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मनोभाव-रामगोपाल भावुक

आलेख

मनोभाव

रामगोपाल भावुक

हम साहित्यकार, भावुक, मनमस्त जैसे उपनाम अपनाकर साहित्य के क्षेत्र में कार्य करने लगते हैं। मेरी दादी माँ मुझे भावुक कहा करती थी। कहती थीं तू तो भावुक है। मैंने यही नाम साहित्य लेखन में स्वीकार कर लिया है।

एक दिन इसी नाम के बारे में भावुक मन से मानव मनोवृतियों का विश्लेषण करने बैठ गया।

मनुष्य सुख-दुःख की अनुभूति लेकर ही इस संसार में पैदा होता है। रोना और हँसना इन्हीं अनुभूतियों के प्रमाण हैं।

इस सुख और दुःख की अनुभूति के रास्ते से चलने पर कुछ मनोभाव अनायास ही मानव स्वभाव में आ टपकते हैं और कुछ मनोभावों को उत्पन्न करने के लिये सतत् अभ्यास करना पड़ता है।

मनोभावों का बदनाम नाम आवेश है। साधारण नाम विचार और उससे श्रेष्ठ नाम भावुकता और उससे भी श्रेष्ठ नाम चिन्तन हैं।

मानव स्वभाव अक्सर साधारण स्थिति में ही विचरण करता रहता है। श्रेष्ठ स्थिति में वह कम ही पहुँचता हैं। किन्तु जब भी वह श्रेष्ठ स्थिति में पहुँचता है वहाँ उसे मानसिक श्रम का सामना करना पड़ता है। इसलिये वहाँ से भागकर अपनी साधारण स्थिति में ही बारम्बार लौट, आ जाता है।

जब भी श्रेष्ठ विचारों की स्थिति बनती है, उस समय उसमें त्याग की भावना निहित हो जाती हैं। पेड़-पौधों और कीट-पतंगा, पशु-पक्षियों के प्रति उसके हृदय में सहृदयता की भावना उपस्थित रहने लगती है। उस समय उसका जीवन संसार के लिये सार्थक हो जाता है और मेरी दृष्टि में वही इस संसार का सच्चा प्रतिनिधि भी हैं। इन मनोंभावों के अनुसार भी मनुष्य जाति का वर्गीकरण किया जा सकता है। शायद जाति प्रथा के उदय के लिये यही बातें उत्तरदाई रही होंगी।

श्रेष्ठ प्रवृति के लोगों में भावुकता अधिक होती है। उनसे श्रेष्ठ लोगों में चिन्तन किन्तु साधारण लोगों में सोच की स्थिति अधिक पाई जाती है और निम्न श्रेणी के लोगों में आवेश। उससे नीचे की स्थिति में क्रोध व चिड़चिडेपन की आती है।

विचारों की बढ़ी हुई श्रंखला भावुकता कही जाती हैं। भावुकता में लोग अपना नुकसान और दूसरों का फायदा तक कर डालते हैं। बड़े-बड़े त्यागी पुरुषों का निर्माण भी भावुकता ही करती हैं रामायण जैसे ग्रंथ की रचना की शुरूआत भावुकता में ही हुई है।

किसी के घर में आग लगी हैं। माँ बाहर खड़ी-खड़ी चिल्ला रही है-बचाओं, मेरे बच्चें को बचाओं। भीड़ बढ़ रही है। किसी को अन्दर जाने का सहास नहीं हो रहा है। यकायक कोई बहाँ आता है। दृश्य देखते ही आग की लपटों में चला जाता है। क्या कहेंगे? ऐसे मानव के बारे में। मैं तो उसे भावुक ही कहूँगा। यदि वह सोच की स्थिति में आता तो वह सोचता ही रह जाता कि इस स्थिति में वह क्या करे?क्या नहीं करे? अन्त में वह सोचकर अपने को खतरे में न डालता।

सोच- समझकर काम करने वाले तो प्रायः बहुत से लोगों को देखा जा सकता है। इस प्रवृति के लोग अधिक होते हैं अन्य प्रवृतियों के कम। यह विचारों की सामान्य स्थिति है।

इससे निम्न स्थिति आवेश है। आवेश में तो बस एक क्रोध जैसे किसी मनोभाव से संयुक्त पुट होता हैं। उसके सामने तो तत्क्षण सोचा हुआ कार्य ही होता है। इससे आगे वह कुछ सोच ही नहीं पाता। उसकी तर्कबुद्धि समाप्त हो चुकी होती है। वह बदले जैसे किसी मनोभाव की जकड़ में आ जाता है।

भावुकता दैनिक जीवन के विचारों की श्रृखला हैं। भिखारी दरबाजे पर पर भीख माँगने आता है। उसकी दशा देखकर उसे तत्काल कुछ दे देते हैं या जो वह कहता है वह सामर्थ के अनुसार देने का प्रयास करते हैं। भावुकता में दया और करुणा जैसे मनोभाव उस समय चित्त में प्रविष्ठ हो जाते हैं। उस समय उसमें सही निर्णय की छमता में कमी आ जाती है। उस भिखारी को क्या देना उचित है? यह विचार ही मन में नहीं आ पाता।

अब हम आवेश, सोच, भावुकता और चिन्तन के अलग अलग गुण-दोषों पर विचार करें।

आवेश और भावुकता के निर्णय टिकाऊ नहीं होते हैं। यह ठीक है कि आवेश की अपेक्षा भावुकता के निर्णय अधिक स्थिर होते हैं। आवेश का सम्बन्ध क्रोध के अधिक निकट होता है। भावुकता का सम्बन्ध करुणा,दया और श्रद्धा से होता है। आध्यात्म के क्षेत्र में भावुक जन अधिक सफल होते देखे जाते हैं। भावुकता ही ईश्वर मिलन में कारगर है।

भावुकता जैसे ही सोच-विचार के सम्पर्क में आई कि इसका वेग कम हो जाता हैं। आदमी तर्क करने लगता है और आवेश में जैसे ही सोच ने प्रवेश किया कि आदमी कुतर्क करने लगता है। आवेश कठोर भावना है जबकि भावुकता कोमल।आदमी के मन में जैसे ही संकल्प- विकल्प उठने लगते हैं। सोच को अस्थिरता मिलती है वह क्रिया करने को आतुर हो उठता है।

सोच हल्के स्तर का चिन्तन हैं। इसमें काम चलाऊ बुद्धि का प्रयोग होता है। चिन्तन में अधिक से अधिक बुद्धि का उपयोग करना पड़ता है। विचारक प्रकार के लोग इसी श्रेणी के होते हैं। विचारकों में दार्शनिकता का पुट अधिक देखने को मिलता है। इसका अर्थ हुआ चिन्तन का सम्बन्ध दर्शन से है।

बिना विचारे जो करे सो पाछें पछिताय।

काम बिगारे आपनों जग में होत हँसाय।।

इसमें कवि ने सोच विचार के महत्व को जन जीवन को समझाने का प्रयास किया है। चिन्तन उत्कृष्ट विचारों की कड़ी हैं। उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने में गहरा सोच विचार यानी चिन्तन आवश्यक है। चिन्तन का सम्बन्ध आत्मा की गहरी तहों से जुड़ जाता है। कवि ,साहित्यकार, साधू, सन्यासी,और समाज सुधारक इसी श्रेणी में आते है।

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सम्पर्क- रामगोपाल भावुक कमलेष्वर कालोनी डबरा भवभूति नगर जिला ग्वालियर म. प्र. 475110 मो0 9425715707

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