्त होता है उसका आधा बार मालिक को और आधा बारबाला को मिलता है। यहां पर कुछ सभ्य सुसंस्कृत बार मालिक भी हैं जो कि लड़कियों से सिर्फ बारबाला का ही काम लेते हैं, किन्तु कुछ धन लोलुप और गिरे हुए लोग भी होते हैं जो बारबालाओं को वेश्या वृत्ति अपनाने के लिये उकसाते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं।

प्रेमा जानती थी कि माया एक सभ्य लड़की है और वह भी चाहती थी कि माया केवल बारबाला बनकर ही संतुष्ट रहे तथा अन्य असामाजिक गतिविधियों से दूर रहे और बची रहे। प्रेमा उसे एक बार में नौकरी दिलवा देती है। उस बार का मालिक एक बुजुर्ग और सभ्य व्यक्ति था जो साफ-सुथरा काम पसंद करता था। वह इस क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित व्यवसायी था। बार के व्यवसाय में होते हुए भी उसका इतना मान व सम्मान था कि उसके बार पर कभी पुलिस आदि विभागों ने किसी भी प्रकार की जांच आदि की आवश्यकता नहीं समझी थी।

माया मुम्बई में बारबाला के रुप में काम करने लगी थी। उसकी सुन्दरता पर उसके प्रशंसक दीवाने थे और प्रतिदिन उस पर उसके नाम के अनुरुप ही धन की वर्षा करते थे। वह भी उन्हें खुश करने के लिये मुस्कराते हुए अपने हाथों से जाम बनाकर पेश करती थी किन्तु किसी को भी अपने पास नहीं फटकने देती थी। अपने पहनावे के प्रति इतनी सजग रहती थी कि उसके पहनावे से कभी भी किसी भी प्रकार की अश्लीलता नहीं झलकती थी। वह अपनी टैक्सी में ही आती-जाती थी और रात में नौ बजे से ग्यारह बजे तक ही अपनी सेवाएं देती थी।

बार मालिक भी उसके इन गुणों से प्रभावित था और उसका सम्मान करता था। वह जानता था कि माया अपने और अपने परिवार के लिये यह काम कर रही है किन्तु वह किसी भी प्रकार के अनैतिक कार्य में संलग्न होने के लिये तैयार नहीं थी। वह अक्सर उससे उसके परिवार आदि के विषय में बात करता था और धीरे-धीरे वह उसके और उसके परिवार के विषय में सब कुछ जान गया था। इससे उसके मन में माया के प्रति सम्मान और भी अधिक बढ़ गया था। उसे पता हो गया था कि माया प्रतिदिन सुबह सूर्योदय के पूर्व ही उठ जाती है। सबसे पहले वह सूर्य देव को प्रणाम करती है। इसके बाद अपने माता-पिता के प्रति आदर व्यक्त करते हुए स्नेहाशीष की कामना करती है। इसके पश्चात वह पूजा-पाठ के उपरान्त एक कालेज जाती है जहां वह बी. काम. मेे अध्ययन कर रही है। रात में आठ बजे वह बार में आती है जहां वह ग्यारह बजे तक अपनी सेवाएं देती है। वह जो भी धन कमाती है उससे अपनी मां को भी धन भेजती है कुछ दान पुण्य भी करती है और बाकी बचे धन से सादगी पूर्वक अपना जीवन चलाती है और अध्ययन करती है।

यह सब जानने के कुछ दिन बाद ही बार मालिक ने उसे बार बाला के काम से अलग कर बार के मेनेजर के पद पर पदोन्नत कर दिया। इससे उसे और भी अधिक सम्मानजनक स्थान प्राप्त हो गया। उसने अपने काम को बखूबी अंजाम दिया और बार में हो रहे फिजूलखर्च को रोककर और घपलों को पकड़कर बार की आय को बढ़ा दिया। बार मालिक उसकी योग्यता से और भी अधिक प्रभावित हो गया और उसकी दृष्टि में उसका सम्मान और भी अधिक बढ़ गया।

उस बार के मालिक की कोई सन्तान नहीं थी। उन पति-पत्नी ने अपने बड़े भाई के बच्चे को अपनी संतान के रुप में पाला था। उनके बड़े भाई और उनकी पत्नी का देहान्त हो चुका था। सभी लोग उसे ही उनका बेटा समझते थे। वही उनकी सारी संपत्ति का वारिस था। एक दिन बार मालिक ने अपने घर में बात की और पत्नी व बेटे की सहमति के बाद वह इस निश्चय पर पहुँचा कि माया को वह अपनी बहू बनायेगा। उसने इस संबंध में माया से बात की और कहा कि अभी तक तुम मेरी बेटी के समान थीं अब मैं तुम्हें अपने घर की बहू बनाना चाहता हूँ। माया यह सुनकर हतप्रभ रह गई। वह अपने मालिक का बहुत सम्मान करती थी। उसने जब उनकी बात सुनी तो उन्हें बताया कि वह भविष्य में पुलिस अधिकारी बनना चाहती है। इसी के लिये वह पढ़ाई भी कर रही है और इसी की तैयारी भी कर रही है।

बार मालिक उसे समझाता है कि तुम जो करना चाहती हो वह अपने विवाह के बाद भी कर सकती हो। तुम्हारे लक्ष्य पर इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा बल्कि तुम्हें अपने उद्देश्य को पाने के लिये धन की व्यवस्था या चिन्ता करने की आवष्यकता नहीं रह जाएगी। माया की सहमति के बाद वाराणसी से उसके रिस्तेदारों को मुम्बई बुलाया जाता है और सभी के बीच उसका विवाह सम्पन्न होता है।

माया अपने लक्ष्य की ओर और अधिक परिश्रम के साथ आगे बढ़ती है। बी. काम. करने के बाद वह पुलिस विभाग के लिये प्रयास करती है और यहां भी उसे सफलता मिलती है। उसके पति और ससुराल वाले भी इस कार्य में उसका सहयोग करते हैं। आज माया एक पुलिस अधिकारी है और उसका पति और उसके ससुर आज भी उस बार को चला रहे हैं जहां से माया के जीवन का संघर्ष प्रारम्भ हुआ था। माया की इस प्रगति से सबसे अधिक गर्व यदि किसी को है तो वह है प्रेमा उसके बचपन की सहेली।

जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान

मोहनियां गांव का रामसिंह, एक सम्पन्न किसान था। घर में पत्नी, एक नौजवान बेटा और एक बेटी थी। बेटे ने इसी साल कालेज जाना प्रारम्भ किया था। अच्छी खासी खेती थी। पूरे इलाके में उनके परिवार की प्रतिष्ठा थी। रामसिंह में देशभक्ति का जज्बा और उसकी कर्मठता ही उसे फौज में ले आई थी। उसमें देश के लिये कुछ कर गुजरने की भावना बड़ी बलवान थी।

हवलदार रामसिंह एक निशाने का पक्का, जाबांज, देशभक्त और ईमानदार सिपाही था। वह कारगिल के मोर्चे पर तैनात था। एक रात उसने देखा कि पाकिस्तानी सैनिक रात के अंधेरे में भारतीय सीमा में छुपकर प्रवेश करने का प्रयास कर रहे हैं। उसने तत्काल ही अपने साथियों को इस स्थिति से अवगत कराया। वहां से फौरन पिछली चौकी को भी सतर्क कर दिया गया। सभी ने पोजीशन संभाल ली और अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगे। जैसे ही रामसिंह की टोली को फायरिंग का आदेश मिला उन्होंने फायर प्रारम्भ कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण के लिये दुश्मन तैयार नहीं था। वे हड़बड़ा गए। उनके अनेक सैनिक मारे गये। उन्होंने पीछे की ओर खिसकना प्रारम्भ कर दिया। रामसिंह कुछ अधिक तेजी से आगे को बढ़ता है। उसी समय एक हैण्ड ग्रेनेड उसके समीप ही आकर फटता है और वह घायल हो जाता है। उसके दो साथी उसे उठाकर तत्काल पीछे की ओर भेज देते हैं जहां से उसको हास्पिटल रवाना कर दिया जाता है।

रामसिंह ने हास्पिटल से अपने पुत्र को एक पत्र लिखा। प्यारे बेटे सोहन, मैं यहां अस्पताल में घायल अवस्था में लाया गया हूँ। यहां के डॉक्टर और नर्सें पूरी तरह से मुझे बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर मुझे लग रहा है कि अब मेरा अंतिम समय आ गया है। बेटे! तुम शक्ति के प्रतीक युवा हो एवं तुममें असीमित क्षमताएं हैं। अपनी ऊर्जा एवं जीवन के महत्वपूर्ण समय को व्यर्थ नष्ट मत करना। तुम्हीं देश के भविष्य हो और तुम्हें राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में अपना योगदान देना है। अपने जीवन में तुम्हें अटल एवं दृढ़ बनकर, विवेक को जागृत, जीवन में हमेशा उचित एवं अनुचित के मूल्यांकन की क्षमता रखना और फिर अपने लक्ष्य को निर्धारित करके उसे पूरा करने के लिये तन, मन से परिश्रम करना है। तुम्हें अभी राष्ट्र हित में बहुत सृजन करना है और समाज को नयी दिशा और चेतना देना है। जीवन में जब भी कोई पुनीत और अच्छा कार्य करता है तो संकट और कंकट आते हैं। तुम्हें इनसे जूझते हुए राष्ट्र प्रथम को तन, मन एवं हृदय से जीवन पथ पर आगे बढ़ना है। तुम्हें किसी कर्मयोगी के समान सेवा को ही अपना लक्ष्य मानकर उसी में तुम सुख समृद्धि तथा सार्थकता महसूस करो। देश की सेवा ही तुम्हारा धर्म एवं परम कर्तव्य है। यही लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ते जाना है। यही मेरा तुम्हारे लिये अंतिम आशीर्वाद है। जयहिन्द। जय भारत।

यह पत्र लिख कर वह उसे अपने सिरहाने रखकर सो गया। रात के तीसरे पहर उसे अचानक हृदय में पीड़ा हुई और उसकी सांसें समाप्त हो गईं। उसकी मृत्यु पर उसके सभी साथी गमगीन हो गए। उसके पार्थिव शरीर को उसके गांव लाया गया। उसके अंतिम संस्कार में उसके आसपास के गांवों के भी हजारों लोग शामिल हुए और उसे हृदय से श्रृद्धांजलि अर्पित की।

राजकीय सम्मान के साथ उसकी अंत्येष्ठी की गई। उसे मरणोपरान्त वीरचक्र से सम्मानित किया गया। उसका लिखा पत्र उसके कमाण्डेण्ट ने उसके बेटे को दिया। उसे पढ़कर वह भाव विभोर हो गया। उसने अपनी मां से फौज में जाने हेतु अनुमति मांगी। उसकी मां ने उसे सहर्ष स्वीकार किया। उसे स्टेशन पर छोड़ने के लिये सारा गांव उमड़ पड़ा था। आज वह सारे गांव का बेटा था।

सोहन सेना में भर्ती होने के बाद और अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के पश्चात आज पहली बार गांव वापिस आया था। उसने सबसे पहले अपनी मां के चरण छूकर उसे प्रणाम किया और आशीर्वाद लिया। गांव वाले उससे बड़े प्रेम से मिले। जिस समय वह गांव में ही था उसी समय स्वतंत्रता दिवस का दिन आ जाता है। उसे गांव के स्कूल में आयोजित कार्यक्रम में उसे विशेष रुप सें आमंत्रित किया जाता है। वह अपने उद्बोधन में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहता है- स्वतंत्रता की वर्षगांठ पर शहीदों की शहादत को हमारा सलाम। प्रतिवर्ष के समान जगह-जगह ध्वजारोहण और शालाओं में मिष्ठान्न वितरण किया जा रहा है। जगह-जगह लाउड स्पीकर पर फिल्मी गीत बज रहे हैं। स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा, जय जवान जय किसान और सत्य मेव जयते जैसी देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत देश के लिये समर्पण का उद्घोष लगाने वाले नायक जाने कहां खो गए हैं। मानों वे अब इतिहास का पन्ना बन गए हैं। आज भी भारत के कुछ भाग पर चीन और पाकिस्तान का कब्जा है। भारत का यह अंग आज भी पराधीन है। वह भू भाग स्वतंत्रता की प्रतीक्षा कर रहा है। हमारी सेना तैयार है और उन्हें केवल आदेश का इन्तजार है। ंचीन और पाकिस्तान देश में नक्सलवाद व आतंकवाद फैला रहे हैं। सारा देश इनसे निपटने में ही व्यस्त है। वे यह देखकर हमारी कठिनाइयों पर मदमस्त हैं। नयी पीढ़ी को आज जागना होगा और अपने कन्धों पर देश भक्ति जनसेवा का भार स्वीकार करते हुए अपनी धरती को मुक्त करने का संकल्प लेना होगा।

आज सारी दुनिया बड़ी तेजी से वैज्ञानिक तरक्की कर रही है। रोज नये-नये अविष्कार हो रहे हैं। इसके लिये यह आवश्यक है कि हमारे बच्चे खूब मन लगाकर परिश्रम के साथ पढ़ें और आगे बढ़ें। वैज्ञानिक प्रगति के बिना हम दुनिया की बराबरी भी नहीं कर सकते और अपनी रक्षा भी नहीं कर सकते। इसलिये नयी पीढ़ी को जी भरकर परिश्रम कर स्वयं को दुनियां के बराबर खड़ा करना होगा।

जिस दिन यह सब हो जाएगा उस दिन असली स्वतंत्रता दिवस आएगा और हम गर्व से कह पाएंगे हम एक अखण्ड भारत के स्वतंत्र नागरिक हैं। तब संपूर्ण विष्व में हमारे देश का यश और सम्मान बढ़ेगा।

उसके इस प्रेरक उद्बोधन ने सबका दिल छू लिया। कुछ दिन के बाद उसके वापिस जाने का समय आ गया। सारे गांव ने उसे गांव की सीमा तक पहुँचा कर भारत माता की जय के नारों के साथ उसे विदा किया।

यमराज और चित्रगुप्त

एक बार यमराज और चित्रगुप्त में आपस में कहा-सुनी हो गई। विवाद इतना बढ़ा कि चित्रगुप्त ने काम करना बन्द कर दिया। उनका कहना था कि यमराज इतने वर्षों से अपनी गद्दी पर विराजमान हैं किन्तु मानव के कर्मों का लेखाजोखा तो मुझे ही बनाना पड़ता है। इसमें कितना परिश्रम और मेहनत करना पड़ती है यह मैं ही जानता हूँ। यमराज तो केवल दण्ड देने का निर्देश देते हैं। यह सामन्तवादी प्रवृत्ति अब मुझे स्वीकार नहीं है। यहाँ पर भी प्रजातन्त्र आना चाहिए। यमलोक में भी प्रजातन्त्र की स्थापना की मांग करते हुए वे अनशन पर बैठ गए।

चित्रगुप्त के अनशन की खबर से सारे ब्रम्हाण्ड में तहलका मच गया। सभी हतप्रभ थे क्यों कि पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। खबर पाकर प्रभु ने नारद जी को बुलाया और निर्देश दिया कि यमराज और चित्रगुप्त का विवाद आप जाकर निपटाइये। प्रभु के आदेश से नारद जी उनके पास पहुँचे और दोनों को समझाने का प्रयास करने लगे किन्तु वे दोनों नारद जी की बातों से सहमत नहीं हुये। तब नारद जी ने सोचा कि इन दोनों को प्रभु के पास ले जाएं। उन्होंने प्रभु से इसकी अनुमति मांगी। भगवान ने उनसे कहा कि यमराज को यदि स्वर्ग लोक दिखा दिया तो वे यहीं जम जाएंगे और फिर वापिस नहीं जाएंगे। इससे सब जगह अफरा-तफरी फैल जाएगी। इसलिये ऐसी गलती मत करना।

नारद जी को एक युक्ति सूझी। उन्होंने यमराज और चित्रगुप्त दोनों को ही नीचे की ओर झांकने के लिये कहा और उन्हें भरतखण्डे आर्यावर्ते के दर्शन कराये। नारद जी ने उन्हें बताया कि यहाँ प्रजातन्त्र है। ध्यान से देखो वहाँ मंहगाई, भ्रष्टाचार, हरामखोरी और अनैतिक वातावरण में रहने के लिये जनता बाध्य है। वह बहुत हलाकान है पर उसके पास कोई विकल्प नहीं है।

वहां लोक सभा, राज्यसभा, अनेक विधान सभाएं और विधान परिषदें हैं। वहां प्र्रतिदिन नये-नये अपशब्दों का प्रयोग जनता के चुने हुए प्रतिनिधि एक दूसरे के लिये करते हैं। आपस में गाली गलौज और हाथापाई करते हुए एक दूसरे से झगड़ कर कपड़े तक फाड़ते रहते हैं। वहां की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता और संस्कार तार-तार हो गये हैं।

यदि आप इस लोक में भी ऐसी ही स्थिति चाहते हैं तो मैं यहाँ भी चुनाव करवा देता हूँ। चुनाव की तारीख भी तय कर देता हूँ व इससे संबंधित सारी प्रक्रियाएं भी पूरी करवा देता हूँ। मतदान की पात्रता रखने वाले देवी-देवताओं की सूची बनवा देता हूँ।

यमराज और चित्रगुप्त ने भारत में प्रजातन्त्र की ऐसी दुर्दशा देखकर आपस में विचार विमर्श किया कि हम व्यर्थ ही प्रजातन्त्र की बात करके आफत मोल ले रहे हैं। हम यहाँ पर सुखी हैं। हमारे बीच में मतभेद हो सकते हैं पर मनभेद नहीं है। वहां तो प्रजातन्त्र के नाम पर लूटतन्त्र चल रहा है। जनता सृजन में कम और विध्वंस में अधिक लगी हुई है। हमें निर्माण चाहिए निर्वाण नहीं। दोनों ने अपने विचार बदल लिये और आपस में गले मिलकर अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए। नारद जी भी नारायण नारायण कहते हुए देव लोक की ओर प्रस्थान कर गये।

मेरा देश महान

एक दिन देवर्षि नारद ब्रम्हाण्ड में भ्रमण करते हुए अचानक भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई पहुँच गये। वे जहां पर उतरे उसके सामने ही एक चाय की दुकान और उसके बाजू में एक पान की गुमटी उन्हें दिखलाई दी। इससे पहले तक उन्होंने इन दोनों को नहीं देखा था। वे इससे अनभिज्ञ थे। वे वहां पहुँचे और उन्होंने चाय का रसास्वादन किया। इस पेय को पीकर वे प्रसन्न हो गये। पान खाकर उनका मन गदगद हो गया। उनके सामने की दीवार पर लिखा था- कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है।

वे मुम्बई की ऊंची-ऊंची इमारतों और फर्राटे से भागती हुयी कारों को देखकर सोचने लगे कि भारत ने कितनी प्रगति कर ली है। यह भारत भूमि महान और नेक है। इसीलिये कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। उन्होेंने चाय और पान वाले से पूछा- यहां समय क्यों नष्ट कर रहे हो, मेरे साथ स्वर्गलोक चलो। वहां अनेक दिनों से कोई नहीं पहुँचा है। पूरा स्वर्ग खाली पड़ा है।

नारद जी की बात सुनकर वे दोनों सोचने लगे। आज संध्या के समय किस पागल से बेवजह पाला पड़ गया। उन्होंने नारद जी से कहा- हे महाराज! आप हमारे चाय और पान की कीमत दीजिये और यहाँ से चलते बनिये। वरना आपकी बातों से यहां तमाशबीनों की भीड़ लग जाएगी। हमारा ग्राहकी का समय है, उसे बर्बाद मत कीजिये।

नारद जी ने पुनः विनम्रता पूर्वक पूछा- आप लोग नाराज क्यों हो रहे हो। मैं वास्तव में आपको स्वर्गलोक ले जा सकता हूँ।

तब चायवाला बोला- हमारे देश की धरती स्वर्ग से भी अच्छी है। यहाँ पर बच्चों को दोपहर का भोजन सरकार की ओर से मुफ्त प्राप्त होता है। साल में सौ दिन का बेरोजगारी भत्ता प्राप्त होता है। कारखानों में नौकरी पक्की हो जाने पर मालिक भी हमें आसानी से नहीं निकाल सकता है। हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। हमारे पास असीमित अधिकार हैं। हम काम करें या न करें उत्पादन दें या न दें हमारा वेतन पक्का रहता है। हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं। देश में अनेक नियम व कायदे हैं पर यहां पर भ्रष्टाचार गरीबी और मंहगाई के कारण ये किताबों में ही बन्द पड़े रहते हैं। हमारा जैसा मन होता है वैसा करने की हमें पूर्ण स्वतन्त्रता है। हर मोहल्ले में बियर बार और पब है। वहां साकी अपने हाथों से मदिरापान कराती है। आप हमारे साथ चलिये और स्वर्ग से भी अच्छा नजारा देखिये। आप वहां पहुँचकर स्वर्ग को भी भूल जाएंगे। फिर भला हम लोगों को स्वर्ग जाने की क्या आवष्यकता है।

यह सब सुनकर नारद जी अचकचा गये। उन्होंने चाय-पान का दाम चुकाया और वहां से स्वर्ग की ओर विदा हो गए।

नारद और महन्त

नारद जी ब्रम्हाण्ड का भ्रमण करते-करते आर्यावर्त के इस रेवा खण्ड के एक नगर में अवतरित हुए। यहां उन्होंने देखा एक पत्थर पर एक भगवा वस्त्र धारी ने सिन्दूर पोत दिया था। कुछ फूल चढ़ा दिये थे और अगरबत्तियां जला दी थीं। श्रद्धालुओं ने वहां आकर पूजा-पाठ करना और पैर पड़ना और आशीर्वाद पाना प्रारम्भ कर दिया था। श्रृद्धालु भावनाओं के सैलाब में बहकर धन चढ़ा रहे थे। पत्थर के आसपास और भी भगवा वस्त्रधारी आने लगे थे। जिसने सिन्दूर पोता था वह वहां महन्त के रुप में जम गया था। नारद जी सोच रहे थे कि मानव के सृजन में इतनी शक्ति होती है कि वह पत्थर को भी भगवान बना देता है।

तभी उस महन्त की दृष्टि नारद जी पर पड़ी। उनकी विचित्र वेशभूषा और उनके बनाव-श्रृंगार को देखकर वह उनकी ओर आकर्षित हो गया। उसने उनके पास जाकर उन्हें सम्मान पूर्वक आमं़ित्रत किया और ले जाकर उस पत्थर के पास ही उन्हें विराजमान कर दिया। उसने अपने चेलों को संकेत कर दिया। चेलों ने जाकर यह अफवाह फैला दी कि ईश्वर के चमत्कार स्वरुप एक देवदूत अवतरित हो गए हैं।

इस अफवाह के प्रभाव में लोग आने लगे और नारद जी को फूल, मालाएं और प्रसाद आदि चढ़ाने लगे। नारद जी अपना ऐसा स्वागत सत्कार देखकर गदगद हो गए। उन्हें जो चढ़ोत्री आदि चढ़ाई जा रही थी उसे वह महन्त रखता जा रहा था। नारद जी को कोई मोह तो था नहीं इसलिये वे इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहे थे। कुछ समय बाद जब नारद जी वहां से चलने के लिये उठे तो वह महन्त उनसे बोला- हे महाप्रभु! आप तो हमारे अन्नदाता हैं। आपके आने से हमारे भाग्य खुल गए हैं। आप अपनी कृपा हमारे ऊपर बनाये रखिए। आप कुछ दिन और हमारे पास ही ठहरियेगा। नारद जी ने उसके आग्रह को स्वीकार कर लिया।

दोपहर को उस महन्त ने नारद जी के भोजन आदि का प्रबन्ध किया। स्वादिष्ट भोजन करके नारद जी और भी अधिक प्रसन्न हो गए। वह उन्हें विश्राम के लिये छोड़कर चला गया। तभी पास ही का एक दूसरा महन्त उनके पास आया। वह बोला- हे प्रभु आप तो दीनबन्धु हैं। मुझ पर भी थोड़ी कृपा कीजिए। मेरा भी कुछ आतिथ्य स्वीकार कीजिए और मुझे अपनी सेवा का शुभ अवसर प्रदान कीजिए। नारद जी उसकी बातें सुनकर उसके साथ हो लिये। उसने भी नारद जी को ले जाकर एक दूसरे पत्थर के बगल में विराजित कर दिया। यह उस महन्त का पत्थर था और उसने उस पर काला रंग पोत कर तेल चढ़ाकर उसे भगवान बना दिया था।

अब वे लोग जो उस जगह पर नारद जी के पास जा रहे थे वे इस जगह नारद जी के पास आने लगे। यहां लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। खबर मिलने पर वह पहला महन्त अपने दल-बल सहित नारद जी को वापिस लेने वहां पहुँच गया। दूसरा महन्त भी अपने चेले-चांटों के साथ तैयार बैठा था। दोनों में संघर्ष छिड़ गया। गालियों की बौछारें होने लगी, लाठियां बजने लगीं। लोग घायल होने लगे। तमाशबीनों की भीड़ चारों ओर लग गई। इस दृश्य को देखकर नारद जी समझ गये कि माजरा क्या है।

जिसे वे भक्ति समझ रहे थे वह पाखण्ड था। जिन्हें वे सन्त व महन्त समझ रहे थे वे लुटेरे थे जो लोगों की आस्थाओं से खिलवाड़ कर उन्हें लूट रहे थे। उनकी इस अवस्था को देखकर और उनकी मनोवृत्ति को समझकर नारद जी बिना कुछ बोले और बिना कुछ बताये वहां से चले गये।

ऐसा भी हुआ

कुछ माह पूर्व मुझे अपने आवश्यक कार्य से दुबई जाना था। उस दिन रविवार था और मुझे सोमवार की सुबह रवाना होना था। मैं शाम के समय मुम्बई में एक रेस्तरां में काफी पीने गया था। रेस्तरां से वापिस आकर मैंने पाकिट में हाथ डाला तो भौंचक्का रह गया कि मेरा पर्स मेरे पाकिट से गायब था। उस पर्स में मेरा अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट कार्ड और तीन लाख रूपयों के अमरीकी डालर रखे हुए थे। मैंने विचार किया कि मैंने अंतिम बार उसका प्रयोग कब किया था। मुझे याद आया कि रेस्तरां में काफी का बिल चुकाने के लिये मैंने उसे निकाला था। उसके बाद तो मैं सीधा यहां चला आ रहा हूँ। इसका मतलब यह हुआ कि पर्स यहां और रेस्तरां के बीच कहीं खोया है। मैंने कार के भीतर और अपने दूसरे जेबों में उसे तलाश कर लिया। हर संभव जगह पर तलाश की पर पर्स नहीं मिला।

मैं बहुत निराश था। रूपयों से अधिक चिन्ता मुझे मेरे अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट कार्ड की थी। अवकाश दिवस होने के कारण उसे बन्द तो कराया जा सकता था किन्तु नया कार्ड तत्काल प्राप्त नहीं हो सकता था। मैंने मायूस होकर अपने ड्रायवर से कहा कि जाओ और उस रेस्तरां में पता करने की कोशिश करो जहां मैंने शाम को काफी पी थी।

मुझे तनिक भी आशा नहीं थी कि मुझे वह पर्स मिल पाएगा। मैं इसी चिन्ता में डूबा हुआ था कि आगे क्या करना चाहिए। उसी समय मेरे ड्राइवर ने मोबाइल पर मुझे सूचना दी कि पर्स प्राप्त हो गया है और उसमें रूपये और क्रेडिट कार्ड सुरक्षित है।

कहां प्राप्त हुआ?

साहब आपने जहां काफी पी थी आप वहीं उसे भूल आये थै। एक वेटर को वह मिला था। उसने उसे संभाल कर रखा था और आपकी प्रतीक्षा कर रहा था।

मैं इस बात को लेकर आश्चर्य में था कि इतना सब कुछ पाकर भी उस वेटर का ईमान नहीं डोला था। मैंने ड्राइवर से कहा कि उसे मेरी ओर से पांच हजार रूपये ईनाम के बतौर दे दो।

थोड़ी देर बाद ड्राइवर का फोन आया। उसने बतलाया कि साहब वह वेटर आपका दिया हुआ इनाम लेने को तैयार नहीं है। मेरे बहुत अनुरोध करने पर उसने आपका मान रखने के लिये केवल सौ रूपये स्वीकार किये। मैंने ड्राइवर से उसका नाम और पता लिख लेने के लिये कहा।

मैं दुबई चला गया लेकिन उस वेटर की याद मेरे मन में बनी रही। वापिस घर आने पर मैंने अपने मुख्य प्रबंधक से इसकी चर्चा की। उसने मुझे सुझाव दिया कि ऐसे ईमानदार व्यक्ति मुष्किल से मिलते हैं। ऐसे लोग अगर हमारे साथ हमारे कारखाने में हों तो इससे कारखाने का माहौल भी बदलता है और अच्छे ईमानदारी भरे वातावरण का निर्माण होता है।

मुझे उसकी बात पसंद आयी। मैंने उसको उस वेटर का नाम पता और नम्बर दिया और कहा कि तुम उससे बात कर लो और अगर वह इसे मान जाता है तो उसे यहां बुला लो।

मेरी स्वीकृति लेकर उसने उसे बुलवाया और हमारे कारखाने में एक महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति प्रदान की। वह ईमानदारी पूर्वक कार्य करते हुए अपनी मेहनत और लगन से तरक्की पाते हुए आज एक वरिष्ठ पद पर कार्यरत है। उसके लिये यह नियुक्ति तो महत्वपूर्ण थी ही हमारे लिये भी यह नियुक्ति कम महत्वपूर्ण नहीं थी क्योंकि हमें भी एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ आदमी मिल गया था।

हृदय परिवर्तन

सुुरेश, महेश और राकेश तीनों मित्र थे। वे कक्षा दसवीं के छात्र थे। तीनों बहुत शरारती और उद्दण्ड थे। उनके शिक्षक, अभिभावक और साथी सभी उनसे परेशान रहते थे। शिक्षकों द्वारा उन्हें प्रायः दण्डित किया जाता रहता था किन्तु इसका कोई प्रभाव उन पर दिखलाई नहीं देता था।

शाला में नये प्रधानाचार्य आये तो इन तीनों की शिकायत उनके पास तक भी पहुँची। उन्होंने तीनों के विषय मे अच्छी तरह से जांच पड़ताल करने के बाद उन्हें अपने कक्ष में बुलवाया।

शाला का चपरासी मोहन उनके पास गया और बोला प्राचार्य जी ने तुम तीनों को अपने पास बुलाया है।

फरमान सुनकर वे चौंके! आज तो हमने ऐसा कोई कार्य किया ही नहीं है जो हमें बुलवाया जाए। उन्होंने मोहन से पूछा किसलिये बुलवाया है?

मुझे नहीं पता। आप लोग स्वयं जानो। उनने मुझसे तुुम लोगों को बुलाने कहा है इसलिये मैं बुलाने आया हूँ। आगे तुम जानो और तुम्हारा काम जाने। चपरासी भी उनकी शरारतों से त्रस्त था इसलिये उपेक्षा भरे लहजे में उसने जवाब दिया।

वे सोच विचार में डूबे हुए प्राचार्य कक्ष के सामने पहुँचे और बोले- मे आई कम इन सर?

प्राचार्य जी ने सिर के इशारे से उन्हें अनुमति दी। उनके भीतर आने पर उन्होंने तीनों के हाथों में एक-एक कागज की शीट पकड़ाई और बोले- मैं चाहता हूँ तुम तीनों यहीं बैठकर इस पर माँ के विषय में अपने विचार लिख कर मुझे दो। तुम्हें अपनी स्वयं की माँ के लिये ही लिखना है कि उसके विषय में तुम क्या सोचते हो?

प्रधानाचार्य के इस व्यवहार से वे अचंभित थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि जो कुछ उनसे कहा जा रहा है वह क्यों कहा जा रहा है। सुरेश की माँ का निधन हो चुका था। उसने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा-

उसकी माँ की मुस्कराहट उसके अंतःकरण में चेतना जाग्रत करती थी और उसका आना उसे प्रेरणा देता था एवं दीपक के समान अंतः मन को प्रकाशित करता था। पता ही नहीं चला वह कब और कैसे अनन्त में विलीन हो गई जहां पर न ही हमारा जाना संभव है और न ही अब उसका यहां आना हो सकेगा। दिन-रात सूर्योदय और सूर्यास्त वैसा ही होता है किन्तु माँ तेरा न होना हमें विरह और वेदना का अहसास कराता है। अब तुम्हारी यादें ही जीवन को प्रेरणा देती हैं। सदाचार व सहृदयता से जीवन जीने की राह दिखलाती है।

महेश ने अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये- माँ की ममता और त्याग का मूल्य मानव तो क्या परमात्मा भी नहीं कर सकता। वह हमेशा स्नेह व प्यार से आदर्श जीवन की शिक्षा देती रहती है। यही हमें जीवन में सफलता की राह दिखलाती है। हमारी नादानियों को वह माफ करती है। हमारी चंचलता, हठ व शरारतें वह सहनशीलता की प्रतिमूर्ति के समान स्वीकार करती है। उसकी अंतरात्मा के ममत्व में जीवन के हर दुख का समाधान है। वह चाहती है कि हम अपने पैरों पर खड़े होकर स्वावलंबी बनकर जीवन यापन करें।

राकेश की माँ का निधन भी कुछ साल पहले हो चुका था। राकेश बहुत भावुक था। उसका मत था कि माँ का स्नेह व प्यार हमें स्वर्ग की अनुभूति देता है। उसका प्रेममय आशीष जीवन में स्फूर्ति प्रदान करता है। वह हमेशा कहती थी कि जब तक सांस है तब तक जीवन की आस है। चिन्ता कभी नहीं करना चाहिए। यह किसी समस्या का निदान नहीं है। इससे परेशानियां और बढ़कर हमें दिग्भ्रमित कर देती हैं। हमें अपने कर्मों का प्रतिफल तो भोगना ही होता है इससे मुक्त कोई नहीं हो सकता है। अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए पराक्रमी एवं संघर्षशील बनो। तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी। जो हार गया उसका अस्तित्व समाप्त हो गया। एक दिन उसकी सांसों का सूर्यास्त हो रहा था। हम सभी स्तब्ध और विवेक शून्य होकर अपने को बेबस और लाचाार अनुभव कर रहे थे। वह हमारे सामने ही अनन्त की ओर चली गई और यही था जीवन का यथार्थ। मुझे आज भी उसकी याद है जब मैं रोता था तो वो परेशान और जब मैं हंसता था वह खुशी से फूल जाती थी। वह हमें सदाचार, सद्व्यवहार और सद्कर्म का पाठ पढ़ाती थी। वह पीड़ित मानवता की सेवा तथा राष्ट्र प्रेम की शिक्षा देती थी।

इतना लिखते-लिखते वह भाव विह्वल हो गया और आगे कुछ भी नहीं लिख पाया। उसकी आंखों की कोरें गीली हो गईं थी। तीनों ने अपने-अपने पन्ने उन्हें सौंप दिये और उनके इशारे पर कक्ष से बाहर चले गये।

दूसरे दिन प्रार्थना के समय प्रधानाचार्य ने उन्हें सबके सामने बुलवाया। उसके बाद उनके लिखे हुए वे पृष्ठ उन्हें देकर कहा कि वे माइक के सामने उन्हें पढ़कर सारे विद्यार्थियों को सुनाएं। तीनों ने उनके आदेश का पालन किया। तीनों ने एक के बाद एक अपने लिखे हुए वे वक्तव्य पढ़कर पूरी शाला को सुनाए। उनके विचारों को सुनकर पूरी एसेम्बली में सन्नाटा छाया हुआ था, तभी प्राचार्य जी माइक के सामने आये। उन्होंने तीनों के विचारों पर उनकी प्रशंसा करते हुए प्रसन्नता व्यक्त ही और अपनी ओर से उन्हें पुरूस्कृत किया। जब वे पुरूस्कार ले रहे थे तो पूरी शाला में तालियों की आवाज गूंज रही थी।

इस घटनाक्रम से तीनों छात्र हत्प्रभ थे। उन्होंने प्राचार्य के चरण स्पर्श किये। प्रधानाचार्य ने उन्हें अपने गले लगा लिया और माइक पर ही बोले- मैं इस शाला को एक आदर्श शाला बनाना चाहता हूँ और मैं चाहता हूँ कि ये तीनों छात्र इस शाला के सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी का पुरूस्कार प्राप्त करें।

उनका हृदय परिवर्तन होे चुका था और उनके जीवन को एक नया रास्ता और नयी दिशा मिल चुकी थी।

जिद

एक जंगल में एक बन्दर पेड़ की एक डाल से चिपटकर सो रहा था। उसी जंगल में एक बहुत शक्तिशाली एवं बलवान हाथी रहता था। वह घूमता-घूमता उसी पेड़ के नीचे जा पहुँचा। वहां पहुँचकर वह पेड़ के नीचे खड़ा-खड़ा चिंघाड़ने लगा। हाथी की आवाज से बन्दर की नींद खुल गई। विश्राम में खलल पड़ने के कारण वह कुपित हो गया। उसने हाथी को सबक सिखाने का निष्चय कर लिया। वह पेड़ से कूदकर उसकी पीठ पर आ गया। फिर उसने उसे गुदगुदी लगाना प्रारम्भ कर दिया।

हाथी ने अपनी सूड़ से बन्दर को पकड़ कर पटकने का प्रयास किया लेकिन बन्दर उछल कर फिर पेड़ पर चढ़ गया। वह लगातार इस प्रक्रिया को दोहराता रहा। जब हाथी बहुत परेशान हो गया और बन्दर को नहीं पकड़ पाया तो वहां से रवाना हो गया।

यह सारी हरकत एक पिता और पुत्र दूर से देख रहे थे। पिता ने पुत्र से कहा- कोई कितना भी शक्तिशाली व बलवान हो उसे कमजोर प्राणी भी अपनी बुद्धिमत्ता और चतुराई से पराजित कर सकता है। उस हाथी को अपनी ताकत का बहुत घमण्ड था। उसे यह गुमान था कि अन्ततः बन्दर को पकड़ लेगा और उसे अच्छा सबक सिखाएगा, किन्तु जी भरकर प्रयास करने पर भी वह इसमें सफल नहीं हो सका और अन्त में हारकर वहां से चला गया।

हमें उस हाथी के समान अपनी शक्ति का अपव्यय नहीं करना चाहिए। इसे संचित करके सही समय व स्थान पर उसका उपयोग करना चाहिए। तभी हम जीवन में सफलता प्राप्त कर सकेंगे और हमारा उद्देश्य पूरा हो सकेगा। हमारा प्रतिद्वंदी कितना भी शक्तिशाली हो हम उसे अपनी बुद्धि और चातुर्य से पराजित कर सकते हैं।

राम और विभीषण

हम पचमढ़ी में पैदल ही महादेव के दर्शन को जा रहे थे। रास्ते में जब हमें विश्राम की आवष्यकता थी उस समय पास की ही एक झोपड़ी में हम विश्राम करने के लिये रूक गये। वहां एक विचारक भी बैठे थे। उनसे बातें होने लगीं। वे बोले-

राम और रावण के युद्ध के विषय में जब हम गम्भीरता पूर्वक चिन्तन और मन्थन करते हैं तो हमारे मन में यह भावना आती है कि राम भगवान के स्वरुप थे तो विभीषण भी एक महान व्यक्तित्व के धनी थे। जब श्री राम रावण के वध में असफल हो रहे थे उनकी सेना पराजय के करीब थी तब विभीषण ने ही रावण की मृत्यु का भेद राम को बतलाया था, जिसके कारण वे रावण का वध कर सके थे। यदि विभीषण यह भेद न बताते तो इस युद्ध का परिणाम विपरीत भी हो सकता था। रावण वध सम्पन्न होने के कारण विजयी होकर राम जय श्री राम कहलाये परन्तु विभीषण को आज भी व्यंग्य पूर्वक ’’घर का भेदी लंका ढाये’’ की उपाधि से जाना जाता है।

इस महायुद्ध में सोने की लंका बर्बाद हो चुकी थी। हर तरफ लाशें बिछी थीं। सड़कों पर रक्त की नदियां बह रही थीं। नारियों का रूदन, जलते हुए मकान, नष्ट होती हुई सम्पत्ति एवं वीभत्स रुप ही बचा था। ऐसी महादुर्दशा में विभीषण का राजतिलक हुआ, उन्हें राजगद्दी मिली और वे लंकाधिपति कहलाये।

राम का यशगान हर दिशा में गूंज रहा था। अयोध्या नगरी सुख समृद्धि व वैभव से परिपूर्ण थी। अयोध्या के निवासी आनन्द मग्न व हर्षित थे और उनके चेहरे पर प्रसन्नता खेल रही थी। राम अयोध्या में प्रवेश कर रहे हैं, यह जानकर अयोध्या में सभी के दिलों में अपार उत्साह व हर्ष था मानो उनके सपने साकार हो गए थे। घर-घर में दीपोत्सव मनाया जा रहा था। मंत्रोच्चार के साथ श्री राम का राज्याभिषेक हुआ। अवध में ऐसी सुबह हुई जिसका प्रकाश आज भी समूची मानवता को प्रकाशित कर रहा है। राम के मन्दिर बने और आज भी उनकी पूजा घर-घर में होती है। राम इतिहास में अमर हो गए। परन्तु विभीषण को उतना महत्व नहीं मिला। वे विस्मृति के गर्त में चले गये। विभीषण के जीवन का यथार्थ भ्रातृद्रोह का परिणाम बतलाता है और देशद्रोह की परिणिति भी समझाता है।

उनकी बात पूरी होने पर वहीं बैठे एक सन्त जो अब तक उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहे थे बोले- श्री राम ईश्वर का अवतार थे। विभीषण एक महान व्यक्तित्व के धनी थे। मन्दिर ईष्वर का होता है। जिसमें उसकी पूजा व आराधना होती है। व्यक्ति कितना भी महान हो उसके मन्दिर नहीं बना करते। उसका बुत जरुर बनता है। विभीषण को देशद्रोही कहना अनुचित है। उसने कभी भी कोई हथियार नहीं उठाया। भ्रातृद्रोही कहना भी उचित नहीं है क्योंकि उसके भाई रावण ने भरी सभा में उसे अपमानित करके लंका से निष्कासित कर दिया था।

रावण विद्वान था लेकिन वह हठी और अहंकारी था। राम बुद्धिमान होने के साथ-साथ विनम्र और दूरदर्शी थे। इसीलिये जैसे ही विभीषण उनकी शरण में आये तो उन्होंने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उन्हें पूर्ण सम्मान देकर अपने समकक्ष बिठाकर लंकाधिपति स्वीकार कर लिया। श्री राम को भली-भांति पता था कि लंका को जीतने के लिये और रावण को परास्त करने के लिये विभीषण एक ब्रम्हास्त्र है क्यों कि उसको उसके सभी भेदों का ज्ञान है। उन्होंने अपनी कुशलता और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उसका स्वागत किया। जिसके परिणाम स्वरुप वे रावण को परास्त करने में सफल रहे।

यह कहना भी उचित नहीं है कि विभीषण को उचित मान-सम्मान नहीं मिला। जब भी राम का नाम आता है विभीषण की चर्चा भी उसी सम्मान के साथ होती है।

हम विश्राम कर चुके थे। उन दोनों महापुरूषों के वचनों का मनन करते हुए हम उठकर अपने गन्तव्य की ओर चल पड़े। मैं सोच रहा था कि इन दोनों विद्वानों ने एक ओर तो ज्ञान दिया था और दूसरी ओर चिन्तन के लिये एक विषय भी दे दिया था।

कुलदीपक

वह एक सम्पन्न परिवार था। ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ था कमी थी तो केवल इतनी कि कोई ऐसा नहीं था जो उस खानदान को आगे बढ़ाता। अनेक वर्ष बाद पुत्ररत्न का जन्म हुआ। उसका जन्म हुआ तो घर में जैसे कुलदीपक आ गया। उसके माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी और मित्रों में हर्ष की लहर दौड़ गई। उनका सपना सच हुआ था। वे उसे लेकर एक सन्त के पास गये।

सन्त से उन्होंन निवेदन किया कि आप इसे ऐसा आशीर्वाद दें कि इसका जीवन प्रकाश पुंज के समान उज्ज्वल हो, ईश्वर के प्रति उसमें भक्ति, श्रृद्धा और समर्पण का भाव हो, जीवन में उत्साह की लय व ताल हो। उसके कर्म में सृजन व संगीत हो। उसके हृदय में शान्ति, प्रेम व सद्भाव हो सेवा ही उसका धर्म हो और श्रम, सदाचार व सहृदयता उसके साथी हों। उसे कभी भी अभिमान न हो एवं उसमें दूरदृष्टि हो। अवरोधों और कण्टकों में भी वह अपनी राहों को आसानी से खोज सके। उसके चेहरे पर सदा मुस्कान रहे। दुख की छाया से भी वह दूर रहे और वह सदैव लोककल्याण में लगा रहे। उसकी कर्मठता में सार्थकता हो। वह राग-द्वेष व दुर्भावना से दूर रहे। मद और मदिरा का उसके जीवन में कोई स्थान न हो। उसका भाग्य प्रबल होकर उसे लक्ष्य को पहचानने की क्षमता प्रदान करे और वह जीवन में हर पग पर सफल रहे। वाणी व कर्म से वह अटल हो। वह सब का सहारा बने और कुलदीपक के रुप में हमारा नाम रौशन करे।

यह सब सुनकर वे सन्त मुस्कराए और बोले यदि इतने गुण किसी मानव में आ जाएं तो वह देवता बन जाएगा। कलयुग समाप्त हो जाएगा और सतयुग आ जाएगा। इसे इतने आशीर्वाद देने की क्षमता तो मुझ में भी नहीं है। मैं स्वयं इतने गुणों से सम्पन्न नहीं हूँ फिर मैं इसे इतने आशीर्वाद कैसे दे सकता हूँ। मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि यह बालक सदा सुखी, समृद्ध एवं स्वस्थ्य रहे। हमें अपनी अपेक्षाओं को सीमित एवं व्यवहारिक रखना चाहिए वरना हम इनके पूरे होने की प्रतीक्षा में ही अपना समय व्यर्थ नष्ट करते रहेंगे। जीवन में स्वयं प्रसन्न रहो और दूसरों की भी प्रसन्नता की कामना करो। इतना कहकर वे सन्त मौन हो गये।

सबको सच्चाई का दर्पण दिख गया था। वे समझ गये थे कि जो भी होता है उसमें ईश्वर की कृपा के साथ ही हमारे कर्मों का भी हाथ होता है।

मोक्ष

प्रयाग में भागीरथी के तट पर एक सन्त से मेरी मुलाकात हो गई। मैंने मन की जिज्ञासा की संतुष्टि के लिये उनसे विनम्रता पूर्वक आग्रह सहित पूछा- मोक्ष क्या है ? उन्होंने स्नेहपूर्ण वाणी में समझाया- मोक्ष दुनियां के विवादास्पद विषयों में से एक है। यह क्या है ? किसी ने इसे देखा है ? इस पथ के विषय में कोई भी व्यक्ति आज तक दावे के साथ नहीं कह सकता कि वह रास्ता मोक्ष तक जाता है। इसका रुप व स्वरुप किस प्रकार का है। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में इसकी व्यापक व्याख्या है। यदि हम गम्भीरता से मनन और चिन्तन करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि मोक्ष की प्राप्ति लगभग असंभव है। मेरा व्यक्तिगत विचार तो यह है कि मृत्यु के बाद मोक्ष की कल्पना समाज को अनुशासन में रखने एवं सामाजिक दायरों में व्यक्ति को बांधे रखने के लिये धर्मग्रन्थों के माध्यम से स्थापित की गई व्यवस्था है।

मोक्ष की मृगतृष्णा में व्यक्ति धर्म पूर्वक कर्म करता रहे एवं मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए जीवन व्यतीत करे। उसके मन में मोक्ष की कामना सदैव बनी रहे। इसी उद्देश्य से मोक्ष की अभिकल्पना की गई है। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि मोक्ष हमें इसी जीवन में प्राप्त हो सकता है।

जीवन में मोक्ष का दूसरा स्वरुप आनन्द है। अब आनन्द क्या है? दुख में भी आनन्द की अनुभूति हो सकती है और सुख में भी आनन्द का अभाव हो सकता है। जीवन में कठिनाइयों और परेशानियों से घबरा कर भागने वाला जीवन को बोझ समझ कर निराशा के सागर में डूबता उतराता रहता है। वह कठिनाइयों और अवसादों को घोर घना जंगल समझता है। परन्तु साहसी व्यक्ति कर्मठता के साथ सकारात्मक सृजन करता है एवं परेशानियों से जूझकर उन्हें हल करता है। यह संघर्ष उसे उत्साहित करता है। वह सफलता की हर सीढ़ी पर अनुभव करता है एक अलौकिक संतुष्टि के साथ स्वयं पर आत्मविश्वास। अनुभव करता है एक अलौकिक सौन्दर्य युक्त संसार का। यही आनन्द है। धन संपदा और वैभव से हम भौतिक सुख तो प्राप्त कर सकते हैं किन्तु आनन्द की तलाश में मानव जीवन भर भागता रहता है। भौतिक सुख बाहरी हैं परन्तु आनन्द आन्तरिक है। सुख की अनुभूति शरीर को होती है किन्तु आनन्द की अनुभूति हमारे अंतरमन को होती है। आनन्द का उद्गम हैं हमारे विचार हमारे सद्कर्म और हमारी कर्मठता। यही मोक्ष है जो आनन्द का दूसरा स्वरुप है।

मोक्ष क्या है और कैसे प्राप्त हो यह विषय कल भी था आज भी है और कल भी रहेगा।

बुद्धिमान और बुद्धिहीन

एक सन्त से उनके शिष्य ने पूछा- बुद्धिमान और बुद्धिहीन में क्या फर्क होता है?

वे मुस्करा कर बोले- जैसा अन्तर दिन और रात में होता है वैसा ही अन्तर बुद्धिमान और बुद्धिहीन में होता है। बुद्धिमान प्रतिक्षण चिन्तन और मनन करता रहता है और उसका जीवन प्रकाशमय रहता है। उसे इस बात का ध्यान रहता है कि समय व्यतीत हो रहा है तथा वह प्रतिपल मृत्यु के निकट जा रहा है। इसीलिये वह स्वयं को सदैव सकारात्मक सृजन में संलग्न रखता है। वह जानता है कि जीवन जीवटता के साथ जीने का नाम है। इसीलिये जब तक जीवन है तब तक जितना भी निर्माण कर सको कर लो उसके बाद फिर कुछ हाथ नहीं रहेगा। वह इसी भावना से अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहकर जीवन जीता है। इसके विपरीत बुद्धिहीन जीवन है सिर्फ इसलिये जीता है। उसके जीवन में चिन्तन, मनन अथवा सकारात्मक सृजन जैसी कोई बात नहीं होती है।

बुद्धिमान में बुद्धि के साथ-साथ मान भी जुड़ा है और बुद्धिमान को समाज में मान व सम्मान प्राप्त होता है। जबकि बुद्धिहीन में हीन प्रत्यय के कारण सदैव हीनता का बोध होता है और वह समाज में भी हीन दृष्टि से ही देखा जाता है।

आत्म निर्णय

राम और रहीम एक ही कारखाने में काम करते थे। वे प्रतिदिन एक साथ आते और जाते थे। एक दिन राम ने रहीम से पूछा- तुम्हारी सफलता का राज क्या है। तुम जो भी कार्य हाथ में लेते हो उसमें तुम्हें सफलता, यश व मान भी प्राप्त होता है। मैं इतनी मेहनत और परिश्रम के बाद भी सफल नहीं हो पाता हूँ।

रहीम ने बताया कि हमें जीवन में अरमानों की आंधी एवं भावनाओं के सैलाब को अपने नियन्त्रण में रखना चाहिए। मेरी सफलता के दो राज हैं वे मैं तुम्हें आज बतला देता हूँ। पहला तो यह है कि प्रतिदिन सूर्योदय के समय मैं खुदा को याद करके यह प्रण लेता हूँ कि आज दिन भर में सूर्यास्त के पूर्व कम से कम एक नेक काम अवश्य करुंगा और बुरे काम से अपने को बचा कर रखूंगा। जिससे मेरे अरमान नेक रहते हैं। दूसरा जब भी बहुत महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता है तो सबसे वार्तालाप करता हूँ और उस समय में चुप रहकर दूसरों के विचारों को समझने का प्रयास करता हूँ। जब सब अपनी बात कह लेते हैं तो मैं उनके विचारों को दर्ज कर लेता हूँ। फिर उन पर चिन्तन और मनन करके खुदा को साक्षी रखते हुए निर्णय लेता हूँ। इस प्रकार मैं अपनी भावनाओं में बहकर नहीं वास्तविक धरातल पर निर्णय लेता हूँ और यही मेरी सफलता का राज है।

प्रेम

दो युवा मित्र आपस में बातचीत करते हुए चले जा रहे थे। किसी विषय पर उनका मत एक न होने के कारण उनमें तू-तू मैं-मैं प्रारम्भ हो गई। कुछ ही देर में बात हाथा-पाई तक पहुँच गई। उनमें झगड़ा हो रहा था और बढ़ता ही जा रहा था। तभी एक सन्त वहां से गुजरे। उन्होंने दोनों के झगड़े में बीच-बचाव किया और उन्हें समझाते हुए बोले कि आपस में प्रेम से रहना कठिन होता है। किन्तु विवाद का होना बहुत आसान होता है। प्रेम ढाई अक्षर का एक छोटा सा प्यारा शब्द है जिसमें हमारे सुखी जीवन का रहस्य छुपा हुआ है। हम प्रेम का वास्तविक अर्थ समझ सकें तो हमारे जीवन का दृष्टिकोण ही परिवर्तित हो सकता है।

प्रेम एक अभिव्यक्ति है यह मन व हृदय के चिन्तन से निकला हुआ आत्मा का उद्गार है। इसमें हम अपना सब कुछ अर्पित व समर्पित कर सकते हैं। इसका कोई रुप या आकार नहीं होता और प्रेम बाजार में भी बिकता नहीं है। यह धर्म, संप्रदाय व जाति-पांति में भेद नहीं करता। यह सूर्य के समान प्रकाशवान होता है। इसका प्रकाश सभी को समान रुप से प्राप्त होता है। इन्सान तो इन्सान है जानवर भी प्रेम की भाषा को समझते हैं। इसमें अद्भुत शक्ति होती है।

हमारे धर्म ग्रन्थों के अनुसार भगवान भी प्रेम के भूखे रहते हैं। आप लोगों की उमर अभी प्रेममय जीवन बिताने की है। आपस में प्रेम की गंगा बहाओ, स्वयं भी प्रसन्न रहो और दूसरों को भी प्रसन्न रखो। इसी में जीवन की सफलता छुपी हुई है। प्रेम से परिपूर्ण जीवन ही वास्तविक जीवन है।

उनकी बातों से दोनों युवक बहुत प्रभावित होते हैं। वे सन्त से क्षमा मांगते हैं और भविष्य में कभी विवाद न करते हुए प्रेम से रहने की सौगन्ध खाते हैं।

चोर-पुलिस

एक दिन हमारे पड़ौस में रहने वाले रस्तोगी जी जो एक विद्यालय में शिक्षक थे, उनके यहाँ आश्चर्यजनक तरीके से चोरी हो गई। वे घर से बाहर सपरिवार एक कार्यक्रम में गये हुए थे। वहां से लौटने पर उन्होंने पूरा माजरा देखा। वे घबरा कर परेशान हो गए। उनके निवास के पास ही पुलिस चौकी थी।

समाचार पत्रों में छपा कि पुलिस की नाक के नीचे चोरी हो गई। पुलिस की नाक कट गई। अगर वास्तव में पुलिस की नाक कट जाती तो बिना नाक की पुलिस कहां जाती? क्या करती? पुलिस तेजी से चोर को खोज रही थी और जिनके यहां चोरी हुई थी उन शिक्षक से चोर का पता पूछ रही थी। सैकड़ों सवाल जैसे चोरी कैसे हुई? चोर कहां से आया होगा? आपका क्या-क्या चोरी गया? जो सामान चोरी गया है वह आप कहां से लाये थे? उसकी रसीदें कहां हैं? नहीं हैं तो क्यों नहीं हैं? आदि आदि...

शिक्षक महोदय पुलिस के प्रश्नों से परेशान हो चुके थे। प्रश्न समाप्त ही नहीं हो रहे थे। वे झल्ला कर बोले- यदि मुझे पता होता कि चोरी हो जाएगी तो मैं घर से बाहर ही क्यों जाता? यदि चोर का पता होता तो आपके पास क्यों आता? तभी एक सिपाही ने अपने आफीसर की ओर इशारा किया और बतलाया कि हमें पता लग गया है कि क्या-क्या चोरी गया है और उसकी अनुमानित कीमत क्या है। हम थाने जाकर आगे की कार्यवाही करेंगे। जब इनकी आवश्यकता होगी तो इन्हें बुला लेंगे। उन्होंने जाते-जाते अंतिम प्रश्न पूछा कि आपको किस पर शक है? उन्होंने बतलाया कि मुझे किसी पर शक नहीं है?

वे वहां से चले गये और जाते-जाते यह आश्वासन भी दे गये कि वे जल्दी ही चोर को खोजकर सामान प्राप्त कर लेंगे। वे शिक्षक महोदय कई दिन तक पुलिस के पास आते-जाते रहे, उनके सामान का और चोर का कोई पता नहीं चल पाया। एक दिन जब वे थाने से लौट रहे थे तो उनके एक परिचित ने उन्हें समझाया कि आप व्यर्थ ही परेशान मत होइये, चोर का पता तो उन्हें उसी दिन लग गया होगा और पुलिस ने उस चोर से कमीशन लेकर मामला रफा-दफा कर दिया होगा।

नेता जी और रक्त दान

एक नेता जी को अपने जन्म दिन पर रक्त दान करने की इच्छा जागृत हुई। यह जानकर उनके अनुनायी आश्चर्य में पड़ गए कि नेता जी ने पहली बार कोई सकारात्मक कार्य करने का विचार किया है वरना अभी तक तो वे केवल रक्तपान की करते रहे हैं। उनका रक्त निकालकर एक ऐसे मरीज को दिया गया जिसे तत्काल रक्त की आवश्यकता थी।

नेता जी का रक्त पाकर वह बीमार ठीक तो हो गया पर अनर्गल प्रलाप करने लगा। वह चिल्लाने लगा- मेरा भाषण विधान सभा में आधा हुआ था अब विधान सभा ही गायब हो गई है। मैं यहां कैसे हूँ। अमुक व्यक्ति के ट्रान्सफर का रूपया आया या नहीं। हमें कल कहां-कहां भाषण देना है। मेरी मालाएं कहां चली गईं इत्यादी।

उसकी बातें सुनकर चिकित्सक आश्चर्य में पड़ गए। यह कौन सी बीमारी इसे हो गई है। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। तभी कम्पाउण्डर ने सुझाव दिया। इस व्यक्ति को थोड़ा सा खून विपक्षी दल के किसी नेता का लगा दिया जाए तो संभव है उसकी प्रतिक्रिया से यह ठीक हो जाएगा। ऐसा ही किया गया। आश्चर्य कि वह मरीज ठीक होकर हंसी-खुशी अपने घर चला गया। तभी चिकित्सकों ने नेताओं का खून मरीजों को देने में सतर्कता बरतना प्रारम्भ कर दिया है।

जीवन दर्शन

मैं और मेरा मित्र सतीश, हम दोंनों आपस में चर्चा कर रहे थे। हमारी चर्चा का विषय था हमारा जीवन क्रम कैसा हो? हम दोंनों इस बात पर एकमत थे कि मानव प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति है और हमें अपने तन और मन को तपोवन का रुप देकर जनहित में समर्पित करने हेतु तत्पर रहना चाहिए। हमें औरों की पीड़ा को कम करने का भरसक प्रयास करना चाहिए। हमें माता-पिता और गुरूओं का आशीर्वाद लेकर जीवन की राहों में आगे बढ़ना चाहिए। मनसा वाचा कर्मणा, सत्यमेव जयते, सत्यम् शिवम् सुन्दरम आदि का जीवन में समन्वय हो तभी हमारा जीवन सार्थक होगा और हम समृद्धि सुख व वैभव प्राप्त करके धर्म पूर्वक कर्म कर सकेंगे।

एक दिन सतीश सुबह-सुबह ही सूर्योदय के पूर्व मेरे निवास पर आ गया और बोला- चलो नर्मदा मैया के दर्शन करके आते हैं। मैं सहमति देते हुए उसके साथ चल दिया लगभग आधे घण्टे में हमलोग नर्मदा तट पर पहुँच गये। हमने रवाना होने के पहले ही अपने पण्डा जी को सूचना दे दी थी हम कुछ ही देर में उनके पास पहुँच रहे हैं। वे वहां पर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे।

चरण स्पर्श पण्डित जी!

सदा सुखी रहें जजमान। आज अचानक यहां कैसे आना हो गया।

कुछ नहीं। ऐसे ही नर्मदा जी के दर्शन करने आ गये। सोचा आपसे भी मुलाकात हो जाएगी। पण्डित जी आज आप हमें किसी ऐसे स्थान पर ले चलिये जहां बिल्कुल हल्लागुल्ला न हो। केवल शान्ति और एकान्त हो। सिर्फ हम हों और नर्मदा मैया हों।

पूजा-पाठ और स्नानध्यान का सामान साथ में रख लें?

नहीं! हमलोग सिर्फ नर्मदा मैया के दर्शन करने का संकल्प लेकर आए हैं।

उत्तर सुनकर पण्डित जी हमें लेकर आगे-आगे चल दिये। वे हमें एक ऐसे घाट पर ले गये जहां पूर्ण एकान्त था और हम तीनों के अलावा वहां कोई नहीं था।

नर्मदा का विहंगम दृश्य हमारे सामने था। सूर्योदय होने ही वाला था। आकाश में ललामी छायी हुई थी। पक्षी अपने घोंसलों को छोड़कर आकाश में उड़ाने भर रहे थे। क्षितिज से भगवान भुवन भास्कर झांकने लगे थे। उनका दिव्य आलोक दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था। हम अपने अंदर एक अलौकिक आनन्द एवं ऊर्जा का संचार अनुभव कर रहे थे। हमें जीवन में एक नये दिन के प्रारम्भ की अनुभूति हो रही थी।

हमारी दृष्टि दाहिनी ओर गई वहां के दृश्य को देखकर हम रोमांचित हो गए। हम जहां खड़े थे वह एक श्मशान था। पिछले दिनों वहां कोई शवदाह हुआ था। चिता की आग ठण्डी पड़ चुकी थी। राख के साथ ही मरने वाले की जली हुुई अस्थियां अपनी सद्गति की प्रतीक्षा कर रही थीं।

सतीश भी इस दृश्य को देख चुका था। वह आकाश की ओर देखकर कह रहा था-प्रभु! मृतात्मा को शान्ति प्रदान करना।

मेरे मन में कल्पनाओं की लहरें उठ रहीं थीं। मन कह रहा था- अथक प्रयास के बावजूद भी उसके घरवाले व रिश्तेदार विवश और लाचार हो गए होंगे और उस व्यक्ति की सांसें समाप्त हो गई होगीं। सांसों के चुकने के बाद तो औपचारिकताएं ही रह जाती हैं। जो यहां आकर पूरी होती हैं।

हम अपने विचारों में खोये हुए थे कि वहां कुछ दूर पर हमें एक संत शान्त मुद्रा में बैठे दिखलाई दिये। हम न जाने किस आकर्षण में उनकी ओर खिचे चले गये। उनके पास पहुँचकर हमने उनका अभिवादन किया और उनके सम्मुख बैठ गये। उन्हें हमारे आने का आभास हो गया था। वे आंखें खोलकर हमारी ही ओर निर्विकार भाव से देख रहे थे। उनकी आंखें जैसे हमसे पूछ रही थीं- कहिये कैसे आना हुआ?

महाराज यह दुनियां इतने रंगों से भरी हुई है। जीवन में इतना सुख, इतना आनन्द है। आप यह सब छोड़कर इस वीराने में क्या खोज रहे हैं।

वे बोले- यह एक जटिल विषय है। संसार एक नदी है, जीवन है नाव, भाग्य है नाविक, हमारे कर्म हैं पतवार, तरंग व लहर हैं सुख व तूफान, भंवर है दुख, पाल है भक्ति जो नदी के बहाव व हवा की दिशा में जीवन को आगे ले जाती है। नाव की गति को नियन्त्रित करके बहाव और गन्तव्य की दिशा में समन्वय स्थापित करके जीवन की सद्गति व दुगर्ति भाग्य, भक्ति, धर्म एवं कर्म के द्वारा निर्धारित होती है। यही हमारे जीवन की नियति है। इतना कहकर वे नर्मदा से जल लाने के लिये घाट से नीचे की ओर उतर गये।

हम समझ गये कि वे सन्यासी हमसे आगे बात नहीं करना चाहते थे। हम भी उठकर वापिस जाने के लिये आगे बढ़ गये। श्मशान से बाहर भी नहीं आ पाये थे कि श्मशान से लगकर पड़ी जमीन पर कुछ परिवार झोपड़े बनाकर रहते दिखलाई दिये।

वे साधन विहीन लोग अपने सिर को छुपाने के लिये कच्ची झोपड़ी बनाकर रह रहे थे। उनका जीवन स्तर हमारी कल्पना के विपरीत था। उन्हें न ही शुद्ध पानी उपलब्ध था और न ही शौच आदि नित्यकर्म के लिये कोई व्यवस्था थी। उनके जीवन की वास्तविकता हमारी नजरों के सामने थी।

उसे देखकर सतीश बोला- अत्यधिक गरीबी व अमीरी दोनों ही दुख का कारण होते हैं। जीवन में गरीबी अभावों को जन्म देती है और अपराधीकरण एवं असामाजिक गतिविधियों की जन्मदाता बनती है। इसी प्रकार अत्यधिक धन भी अमीरी का अहंकार पैदा करता है और दुर्व्यसनों एवं कुरीतियों में लिप्त कर देता है। यह मदिरा, व्यभिचार, जुआ-सट्टा आदि दुर्व्यसनों में लिप्त कराकर हमारा नैतिक पतन करता है।

हमारे यहां इसीलिये कहा जाता है कि- साईं इतना दीजिये जा में कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय। हमें पर उपकार एवं जनसेवा में ही जीवन जीना चाहिए ताकि इस संसार से निर्गमन होने पर लोगों के दिलों में हमारी छाप बनी रहे।

धन से हमारी आवष्यकताएं पूरी हो तथा उसका सदुपयोग हो। यह देखना हमारा नैतिक दायित्व है धन न तो व्यर्थ नष्ट हो और न ही उसका दुरूपयोग हो । मैंने सतीश से कहा कि आज हमें जीवन दर्शन हो गए हैं। हमारे सामने सूर्योदय का दृष्य है जो सुख का प्रतीक है। एक दिशा में गरीबी दिख रही है दूसरी दिशा में जीवन का अन्त हम देख रहे हैं। हमारे पीछे खड़ी हुई हमारी यह मर्सडीज कार हमारे वैभव का आभास दे रही है। यही जीवन की वास्तविकता एवं यथार्थ है। आओ अब हम वापिस चलें।

नेता और खरबूजा

एक पाठशाला में आठवीं कक्षा के छात्रों को खरबूजे पर निबंध लिखने को कहा गया। उनमें से एक छात्र ने खरबूजे की तुलना नेता से करते हुए अपने लिखे निबंध में उसकी अनोखी व्याख्या की।

खरबूजे और नेता में अद्भुत समानता पायी जाती है। खरबूजा भी गोल होता है और नेता भी जनता को गोलमोल उत्तर देता है। खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग बदलता है नेता भी सत्ता की कुर्सी को देखकर अपने में परिवर्तन लाकर कभी पक्ष और कभी विपक्ष में बैठता है। खरबूजा मीठा होता है और खाने में बहुत अच्छा लगता है। नेता की वाणी भी शहद के समान मीठी होती है और इनके झूठे आश्वासन भी लोगों केा सच्चे प्रतीत होते है। खरबूजा जमीन से पानी खीचकर बहुत जल्दी बढता है उसी प्रकार नेता देश के धन को कब और कैसे हड़पकर अपनी जेबें मोटी करते है इसे समझना मुश्किल होता है।

खरबूजा लाल व हरे रंग का होता है। नेता नाराज होने पर लाल और प्रसन्न होने पर हरे रंग का आभास कराता है। खरबूजे की कीमत उसके आकार, प्रकार और वजन पर निर्भर रहती है इसी प्रकार नेता का रूतबा भी उसके दम खम एवं उससे कराये जाने वाले हर काम के प्रकार पर निर्धारित होता है।

खरबूजा जब पक जाता है तो उसका उपयोग शीघ्रता से ना करने पर वह अनुपयोगी हो जाता है। नेता का उपयोग भी सत्ता में रहते हुए ना करने पर वह किसी काम का नहीं रहता। जिस प्रकार खरबूजे का अस्तित्व खाने के बाद समाप्त हो जाता है उसी प्रकार नेता का अस्तित्व भी चुनाव में हारने के बाद समाप्त हो जाता है। नेता और खरबूजे में एक ही असमानता है वह यह कि खरबूजा स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद होता है किन्तु स्वार्थी नेता भ्र्रष्टाचार, रिश्वतखोरी एवं भाई भतीजावाद के कारण देश के लिये नुकसान दायक होता है।

विदाई

विश्व में हमारी सभ्यता, संस्कृति व संस्कारों का बहुत मान-सम्मान है। इसका मूलभूत कारण हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति है। मैं जिस पाठशाला में पढ़ता था वहां की परम्परा थी कि बारहवीं कक्षा में उत्तीर्ण होने के प्श्चात शाला की शिक्षा समाप्त हो जाती थी और छात्र महाविद्यालय में प्रवेश लेकर आगे अध्ययन करते थे। शाला की ओर से ऐसे सभी विद्यार्थियों के लिये एक विदाई समारोह का आयोजन होता था। इसमें शाला के प्राचार्य अपना अंतिम आशीर्वचन छात्रों को देते थे। मुझे आज भी उनके द्वारा दिया गया उद्बोधन प्रेरणा देता है। उन्होंने उस समय कहा था कि जीवन में पढ़ने-पढ़ने में भी फर्क होता है। कुछ छात्र खूब पढ़ते हैं बहुत सारे ग्रन्थ पढ़ डालते हैं किन्तु उन्हें स्मरण कुछ भी नहीं रहता है। कुछ दूसरे छात्र पढ़े को खूब स्मरण रखते हैं किन्तु उन्हें उपयोगी तथ्य के ग्रहण और अनुपयोगी के त्याग का विवेक नहीं होता। अध्ययन लक्ष्य प्राप्ति का एक साधन है और इसका मुख्य उद्देष्य हमारे भीतर विद्यमान गुणों व योग्यताओं को विकसित करना होता है। ज्ञान का विश्लेषण करने वाला छात्र ही उचित समय पर उसका व्यवहारिक उपयोग कर सकता है और जीवन की उलझनों को सुलझाने में समर्थ हो सकता है। इसीलिये विवेक पूर्ण किया गया अध्ययन ही सार्थक और उपयोगी होता है। ऐसे छात्र द्वारा अध्ययन से प्राप्त ज्ञान उसके मानस पर अंकित हो जाता है और किसी व्यवहारिक समस्या के समाधान की आवष्यकता पड़ने पर ज्ञान के संचित भण्डार से स्मृति समुचित जानकारी प्रस्तुत कर उस व्यक्ति को समाज में सम्मानित एवं प्रतिष्ठित करती है। इसके विपरीत विवेक सम्मत अध्ययन न करने वाला छात्र परिस्थिति विशेष से घबराकर किनारा करता हुआ अपने को लज्जित अनुभव करता है और फिर अपमान के भय से समाज से पलायन करने में ही अपना हित समझने लगता है।

शिक्षा जीवन के हर पल को दिशा देती है और विद्यार्थी हर पल से एक नयी शिक्षा लेता है। मनुष्य का भाग्य, हानि, लाभ सभी कुछ विधाता के हाथ में होता है। जो ईमानदारी और परिश्रम से जीवन जीता है विधाता भी उसी का साथ देता है। ऐसे व्यक्तित्व को परिवार समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन का संकल्प, तत्परता और समर्पण का बोध रहता है। उसे ही जीवन में सफलता, शान्ति और सौहार्द्र प्राप्त होता है जो कि जीवन के मूल तत्व हैं। वह अपने जीवन को सार्थक बनाता है।

ईमानदारी की राह, सच्चाई का संकल्प, धर्म पूर्वक कर्म की प्रवृत्ति, जीवन में लगन और श्रम एवं सत्कार्यों का समर्पण कठिन हो सकता है किन्तु असंभव नहीं होता है। हम जागरुक करें अपनी चेतना को और होने दें विचारों का आगमन और निर्गमन। ये विचार सकारात्मक भी होंगे और नकारात्मक भी हो सकते हैं। नकारात्मक विचारों को मनन, चिन्तन और सतत प्रयास से सकारात्मक विचारों में बदलना चाहिए और हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि असफलता ही जीवन में सफलता का आधार बनती है। यह हमें नयी दिशा देकर नये संस्कारों का उदय करती है। जिससे हमारा भाग्योदय भी हो सकता है। हम उभारें अपनी प्रतिभा को और जन्म दें एक नयी मानसिक क्रान्ति को जो हर नागरिक को बनाये स्वावलंबी एवं जागरुक और करे धरती पर विकास की क्रान्ति के नये सूर्य का उदय जिसका सूर्यास्त कभी न हो।

प्राचार्य महोदय के इस भाव पूर्ण उद्बोधन के उपरान्त हम सभी छात्रों ने सामूहिक रुप से प्राचार्य जी एवं शाला के सबसे वरिष्ठ शिक्षक महोदय को सम्मान स्वरुप गुरु दक्षिणा के रुप में स्मृति चिन्ह की भेंट दी। उन्होंने भी सभी छात्रों को गुलाब के पुष्प के साथ शाला स्थानान्तरण पत्र देकर हमारे सुखी, समृद्ध एवं स्वस्थ्य भविष्य का अशीर्वाद देते हुए हमें शाला से विदा किया।

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