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गुजरात कैसा लगा

एक पाँव रेल में-

गुजरात कैसा लगा?

रामगोपाल भावुक

यूँ तो व्यथितवाद की हवा आदिकाल से ही चलती चली आई है। महर्षि वाल्मीकि के हृदय में क्रौंचवध के बाद जैसे ही संवेदना ने प्रवेश किया, रामायण जैसे महाकाव्य की रचना हो सकी। जिसके परिणाम स्वरूप प्रभु श्री राम सहजता से हमारे सामने आ सके हैं।

महाभारत काल में द्रोपदी को नग्न करने की कोशिश न की जाती तो शायद न तो महाभारत का युद्ध ही होता और ना ही भगवत गीता का सृजन।

ऐसे ही तथ्यों को मन में विचारते हुए मैं गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदावाद के कुलपति जयसिंह व्यथित के आमंत्रण पर साहित्य के महा संगम में स्नान करने गुजरात हिन्दी विद्यापीठ अहमदावाद जा पहुँचा। गुजरात में हिन्दी की दुर्दशा से व्यथित होकर ही जयसिंह व्यथित जी नेे यह कदम उठाया था।

दूूसरे दिन ही गुजरात प्रान्त के राज्यपाल महामहीम सुन्दरलाल भण्डारी की उपस्थिति में देश के जाने माने हिन्दी के साहित्यकारों का सम्मान का कार्यक्रम रखा गया था।

कार्यक्रम में सबसे पहले जयसिंह व्यथित जी पर एक अभिनन्दन ग्रंथ का विमोचन राज्यपाल जी द्वारा किया गया। इस उपलक्ष्य में सबसे पहले व्यथित जी को शाल श्रीफल एवं ताम्रपत्र देकर सम्मानित किया गया।

इसके पश्चात तो देश के वहाँ उपस्थित साहित्यकारों में डॉ. आशुतोष पाण्डे, चन्द्रसेन विराट और डॉ.कोमल शास्त्री जैसे पचास साहित्यकरों को उनके साहित्यिक अवदान के लिए अथवा उनकी कृतियों पर उन्हें शाल,श्रीफल एवं ताम्रपत्र देकर राज्यपाल भण्डारी जी द्वारा सम्मानित कराया गया। इसमें हमारे नगर कें प्रिय कवि धीर को उनके साहित्यिक अवदान के लिए एवं मुझे रत्नावली उपन्यास पर सम्मानित किया गया था।

लग रहा था इस बहाने सभी अपनी- अपनी व्यथासे निजात पा रहें हैं।

कार्यक्रम के अनुसार दूसरे ही दिन सभी एक सौ पचास साहित्यकारों के साथ गुजरात दर्शन का कार्यक्रम शुरू हो गया। साहित्यक यात्रा के लिए दो सजी- सबँरी बसें चलने के लिये गुजरात हिन्दी विद्यापीठ के अहाते में तैयार खडीं थीं। उन पर विशेष साहित्कि यात्रा के बेनर शोभायमान हो रहे थे। शाँय चार बजे सभी अपने अपने बैग लेकर बसों में आ बैठे। अपने- अपने परिचितों को अपने निकट बैठा कर बातें करने लगे। कुछ अपने गीत गुनगुना रहे थे कुछ अपनी डायरी खोलकर कविता की पक्तियाँ बाँच कर पास बैठे मित्र को सुनाकर पता नहीं किस व्यथा से निजात पा रहे थे।

उन सब में शायद पूरी जमात में मैं ही अकेला कथाकार था जो इधर - उधर बैठे साहित्यकारों के चेहरों के भाव पढ़ने की कोशिश कर अपने को उपेक्षित सा महसूस कर रहा था। मेरे उपन्यास को वहाँ कौन पढ़ेगा। रातभर कवि गोष्ठियों का दौर चलता रहा। जहाँ बस खड़ी होती कवि गण अपनी- अपनी चौकडियाँ लिए उतरते। जरा इसे सुने- कह कर सामने वाले पर उस चौकडिया को दाग देते।

रात भर बस दौड़ती रही। तेरह घन्टे की यात्रा के बाद बस ने हमें सुबह होने से पहले होते ही द्वारिकापुरी पहुँचा दिया।

द्वारिकाधीस की मंगल आरती का समय हो रहा था। जत्दी- जल्दी दैनिक कार्यों से निवृत होकर सभी मंगला आरती में पहुँच गये। बहुत भीड़-भाड़ थी। भीड़ से बचने, मैं ठीक मन्दिर के सामने एक चबूतरे पर जाकर खड़ा हो गया। वहाँ से द्वारिकाधीस की ऐसी झाँकी दिखी कि मैं उसे देखते ही रह गया दूसरे ही क्षण बैसी झाँकी नहीं दिखी। चलते समय भी बैसी झाँकी नहीं दिखी। तीन वर्ष बाद जब दुवारा द्वारिकापुरी, पत्नी को साथ लेकर गया था तो बैसे दर्शन नहीं हुए। वे दर्शन चित्त में आज तक समाये हुए हैं। इस बात के लिए मैं मन ही मन प्रभु का आभार मानता रहता हूँ।

इस समय तो मुझे उन दिनों डॉ.कोमल शास्त्री से सुनी कविता याद आ रही है- जर्रा जर्रा प्यासा रहता,

कालिन्दी की कथा न होती।

कर्म योग के लिए कृष्ण को,

मन में कोई व्यथा न होती।

चीर चुराने वाले कर से,

कैसे कोई चीर बढ़ाता।

कोई अर्जुन किसी मत्स्य की,

आँखों में कब तीर चलाता।

योजनगंधा के जीवन में,

कोई रद्दो बदल न होता।

आँखों के आँसू मर जाते,

बादल का दिल सजल न होता।।

चाय नास्ते के बाद सभी भेंट द्वारिका के लिये बसों में अपनी- अपनी सीटों पर बैठ गये। कुछ ही समय में समुद्र के किनारे बस ने उतार दिया। वहाँ से पानी के जहाज द्वारा भेंट द्वारिका पहुँच कर द्वारिका धीस के दर्शन किये।

समुद्र के मध्य टापू पर प्रभुका बास! कैसी- कैसी? लीलायें व्यथा ने संजोई है। सर्व शक्तिशाली होकर भी अपना घर द्वार छोड़कर यहाँ आकर बसे। ऐसी व्यथायें जाने कैसे- कैसे परिवर्तन कराती रहतीं हैं!

वहाँ से लौटकर आये तो भोजन तैयार हो चुका था। श्री कृष्ण की लीलाओं पर चर्चायें हम आपस में भोजन के समय गहनता से करते रहे।

थोडी देर के विश्राम के बाद सभी द्वादस जोर्तिलिंगों में प्रसिद्ध नागेश जोर्तिलिंग के दर्शन करने निकल पड़े। भक्ति भाव से उनके दर्शन के बाद बस पोर बन्दर कें रास्ते पर थी।

पोर बन्दर पहुँचते- पहुँचते शाम हो गई। सुदामा जी का मन्दिर देखकर लगा-‘ आश्चर्य सुदमा जी और महात्मा गाँधी जी एक ही स्थान के। महात्मा गाँधी सुबह शाम सुदामा जी के मन्दिर कें पास से निकलते ही होंगे। दोनों की जन्म भूमि एक ही। सुदामा श्री कृश्ण के भक्त और महात्मा गाँधी का श्री राम में विश्वास। महात्मा गाँधी ने जीवन में शायद ही कभी सुदामा जी की चर्चा की हो। महात्मा गाँधी ने अपनी भेष भूशा सुदामा जी जैसी धारण कर रखी थी। मरते वक्त तो राम राम ही उनके मुख से निकला था। महात्मा गाँधी जी द्वारा सुदामा जी की जीवन में कभी चर्चा न करना हमस ब को खटकता है। उन्होंने सुदामा जैसे चरित्र को कैसे विस्मृत कर दिया। उस दिन महात्मा गाँधी का निवास बन्द हो गया था। इसलिए विद्यापीठ की ओर से वहीं ठहरने की व्यवस्था की थी।

दूसरे दिन ही दस बजे के करीव महात्मा गाँधी की जन्म भूमि के दर्शन करने के बाद हम आगे बढ़ पाये थे।

इसके बाद हमारी बसें सोमनाथ के मन्दिर पर पहुँच ने के लिए चल दीं। याद आने लगी सोमनाथ मन्दिर की व्यथा- कथा किस प्रकार महमूद गजनवी ने वेरहमी से इस मन्दिर को लूटा और तोड़ा। इसी समय मेरा ध्यान उज्जैनी के राधाकृष्ण मन्दिर के अलौकिक द्वार की ओर चला गया। जिसे महादजी सिंधिया ने सोमनाथ मन्दिर के दरवाजे दुर्रानी से खरीदकर इस मन्दिर में लगवा दिये थे।

सामने दिख रही थी-महारानी अहिल्यावाई की मूर्ति। जिन्होंने इस मन्दिर का जीर्णे उद्धार कराया था लेकिन वह पुनः फिर तोडा गया। दोपहर भोजन के समय यही सब चर्चा का विषय रहा।

उसके बाद गिरनार के जंगलों को देखते हुए, जिसमें दूर दूर तक घने जंगलों में दृष्टि डालकर जंगली पशुओं से रू-ब-रू होने का प्रयास सभी साथी साहित्यकार करते नजर आये। उछलते-कूंदते वन्यप्राणी देखकर हमारा चित्त भी उछल- कूंद करने लगाता। उस घने जंगल में पलाश के वृक्ष फूलों से लदे थे।

गिरनार के जंगल पार होते ही हम जा पहुँचे एक तपोस्थली पर। पीठ के निर्देशक पहले से ही यहाँ रुकने की योजना बनाये हुए थे। आश्रम की ओर से ही ठहरने और भोजन प्रसादी की व्यवस्था थी। आश्रम में ठहरने का कुछ अलग ही आनन्द है। वहाँ के समाधि स्थल पर मेरा ध्यान में बैठना, आज तक अलग ही आनन्द दे रहा है।

चौथें दिन चल पड़े जूना गढ़ की ओर। दस बजे तक पहुँच गये जूना गढ़ के दिव्य कुण्ड पर। जिसमें अस्थियाँ विर्सजन करने पर उसका जल दूषित नहीं होता। अशोक का शिलालेख, जूनागढ़ का किला आज भी अपनी व्यथा कथा कहने में लगा है। भक्त शिरोमणि नरसिंह मेहता के दिव्य धाम के दर्शन, उनसे रू-ब-रू करा रहा था। यहाँ भी भण्डारे की परम्परा है। सभी ने प्रसाद ग्रहण करना चाहा। इसलिये शाम तक ठहरना पड़ा। कवि गोष्ठी शुरू हो गई। भोजन प्रसादी के वाद रात नौं बजे यहाँ से प्रस्थान किया। रात दो बजे तक हम वापस अहमदावाद अपने विद्यापीठ पर लौट आये।

सुबह होते ही निवृत होकर अहमदावाद भ्रमण के लियें निकल पड़े। सावरमती आश्रम, मद्रकाली का मन्दिर तथा अक्षर धाम की दिव्यता आँखों में समा गई है।

अगली सुबह मैं और प्रिय धीर बापस लौट पड़े थे। ऐसे दुर्लभ क्षण जिन्दगी में कम ही मिलते है। मैं इस यात्रा के लिये गुजरात हिन्दी पीठ के कुलपति माननीय डॉ. जय सिंह व्यथित जी का और इस कार्य में उनके सहयोगी डॉ सुरेन्द्र त्रिपाठी जी एवं डॉ के. के सिंह जी का हृदय से आमार मानता रहता हूँ।

धन्यवाद

सम्पर्क- रामगोपाल भावुक कमलेश्वर कालोनी डबरा भवभूति नगर जिला ग्वालियर म. प्र. 475110 मो0 9425715707

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