गुरुदेव - 7 - (इश्क) नन्दलाल सुथार राही द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गुरुदेव - 7 - (इश्क)

सात फरवरी दो हजार सोलह को हमारा रीट का एग्जाम था और दिसम्बर दो हजार पंद्रह के अंत में हमारी कोचिंग पूरी हो गयी। उसके पश्चात एग्जाम तक हम रूम में ही रहे और अपना अध्ययन किया।
संघर्ष के दिनों में यह महीना सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। दिनचर्या में पढ़ाई ऐसे बस गयी थी कि अब सपने में भी जीके और कोचिंग क्लास ही आती। प्रातः तो आराम से ही उठते थे । गुरुदेव से मैं थोड़ा सा जल्दी उठ जाता था क्योंकि गुरुदेव तो रात के तीन तक बजा देते थे और मेरी आँखें एक बजाते- बजाते बेहोशी में चली जाती थी। मेरे जल्दी उठने के बाद भी प्रातः की चाय गुरुदेव ही बनाते थे क्योंकि मेरे हाथों की जो चाय पी ले वो चाय पीना ही छोड़ देता है। गुरुदेव के आग्रह पर एक बार बनाई थी पर परिणाम वही हुआ और फिर गुरुदेव ने ही चाय बनाई। इस बात का अफसोस आज भी है।
सर्दी का मौसम अपनी जवानी पर था हम प्रातः की चाय पीने के पश्चात किताबों में ऐसे खो जाते जैसे चाय में चीनी खो जाती है। बहुत बार हम दिन का खाना भी नहीं बनाते सीधा रात को ही खाते । अब पेट की जगह मस्तिष्क में जो भूख थी। पर कभी-कभी बाहर फल वाला आ जाता। वो गुरुदेव का इतना खास बन गया था कि रूम में आकर फल दे जाता और बोलता कि "आप बस ले लो पैसे की चिंता मत करो कभी भी दे देना।" आम लोगो से इतना जुड़ाव उनकी महानता और उनके प्रेम भाव का आदर्श रूप है।
टाइम पीरियड को और बढ़ाने के लिए उस सर्दी में हमने नहाना भी कम कर दिया मैं एक या दो दिन के बाद नहाता और गुरुदेव तो पाँच से सात दिन तक लगा देते। दाढ़ी के बाल ऐसे हो गए थे जैसे किसी तपस्या करते योगी के हो जाते है बड़े और अव्यवस्थित। एग्जाम से पहले जब हम दाढ़ी कराने नाई की दुकान में गए तो एक बार तो नाई के रेजर की ब्लेड ने भी दाढ़ी के बालों के आगे हार मान ली। नाई भी बोलने लगा "कहाँ से आ जाते है उठकर? ऐसे कोई स्टूडेंट होते है क्या ? जो नहाए भी नहीं ?"
लेकिन जब किसी के प्रति सच्चे हृदय से लगन लग जाये फिर उसे भला किसी और की सुध-बुध कहाँ रहती है।
चाहे वो लगन मीरा की कृष्ण के प्रति हो, चाहे किसी फौजी की देश के प्रति , चाहे मजनु की लैला के प्रति हो या किसी विद्यार्थी की अपने ज्ञान के प्रति। प्रेम हो तो ऐसा हो कि उसके अलावा कुछ भी महत्वपूर्ण न हो जाये तभी प्रेम के उस परम आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। और वही प्रेम और इश्क हमें किताबों से हो गया था। भले ही यह एग्जाम किसी सिविल सर्विसेज के एग्जाम जितना बड़ा नहीं था फिर भी हम जैसे बेरोजगारों और सामान्य परिवार वाले विद्यार्थियों के लिए उससे कम भी नहीं था।

अगर हम अपने हाथ पर कोई भारी चीज उठाकर रखे है तो हमारा हाथ जल्दी थक जाता है। लेकिन उस भारी की जगह कोई बिल्कुल हल्की चीज भी उठाकर रखे तो कुछ देर तो उसका अहसास नहीं होगा लेकिन अधिक देर तक उसे वैसे ही उठा कर रखने से हाथ में दर्द होना शुरू हो ही जायेगा। वैसे ही पढ़ाई के इस बोझ से थकावट तो होनी ही थी और परीक्षा के क्षण में इसका प्रभाव न पड़े और मन शांत रहे इसके लिए एग्जाम से कुछ दिन पहले अपने मस्तिष्क को कुछ आराम देने का निश्चय किया । कुछ दिन के लिए चंपालाल जी मंडाई और फिर पूनम जी सनावड़ा हमारे रूम में आये उनके साथ गप्पे लगाने और शाम के समय पार्क में टहलने की यादें अभी भी हृदय में संचित है।
उनकी गप्पों और गुरुदेव के साथ पार्क में टहलने से लौह सा भारी मस्तिष्क पुष्प की तरह मृदुल और हल्का हो गया।

इन चार-पाँच महीनों की तपश्चर्या के पश्चात आखिर वह दिन आ गया जिसके लिए हम घर से इतने दूर आये थे और स्वयं को उस लक्ष्य के प्रति समर्पित कर दिया था......

क्रमशः.......