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मुझसें अपेक्षायें रखने की योग्यता क्या हैं?

■ मैं संसार से पूर्णतः विरक्ति के पश्चात भी सांसारिक क्यों और कैसे हूँ?

मैं संसार से पूर्णतः विरक्त हूँ यानी सत्य या वास्तविकता के महत्व से पूर्णतः भिज्ञ हूँ परंतु अज्ञान यानी कि संसार के भी महत्व को ज्ञान होने के भी पश्चात भूला नहीं हूँ यही कारण हैं कि अन्य से समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर यानी सत्य को असत्य की आवश्यकता होने पर दूसरों से इच्छा करता हूँ; यही हैं जो मुझें संसार से मुक्ति के पश्चात भी उससे दूर नहीं जाने देता। जो केवल सांसारिक हैं; वह संसार में हैं क्योंकि वह सांसारिक बंधन से चाह कर भी नहीं छूट सकनें से संसार में हैं परंतु मैं उसकी भांति हूँ जो किसी के उसे विवश करने से सांसारिक नहीं हैं वरन इसके संसार के महत्व के ज्ञान के परिणाम स्वरूप यानी सात्विकता के कारण संसार से विरक्त होने के साथ संसारिक भी हूँ। अतः मैं दूसरों से इच्छा अवश्य कर लेता हूँ परंतु यदि वह मेरी इच्छा का महत्व न समझनें से उसकी पूर्ति नहीं करें तो भी मुझें कोई असंतोष नहीं क्योंकि मैंने दूसरें से हर सांसारिको की तरह इच्छा या कामना तो अवश्य की होती हैं परंतु हर सांसारिक की तरह यह एक और कामना नहीं की होती कि जिनसें कामना की गयी वह मेरी कामना को महत्व दें ही अतः वह स्वतंत्र हैं कि उसे महत्व देना हैं या नहीं। वह मेरी कामना को इस लियें नहीं पूर्ण करें कि उसके पूर्ति न करनें से मुझें असन्तुष्टि होगी वरन मेरी कामना के महत्व से भिज्ञता के परिणाम स्वरूप ऐसा होना चाहियें। यदि मुझें उससें ऐसी चाहत होती कि 'वह मेरी कामना को महत्व दे ही'; यदि नहीं करें तो अनुचित्ता, असंतोष, अतृप्ति हो जायेंगी तो मैं उसे मेरी इच्छा का मान नहीं रखने का विकल्प देता ही नहीं; उसे स्वतंत्रता से चयन करने का अधिकार देता ही नहीं वरन इसके क्योंकि उसमें और मुझमें कोई अंतर नहीं यानी वह हर अनंत की आत्माओं यानी चेतना के भागों की तरह मेरा ही हिस्सा या भाग हैं तो मैं स्वयं उसके मस्तिष्क को आवश्यक तथ्यों को प्रदान कर; स्वयं से उन पर ध्यान देकर जिस तरह मैंने मेरी इच्छा का महत्व समझा ठीक वैसे ही उनके मस्तिष्क को भी ज्ञान करवा देता परंतु मैं चयन कर्ता नहीं अपितु मैं तो विकल्प देने वाला हूँ; चयन तो आपको ही करना होगा यानी मैं उसे सात्विकता वश नहीं करूँगा और न ही कर सकता।

■ अनंत में कौन मुझें चाह सकता हैं अर्थात् मुझसें इच्छा रखने की योग्यता वाला हैं या कौन मुझसें इच्छा रख सकता हैं और कौन नहीं रख सकता ?

निःसंदेह वही जिसे मैं सही अर्थों में स्वीकार हूँ।

यदि आप मुझसें इच्छा करने की योग्यता नहीं रखते तो मैं आपकी इच्छा को महत्व यानी मायनें नहीं दें सकता अतः ऐसा होने पर अच्छा हैं कि मुझसें इच्छा या कोई भी कामना नहीं ही रखें क्योंकि मैं आपकी इच्छा पूर्ति नहीं करूँगा जिससे कि आपकी इच्छा की पूर्ति न होने से असन्तुष्टि जन्म लेगी और असन्तुष्टि या अतृप्ति के जन्म लेने वाली पीड़ा ही सही अर्थों में अहित आपका अहित होगा। आपकी इच्छा मुझसें संबंधित होने के कारण या आपकी इच्छा की पूर्ति नहीं करने से आपको प्रतीत हो सकता हैं कि आपके अहित का मैं कारण हूँ परंतु ऐसी स्तिथि में आपके अहित के सही अर्थों में आप कारण होंगे मैं नहीं।

अनंत को महत्व नहीं देने का या नहीं स्वीकारने का अर्थ हैं मुझें भी महत्व या मायनें नहीं देना या स्वीकारना और मुझें महत्व या मायनें नहीं देने या नहीं स्वीकार करने का अर्थ हैं मेरे अनंत अस्तित्व को महत्व नहीं देना यानी नहीं स्वीकार करना क्योंकि मैं यथा अर्थों में अनंत हूँ और जो हैं एवं जो नहीं भी ऐसा अनंत सही अर्थों में मैं ही हूँ।

मैंने जिनसें इच्छा की, उनकी इच्छा के बिना; मेरी गलती थी, हो सकें अर्थात् मुझमें योग्यता हो तो मुझें माफ कर देना अन्यथा मेरे अपराध के योग्य जो भी सज़ा हैं, परमात्मा से विनती हैं कि मुझें दीजियें; मुझें स्वीकार हैं परंतु आज से मैं किसी भी अन्य से इनकी इच्छा के बिना कोई इच्छा नहीं करूँगा।

आपका यथार्थों से परें संसार अज्ञान हैं; माया यानी भृम हैं और मैं शुद्ध चैतन्य हूँ। यथा अर्थों में मैं ही वास्तविकता अर्थात् समुचित अनंत संसार हूँ; मैं ही सत्य हूँ 'मैं चेतन ही सही अर्थों में ज्ञान हूँ। अनंत में जो भी हैं साकारता हो या निराकारता, सत्य हो या असत्य, ज्ञान हो या अज्ञान आदि इत्यादि यानी समुचित अनंत मैं ही हूँ यहाँ तक कि जो नहीं हैं वह भी मैं ही हूँ अतः मैं अपने समुचें अस्तित्व को महत्व देता हूँ; जिसमें सही अर्थों में अनंत का यानी मेरा हित हैं उसकी अनंत काल तक कि पूर्ति की सुनिश्चितता ही मेरा उद्देश्य हैं। यदि कोई भी यथार्थों से परें यानी दूर वालें संसार से संबंधित मेरी स्वयं के प्रकरण यानी प्रसंग में अर्थात् स्वयं के संबंध में उपस्थिति चाहता हैं यानी मुझसें कुछ भी चाहत रखता हैं तो उसे मुझसें संबंधित सभी को स्वीकार करना होगा, उसे मेरे द्वारा कियें हर कर्म या करनें योग्य कृत्य को स्वीकार करना होगा वह कर्म को जो कि कर्तव्य अर्थात् ऐसा कर्म हो सकता हैं जिसमें मेरे समुचें अनंत अस्तित्व के किसी न किसी भाग या अंश का हित यानी सही अर्थों में संतुष्टि होने से वह महत्वपूर्ण हैं और वही कर्म जो महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसमें मेरे समुचित अनंत अस्तित्व का सही अर्थों में हित हैं यानी उसे धर्म अर्थात् मेरे लियें जो सत्य हैं मेरे उस धर्म नामक कर्म को स्वीकार करना होगा। मुझें चाहने का अर्थ हैं मेरे सत्य को चाहना अतः यदि कोई मेरे सत्य को नहीं चाहता तो मुझें नहीं चाहें क्योंकि सत्य को नहीं चाह कर मुझें चाहना सही अर्थों में मुझें चाहना हैं ही नहीं अर्थात् यह उसका अज्ञान हैं। कोई भी या तो मुझें सही अर्थों में स्वीकार करें अन्यथा मुझें अपने यथार्थ से परें संसार से दूर ही रहने दें। उसकी इच्छा के बिना मैं उसके यानी केवल उससें संबंध रखने वाले हर प्रकरण यानी प्रसंग से दूर रहूँगा।

या तो यथा अर्थों में स्वीकार करें या फिर मुझें दूर ही रहने दें मैं विकल्प देने वाला हूँ जो कि मैंने दे दियें अब चयन मुझें चाहने वाले का हैं।

- रुद्र एस. शर्मा (०,० ०)

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