एकलव्य लेखनीय निष्ठा अप्रतिम-मिथिला प्रसाद त्रिपाठी ramgopal bhavuk द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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एकलव्य लेखनीय निष्ठा अप्रतिम-मिथिला प्रसाद त्रिपाठी


हिन्दू समाज को टूटने से रोकने में उपन्यास एकलव्य

मिथिला प्रसाद त्रिपाठी
निदेशक
कालीदास संस्कृत अकादमी
म.प्र. संस्कृति परिषद, उज्जैन
दिनांक-9.4 .20.07


प्रिय भावुक जी
आप से ली हुई पुस्तक एकलव्य मैं दो दिन में पूरा पढ़ चुका हॅूं । एकलव्य के चरित्र के प्रति समर्पण व आपकी लेखनीय निष्ठा अप्रतिम है। अर्जुन, द्रोणाचार्य क्या श्रीकृष्ण से भी उत्कृष्ट चरित्रांकन करते हुए उपन्यास को समाप्त किया गया है। कई बार कथान्तरों को प्रसंगशःउठा देना, विस्तार दे देना और उसे एकलव्य से जोड़ देना आपकी कल्पना और रचना दोनों का कौशल लगा। ‘जाति’ को रेखांकित करना, वर्णित विवेचनों को चतुराईपूर्वक नकाराना, निजी स्थापना कर देना और शिक्षा सरणि को उकेरते रहना बहुविध प्रकाशित हो गया है। वेणु, एकलव्य, पारस, विजय को भील भी कहते रहना और निषाद सें जोड़ देना मुझे अनेकशः शंकित करता रहा- क्या निषाद और भील अभिन्न हैं?
सामाजिक समरसता के लिए किया गया आपका सर्जन वस्तुतः स्मरणीय,नवीन और गैरपारम्परिक सा भी हो गया है । कई बार ऐसा भी लगा कि आपकी विवेचना उपदेश तक पहुँच गई है। कहीं न कहीं आपका‘ शिक्षक वर्तमान से असंतुष्ट है, प्रतिमानों को नकारते हुए, विद्रोही तक हो गया है। वसुदेव से भी और वेणु से भी एकलव्य को जोड़ दिया, पृथु के बड़े भाई के रूप में प्रतिष्ठा भी दे दी। दो दो के समूहों में वर्णों की मीमांसा के यथार्थ को व्यवहार के समानान्तर प्रस्तुत करके स्वच्छन्द भी और स्वतंत्र भी विचारों को अनलस भाव से प्रकट करने में आप दक्ष भी हैं, पटु भी है और अन्ततः मुखर भी।
एकलव्य को ‘जरा’ व्याध तक पहुँचाकर श्री कृष्ण का गोलोक प्रयाण प्रभास क्षेत्र में अपने ढ़ग से कह दिया है और अर्जुन को भिल्लिनियों से पराजित करा दिया। पुराणों के विश्रृंखलित वर्णनों को जोड़़ने में, उल्लेखों को गूंथने में रचनाकार ने एकलव्यों के गौरव को प्रखरता पूर्वक मुखरित किया है और भारत की वर्तमानकालीन वर्णों,वर्गों और जातियों की जमघट को एक विचारणीय दिशा एवं दृष्टि देने में सफलता मिली। हिन्दू समाज को टूटने से रोकने में यह उपन्यास उपयोगी होगा और सामाजिक सामरस्य का उदाहरण भी प्रस्तुत करेगा। हाँ, आपको कर्ण भी कचोटता ही होगा, आप कुछ कर भी रहे होंगे, अगर हाँ तो क्या? अगर नहीं तो तो क्यों?


शुभकामनाएँ,बधाइयाँ

आपका ही
हस्ता0
मिथिला प्रसाद त्रिपाठी
निदेशक


शोषित जन जातियों का पक्षधर है ‘एकलव्य’ उपन्यास

पुस्तक- ‘एकलव्य’ उपन्यास
लेखक- रामगोपाल भावुक
प्रकाशक- अनुभव प्रकाशन,ई.28 लाजपत नगर
साहिबा बाद,गाजियाबाद-5
समीक्षक- डॉ. कामिनी
पृष्ठ- 176
मूल्य- 200 रु0।
प्रकाशन वर्ष-2011 ई0
डॉ. कामिनी
प्राचार्य शा. महाविद्यालय सेंवढ़ा
महाकवि भवभूति की कर्मस्थली सालवई में जन्मे बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामगोपाल भावुक ने पंचमहल की माटी को गौरबान्वित किया है। मंथन, बागी आत्मा, रत्नावली,एकलव्य और भवभूति जैसे लोक प्रिय उपन्यास हिन्दी साहित्य की अभूल्य निधि हैं।
एकलव्य उपन्यास में एकलव्य की वीरता की ऐतिहासिक कथा को हरिवंश पुराण से सूत्र लेकर लेखक ने अपनी कल्पना शक्ति से लोक कथाओं और जन श्रुतियों का सुन्दर सभायोजन करते हुए एक ऐसे कालजयी जीवंत, प्रेरणाप्रद उपन्यास का सृजन किया है जो शोषितों का संबल है। शक्ति की आधार शिला है। ‘एकलव्य’ उपन्यास में बिम्बों और अन्बेषणों को आधार बनाया है।
द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य से अंगूठा माँगने की गुरु दक्षिणा सामंती सोच और शोषण का सूचक है। इस उपन्यास में महाभारतकालीन पात्रों का संयोजन करके घटनाओं को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। कथा का प्रारम्भ एकलव्य के साथ गिल्ली -डंडा के खेल से प्रारंभ होकर कथा विस्तार लेती है और यदुवंशियों द्वारा एक ऋषि के अपमान की घटना पर संवाद करते हुए एकलव्य के पुत्र निषादराज पारस और अर्जुन से वार्तालाप करते हुए चरमसीमा पर पहुँचकर अपने उदेश्य को प्राप्त करती हुई समाप्त होती है। पारस को श्रीकृष्ण के धराधाम को छोड़कर चले जाने का ज्ञान नहीं है इसलिए पारस-शक्ति का प्रदर्शन करता रहता है। अर्जुन और पारस के कथेपकथनों के मध्य पारस को कृष्ण के धराधाम को छोड़कर जाने का पता चलता है। उपन्यास में द्रुपद और द्रोणाचार्य के संवाद कथा को गति प्रदान करते हुए सोचने के लिए विवश करते हैं।
द्रोणाचार्य बोले-‘द्रुपद, आज मैंने तुम्हारे देश को बलपूर्वक अपने अधिकार में ले लिया। अब तो तुम्हारा जीवन भी मेरे आधीन है। क्या तुम पुरानी मित्रता को बनाये रखना चाहते हो?
द्रुपद व्यंग्य की हँसी में ठहाका मारकर हँसते हुए बोला-‘द्रोण मैं तुम्हारे मंतव्य को विघार्थी जीवन से ही समझ गया था। तुम शिष्य चाहते हो एकलव्य जैसा, जिसका जब चाहा अंगुष्ठ काट लिया और मित्र भी ऐसा ही चाहते हो, जो तुम्हारे संकेत पर अपना शिर कटाने को तैयार रहे किन्तु मैं अपना शीश मित्र के हाथों नहीं शत्रु के हाथें कटाना पसंद करता हूँ ।’
द्रुपद की पीड़ा और स्वाभिमान- कथा को गति प्रदान करती है। ‘एकलव्य’ के बेबाक संवाद उद्वेलित करते हैं। आंदोलित करते हैं और रक्त में ऊर्जा का संचार करते हुए साहस प्रदान करने में सहायक हैं। द्रुपद दुखी इस बात पर हैं कि उन्हें एकलव्य का साथ नहीं मिला।
देश के दूसरे भील लोगों को एकलव्य की यह बात, यह अन्धनिष्ठा और श्रद्धा पसंद नहीं आई,इस कारण वे सब आक्रमक हो गये । विरोध में खड़े हो गये। वे विपरीत स्थिति उत्पन्न होने के लिए एकलव्य को जिम्मेदार मानते हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप वे सभी संगठित होकर द्रुपद कें साथ खड़े होकर आन्दोलन में शरीक हो गये। द्रोणाचार्य के प्रति यह आक्रोश द्रुपद का नहीं समूची जनजातियों का आक्रोश है। और यह आक्रोश गलत नहीं है। वर्ग संघर्ष के खिलाप लामबन्द होने का एलान है। जहाँ शोषितों के प्रति सहानुभूति और संवेदना है। कमजोर और मुफलिसों को उठाने, जगाने का शंखनाद है। यह सोच समाज के उत्थान के लिये बहुत बड़ी उपलब्धि है। भावुक जी की अतिभावुकता का परिणाम है एकलव्य का सृजन। भावुक जी का व्यक्तित्व और कृतित्व गहन विश्लेषण की माँग करता है। लेखक शोषित जन जाजियों को आवाज देता है। शक्ति देता है। ऐसी स्वस्थ विचारधारा की आज राष्ट्र एवं समाज को बहुत आवश्यकता है। जहाँ समानता हो। समानता हो। समरसता हो। विषमता समाप्त हो जाये। सर्वधर्म समभाव का भाव जाग्रत हो उठे। जब अविवेकपूर्ण युद्ध होते हैं तो मानवता सिसकती है और ऐसे युद्ध समाज के लिये विनाशकारी होते हैं। स्वस्थ और खुशहाल समाज तथा राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने के लिये लेखक का प्रयास स्तत्य है।
एकलव्य की शौर्यगाथा के माध्यम से लेखक जनजातियों को जगाता है। लेखक की यह प्रतिबद्धता और सकारात्म सोच कल्याणकारी है। सर्वसुखाय और सर्वजन हिताय का संदेश है। समता की अबधारणा है। बिषमता के प्रति असहमति है। यह कृति उच्चशिक्षा के लिये उपयोगी है। समसामयिक एवं प्रासंगिक है। नवोन्मेष और नवचेतना का उद्घोष करने वाली कालजयी कृति । उपन्यास के विशद विवेचन हेतु गंभीरता तथा भावुकजी जितना भावुक तथा संवेदनशील होने की आवश्यकता है।
जनजातियों में प्रचलित घोटुल संस्कृति का मनोहारी चित्रण है। भीमसेन और हिंडिबा के विवाह से घटोत्कच के घर बर्बरीक उत्पन्न हुआ। जो बहादुर था और धर्मात्मा था। महाभारत के युद्ध में उसकी वीरता की कथा है। कथ्य औा शिल्प तथा अभिव्यक्ति की कुशलता से एकलव्य एक विशिष्ट उपन्यास है और साहित्य की दृष्टि से बहुमूल्य उपलब्धि है। उपन्यास की घटनाओं, कथायें और संवाद विचारणीय हैं। आत्ममंथन की प्रेरणा देते हैं। कमजोरों में आशा और हिम्मत का संचार करती है। यह कृति सब जियें जागें, सब सुखी रहें का संदेश देती हुई अपने उदेश्य को पूरा करती है।
तोड़ डालो चुप्पियाँ इनकी,
निर्झरों का गान बनने दो।
दो इन्हें गर्जन समुद्रों का,
हर लहर तूफान बनने दो।।
‘कैसे मिला एकलव्य’से लेकर 20 अध्यायों में संयोजित एकलव्य उपन्यास की भाषा, भाव और उदेश्य की दृष्टि से सफल है। संवादों में संप्रषणीयता है। घटनायें बाँधतीं है। प्रभावित करती है। आवरण पृष्ठ आर्कषक एवं सुन्दर है। उपन्यास के अन्त में परिशिष्ट के अर्न्तगत श्री हरिवंशपुराण में एकलव्य के जन्म की कथा की प्रमाणिकता का उल्लेख है। भविष्यपर्व, संभवपर्व में एकलव्य की अंगुष्ठदान की कथा के सूत्र एवं संदर्भ हैं। काफी श्रम और मंथन के पश्चात् यह घरोहर उपन्यास साहित्य जगत् को प्राप्त हो सका। इतनी श्रमसाध्य और महत्वपूर्ण कृति का उतना मूल्यांकन सुधी पाठकों द्वारा नहीं किया गया जितना होना चाहिए था। इस उपन्यास पर बार बार चर्चा होनी चाहिए।
भावुक जी के शब्दों में ‘जातिवाद जब तक निर्मूल नहीं होगा, नीतियाँ प्रभावित होतीं रहेंगीं। एकलव्य में भावुक जी ने जातिवाद की शल्य क्रिया की है। संभवतः यही साहस अभिजात्यबर्ग को आँसा होगा। इसी प्रकार भावुक जी की रत्नावली भी तमाम वर्जनाओं को तोड़कर दलितों को शिक्षित करतीं हैं। समय की पर्तों में छुपी ऐसी कई घटनायें भावुक जी के शोध के पश्चात् ही सामने आईं हैं। प्रमोद भार्गव के अनुसार-‘ भावुक जी जनवाद से प्रभावित हैं। नोंन नदी के पावन कछारीय क्षेत्र से प्रकृति के मनोरम सौंदर्य को हृदय में आत्मसात् किया है। ग्रामीण अंचल की भाषा ‘पंचमहली’ को और खूबसूरत बनाया। अनेक बड़े बड़े सम्मानों से भावुक जी नवाजे जा चुके हैं।’ ‘मानस मृगेश विशिष्ठ हिन्दी सम्मान’ के अवसर पर अशेष बधाई एवं मंगल कामनायें। ‘बागी आत्मा’ के दबंग लेखक की कलम के समक्ष मैं विनत हूँ। न बिकने वाली यह सशक्त कलम हम सबकी प्रेरणा बने- इसी संभावना के साथ पुनः अभिनन्दन और वंदन।
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