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एक माँ ऐसी भी

डॉ. वीरेन वर्मा ने अपने नए जन्मे शिशु को अपनी बाहों में उठाकर सीने से चिपका लिया | सत्रह वर्ष की रीना पिता के पीछे खड़ी थी | उसे समझ में नहीं आ रहा था कैसे रिएक्ट करे ? डॉ. भी कहाँ समझ पा रहे थे लेकिन यह सच था कि अब वे तीसरे बच्चे के पिता बन चुके थे | 

“देखोगी भैया को –”डॉ. वर्मा ने अपनी लाड़ली बिटिया से झिझकते हुए पूछा | 

उसके चेहरे पर एक उत्सुकता लेकिन एक झेंप भी स्पष्ट झलक रही थी | डॉ. साहब ने बेटी के ऊपर दृष्टि डाली और उसके हाथ में शिशु को पकड़ा दिया | 

“डॉ.साहब ! मैडम की नब्ज़ गिर रही है –“ अचानक नर्स ने बाहर आकर बताया और डॉ. साहब बेटी के हाथों में नवजात शिशु को छोड़कर भीतर की ओर भागे जहाँ उनकी अर्धांगिनी रेणुका अंतिम श्वासें गिन रही थी | 

पहले से जानते थे वे कि केस कॉमप्लीकेटेड है, डॉक्टर होने के नाते सारे प्रिकॉशन भी लिए गए थे लेकिन होनी को टालना किसके वश में है ?

कमाल की थी रेणुका भी ! विवाह के बाद दो संतानों को जन्म देने के बाद भी उसके मन में से पढ़ने का भूत उतरा नहीं था | वह एक अध्यापिका बनना चाहती थीं | सोने में सुहागा कि उनकी सास डॉक्टर साहब की माँ रेणुका से बात करते हुए उसकी अदृश्य इच्छा को भाँपने लगीं थीं| 

“ठीक है, तुम पढ़ना चाहती हो तो मैं सँभाल लूँगी बच्चों को ---घर में सब तो हैं ही ।काम सँभालने वाले !”

सास का संबल रेणुका के उत्साह का कारण बन गया और उसने घर का सब काम देखते हुए ग्रेजुएट होने का निर्णय ले लिया | परीक्षा देने के लिए उसे मेरठ जाना पड़ता क्योंकि उन दिनों मंसूरपुर में कोई परीक्षा-केंद्र नहीं था | रेणुका ने प्रथम श्रेणी में बी.ए किया | 

ग्रेजुएशन के बाद जब बारी आई बी.एड की तब उनके लिए मेरठ हॉस्टल में रहना आवश्यक हो गया | हॉस्टल से घर आने के लिए बड़ी परेशानी रहती | रेणुका अपनी शिक्षा के प्रति बड़ी गंभीर रहीं और प्रथम श्रेणी में बी. ए पास किया | बच्चे दो थे, दादी और घर में कम करने वाले काफ़ी थे | डॉ.साहब खुले विचारों के पत्नी को खुश देखना चाहते थे, साथ ही गर्व भी था उन्हें रेणुका पर | कुछ दिन रेणुका ने स्कूल में नौकरी भी की लेकिन उसके मन में बी.एड करने की तरंगें उछल मार रही थीं | 

यह अलगाव दोनों पति-पत्नी को बड़ा भारी पड़ा | बहुत ध्यान रखने के बावजूद न जाने किन लम्हों में रेणुका के गर्भ ठहर गया | सत्रह वर्ष की बिटिया और बारह वर्ष के बेटे के बाद जब उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी फिर गर्भवती है तो वे संकोच में पड़ गए | लेकिन अब कुछ भी करना संभव नहीं था | सच में यह ईश्वर की देन ही था?

बिटिया रेणु बड़ी हो चुकी थी | और साल-दो साल में उन्हें अपनी बिटिया के लिए घर-वर की खोज करनी थी लेकिन वे इस उम्र में पिता बने थे | कब तक छिपाया जा सकता था ? एक दिन तो रेणु को पता चलना ही था | वह झेंपती लेकिन समय से पहले बड़ी होने लगी थी | माँ इस अवस्था में भी अपना शिक्षण का पैशन न छोड़ सकीं लेकिन इस मामले में उनका बैलेंस नहीं रह पाया | 

रेणुका को शुरू से ही काफ़ी कोंप्लीकेशन्स थे, जितना सँभाला गया डॉक्टर साहब ने सँभाला भी लेकिन हुई है वही जो राम रचि राखा | और बेटे को जन्म देकर एक अच्छी शिक्षिका बनकर समाज सुधारने का स्वप्न आँखों में लिए उन्होंने सदा के लिए आँखें मूँद लीं | 

डॉक्टर साहब के भीतर आँधियाँ घुमड़ उठीं लेकिन रेणु ने पिता के हाथ से बच्चे को ले लिया | वह किंकर्तव्यविमूढ़ थी क्या करे ?डॉक्टर साहब बिसुरते हुए मन से पत्नी के कर्मकांड में लगे थे | अस्पताल से एक नर्स रेणु के पास घर पर आ गई थी जो उसे बच्चे को सँभालना सिखा रही थी| 

एक अजब माहौल !जो गया, उसका अंश बिलख रहा था| डॉक्टर साहब की बुद्धि कुछ काम नहीं कर रही थी| कैसा खेल रचा था भाग्य ने ! जिस बच्ची को हाथों हाथ लिया जाता, वह अब बच्चे को संभाल रही थी | डॉक्टर साहब को उसके विवाह की चिंता थी | बहन की शीतल छाया में छोटा प्रिंसु पलने लगा | अब रेणु पर अपने दो भाइयों का उत्तरदायित्व था| पिता को जीवन का मोह ख़त्म हो रहा था लेकिन जिम्मेदारियाँ सामने मुँह फाड़े जैसे चिढ़ाती रहती !

सबको आश्चर्य था, जिस बच्ची के इतने लाड़ लड़ाए जाते थे आज वह सब कुछ भूलकर अपने नन्हे भाई के लिए माँ बनकर खड़ी है ! एक ओर पढ़ाई, एक ओर नृत्य का फैशन, एक ओर दादी का दिनों दिन दादी की उम्र का बढ़ना ! किस-किसको संभालेगी ? ऊपर से रिश्तों का आना शुरू होना | पिता की इच्छा थी कि अब जल्द से जल्द बिटिया का विवाह कर दिया जाए | दो साल के छोटू को छोडकर कैसे जाएगी वह ? प्रश्न बड़ा कठिन था लेकिन उसका उत्तर केवल समय के पास था | 

दिल्ली के एक इनकम टैक्स कमिश्नर के बेटे से जब उसका विवाह तय होने लगा | उसने सबके सामने कहा कि उसका भाई उसके साथ ही रहेगा | 

यह और आश्चर्य जनक बात हुई कि लड़के वालों ने सहर्ष स्वीकार कर भी लिया | सहृदय परिवार के लोगों ने बच्चे को अपना लिया लेकिन उस घर में रेणु बहू थी | वहाँ तीन सासों के साथ उसे रहना था | एक उसकी अपनी सास, एक उसके पति की दादी और एक उसके पति की नानी जिनके एक ही बिटिया थी और पति के जाने के बाद बेटी-दामाद उन्हें अपने घर ले आए थे | 

रेणु पर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ता जा रहा था | सेवक इस घर में भी कई थे लेकिन उन बुज़ुर्ग महिलाओं की अपेक्षा बहू से अधिक थी | एक पूरी होती तो दूसरी सामने आ खड़ी होती | छोटू को भी उसे संभालना था, सास लोगों के सिर की मालिश भी करनी थी, उनके हाथ-पैर भी दबाने होते थे | अब वह बीस वर्ष की हो चुकी थी और उसे माँ की तरह से आगे पढ़ना भी था | 

रात को वह छोटू को गोदी में लेकर पढ़ने बैठती और बैठी-बैठी सोने लगती तब पति की आवाज़ उसे झंखोदकर उसे उठा देती | आखिर उनकी भी कुछ अपेक्षाएँ थीं | रेणु मशीन बनकर रह गई थी | बड़े घर की बेटी, बड़े घर की बहू और भाग्य की रेखा न जाने कहाँ से लिखवाकर आई थी वह | 

डॉक्टर साहब यथाशक्ति बेटी के घर कुछ न कुछ भेजते ही रहते | मिलने आते रहते और एक बात से संतुष्ट होकर जाते कि उनकी रेणु की तारीफ़ हर मुख पर रहती थी | कुछ वर्षों बाद रेणु दो बच्चों की माँ बन गई लेकिन वह केवल उन दो बच्चों को अपना बच्चा नहीं कह सकती थी | वो तीन बच्चों की माँ थी | दो बच्चों की माँ तो शादी के बाद बनी थी लेकिन जिसकी माँ बिन ब्याहे ही बन गई थी उसको वह कैसे भूल सकती थी ?

आज उसके उस बच्चे का विवाह था जिसकी वह माँ नहीं थी, माँ से भी अधिक थी | छोटू भी उसे अपनी माँ ही पुकारता था ‘छोटी माँ ’—और वह हमेशा सोचती रही थी कि वह उसकी बहन थी कहाँ ? माँ ही तो थी | उस बच्चे ने तो अपनी माँ का चेहरा तक नहीं देखा था, वह तो केवल उस दीदी माँ को ही जानता था जिसने आज सेहरा बाँधकर उसे बैंड-बाजों के साथ घोड़ी पर सवार करवाया था | अब उसकी बारी थी अपनी दीदी माँ के लिए कुछ करने की | 

डॉ. प्रणव भारती

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