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Six Quotes

About Writer & His Writings
Time - 3 May At 08:32

"
मैं एक चिंतक हूँ और प्रति पल, प्रति क्षण ज्ञान की प्राप्ति ज्ञान के मूल स्रोत (चिंतन) से करता रहता हूँ। ज्ञान के अन्य स्रोतों से ज्ञान प्राप्ति को महत्व नहीं देता क्योंकि वहाँ से ज्ञान तो प्राप्त हो जाता है परंतु उसके सही मायने ज्ञान के मूल स्रोत से ही प्राप्त होते है। अन्य स्रोतों का सहारा तो केवल इसकी पुष्टि के लिये करता हूँ, उस सूत्र के माध्यम् से जो मैंने चिंतन से ज्ञात किया है; उसकी कसौटी पर कस अन्य स्रोतों के ज्ञान की पुष्टि करने हेतु मैंने। जब भी ऐसा कुछ ज्ञात होता है, जिसे की सभी के लिये जानना महत्वपूर्ण है, उसकी अभिव्यक्ति यथा संभव मैं परम् अर्थ (हित) की सिद्धि हेतु अपने लेखों, कविताओं तथा उद्धरणो के माध्यम से कर देता हूँ परंतु जिस तरह मूल स्रोत (चिंतन) को छोड़ अन्य स्रोतों से ज्ञान की प्राप्ति मेरे लिये उचित नहीं क्योंकि जब तक उस ज्ञान के सही मायनों को नहीं समझ सकता, वह मेरे लिये बाबा वचन [थोड़ी सी भी या पूरे तरीके से समझ नहीं आ सकने वाली या तुच्छ/व्यर्थ बातें (ज्ञात होने वाला ज्ञान)] ही है ठीक आपके लिये भी यह वही तुच्छ या समझ से परे ज्ञान है अतः आप भी मेरी ही तरह चिंतन से इसे प्राप्त कीजिये तथा मेरी ही तरह उस सूत्र के माध्यम् से जो आप मेरी तरह चिंतन से ज्ञात करोगें; उस सूत्र की कसौटी पर कस मेरे द्वारा दिये ज्ञान की पुष्टि करोगें तभी उसके सही मायनों में ज्ञात कर सकोगें। "

- © आर. एस. शर्मा

【Date - 30 Aug. 2021】

Time - 09:18

" आप परमात्मा या उसके ज्ञान के कितने निकट हो, यह इससे ज्ञात होता हैं कि आपके कारण, आपसे संबंधित कितने कम असंतुष्ट हैं। "

- © आर. एस. शर्मा

Time - 10:15

" यदि अज्ञानता के वशीभूत होकर अपने विकारों की संतुष्टि हो स्वयं की संतुष्टि मानोगे; तो कभी संतुष्ट नहीं हो पाओगे क्योंकि संतुष्ट भाव होते हैं; विकार कभी संतुष्ट नहीं होते। यदि आपके अहंकार, क्रोध, मोह, घृणा, आलस्य आदि असंतुलित अतः अनियंत्रित भाव किसी अनयं के कारण संतुष्ट नहीं हो रहें हैं; तो उसे अपनी असंतुष्टि या अप्रसन्नता का कारण समझना मूर्खता हैं। वह आपके विकारों की असंतुष्टि का कारण हैं, आपका नहीं। यह तो आपकी अज्ञानता हैं कि आपने अपनी विकारों की संतुष्टि को स्वयं की संतुष्टि या प्रसन्नता मान लिया हैं। जो आपके विकारों को कभी संतुष्ट नहीं करना चाहें, वह आपका सबसे बड़ा हितेषी हैं और जो अज्ञानता वश ऐसा नहीं चाह सकें, वह आपकी तरह आपका हितेषी नहीं हो सकता। आपकी संतुष्टि अर्थात् प्रसन्नता आपके विकारों की संतुष्टि से परे हैं; यदि परम् संतुष्टि चाह लोगें तो आनंद ही आनंद हैं। "

- © आर. एस. शर्मा

Time - 11:25

" परमात्मा आपसे प्रथक नहीं हैं; वह आपमें ही हैं। जागरूकता नहीं होने के कारण, आप ध्यान नहीं दे पातें और ध्यान नहीं दे सकनें के कारण उसकी अनुभूति भी नहीं कर पातें। अनुभूति नहीं तो ज्ञान नहीं और ज्ञान नहीं तो समझ सकनें हेतु कोई आधार भी नहीं होता। इस कारण उसे समझ पाना भी असंभव लगता हैं। यदि परमात्मा पर ध्यान दें सकनें कि योग्यता प्राप्त करना हैं तो भक्ति योग मार्ग हैं। यदि परमात्मा पर ध्यान देकर; उनका अनुभव करना चाहते हों, तो कर्म योग मार्ग हैं। यदि परमात्मा को उसकी अनुभूति के आधार पर समझना चाहते हो, तो ज्ञान योग इस हेतु मार्ग हैं। भक्ति, कर्म तथा ज्ञान इन तीनों योगों के बिना परमात्मा का पूर्णतः साक्षात्कार संभव नहीं। "

- © आर. एस. शर्मा

Time - 16:59

" हम वर्तमान में जो हैं; वह अपनी परिस्थितियों तथा उनके द्वारा हमारें समक्ष रखे गये विकल्पों में से कियें गयें चयनों का परिणाम हैं। अब मनुष्य हो, देवता, दानव या त्रिदेव ही क्यों न हों; नियति या नियत होने की स्तथि को जान सकते है परंतु परिवर्तित या नियंत्रित नहीं कर सकते। नियति एक गणित चला रही है; उससे सभी भिज्ञ तो हो सकते हैं परंतु बदल नहीं सकते अतः हम सभी पूर्णतः समान हैं। हाँ! अनंत के छोटे से छोटे कण से लेकर समूचा अनंत भी पूर्णतः समान हैं। हमसें न तो कोई बड़ा हैं और न ही कोई छोटा क्योंकि हम जो है वह जिन परिस्थितियों तथा हमारें चयन के कारण हैं और हमारी ही तरह परिस्थिति तथा हम जैसा चयन उचितानुकूल लगने की शक्ति किसी को भी प्राप्त हो सकती हैं। नियति के लिये क्योंकि हमारी ही तरह सभी समान हैं। सभी समान है यही सिद्ध करना उसका उद्देश्य है; जो कि हमारें माध्यम् से वह सिद्ध करती आ रही है; अभी कर रही हैं और आगें भी अनंत काल तक करती रहेगी। "

- © आर. एस. शर्मा

Time - 17:17

" नियति या नियत होने की अवस्था (नियमन, नियम का बंधन, निग्रह, दमन) अनंत में छोटे से छोटे कण से लेकर समूचा अनंत इसके बंधन में बंधा हैं। वह त्रिदेव- त्रिदेवी, देवी-देवता, मनुष्य, दानव आदी कोई भी क्यों नहीं हो; इसे जान सकते हैं परंतु उसमें कदापि अपने अनुकूल अनुचित परिवर्तन नहीं कर सकते। इसका बंधन उचितानुकूल है क्योंकि इससे सदैव अनंत का हित ही हैं। नियति के लिये सभी समान हैं और समता ही अनंत की परम् वास्तविकता हैं यह सिद्ध करना इसका उद्देश्य; जिसकी पूर्ति सदैव यह करती रहेगी। "

- © आर. एस. शर्मा

Time - 17:33

" दोहराव किसी का भी हो, होता एक अंतराल के बाद ही है। यदि आप परिवर्तनात्मक है; तो उससे परेशानी कैसी? परंतु परिवर्तनात्मक होना भी तो महत्वपूर्ण है; इसके बिना आप आपसे संबंधित सभी के साथ न्याय कैसे करेंगें? क्या स्वयं से संबंधित सभी को एक ही समय पर महत्व देना संभव है? नहीं! यही कारण हैं कि परिवर्तन अनंत हैं। परमात्मा किसी के साथ अन्याय नहीं करते; जिसका जितना महत्व होता हैं; उसे उतना महत्व देते हैं और अनंत में सभी पूर्णतः समान हैं यही कारण है कि; अनंत में जो भी हैं, समान महत्वपूर्ण हैं। "

- © आर. एस. शर्मा

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