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गुरुदेव - 5 - (मिशन)

मानसरोवर का किरण पथ जहाँ मेरी ज़िंदगी में एक नई किरण ने प्रवेश किया और मेरी जिंदगी और मेरी सोच को पूरी तरह बदल दिया और उस ज्ञान रूपी किरण के सूर्य थे गुरुदेव दीनाराम जी। जयपुर में भूराराम जी के रूम में रुकने के पश्चात मैं और गुरुदेव मानसरोवर के किरण पथ पर उनके एक परिचित के मकान में गए और वहाँ रहना शुरू किया जहाँ हमारे से पहले ही जैसलमेर का ही एक विद्यार्थी रोहितांश सिंह अकेला ही रहता था और वो भी गुरुदेव के प्रभाव से बच नहीं सके और कुछ ही दिन में वो भी" खास" हो ही गए।


कोचिंग के लिए लालकोठी स्थित मिशन इंस्टीट्यूट को चुना जो हमारे कमरे से काफी दूर थी और वहाँ से सीधा कोचिंग के लिए बसे भी कम ही आती थी । एक सिटी बस और एक एयरकंडीशनर वाली। लो फ्लॉवर हमें मानसरोवर से कुछ दूर से ही मिलती थी। हमारी क्लास शाम को होती थी और जब पहली बार कोचिंग से निकलने के बाद टोंक फाटक के पास जो भीड़ देखी तब मेरे मन में एक भय ने अपना जन्म ले लिया । इतने सारे विद्यार्थी ! सभी एक ही लक्ष्य की ओर । इस भीड़ और दौड़ में हमें इनसे आगे निकलना है जो मेरे से कई महीने पहले ही इस दौड़ में लग गए थे और हम तो अब आये है। यह सोच कर ही मन घबरा जाता । यह डर गुरुदेव के साथ रहकर कब खत्म हो गया इसका अहसास ही नहीं हुआ। एक और डर कि इतनी कम सीट में मुझे कैसे जगह मिलेगी! इस संबंध में मुझे भूराराम जी ने एक बात कही कि "आपको भला कितनी सीट चाहिए ? एक ही न? फिर सोचो सीट तो आपकी बस एक ही है । बाकी भले कम हो या ज्यादा हमारे काम की नहीं है। इसलिए सिर्फ कर्म करते रहो बाकी चिंता छोड़ दो।"
अगर हम हर समय सिर्फ पढ़ाई ही करें तो अवश्य ही कुछ तनाव , थकावट और एक भय से भरी उदासी आ ही जाती है। लेकिन गुरुदेव स्वयं तो कभी थके नहीं और तनाव व डर तो उनसे ऐसे ही दूर थे जैसे जमीन से आसमान। साथ ही तनाव व भय से मुझे भी बहुत दूर रखा। हालांकि मैं थक जरूर जाता था । गुरुदेव रात को तीन बजे तक किताब से ऐसे चिपके रहते जैसे कली से अलि और मैं ग्यारह या कभी -कभार बारह बजे निद्रा के समक्ष आत्मसर्मपण कर देता। गुरुदेव से जब पूछता कि वो कैसे इतनी देर बैठ पाते है तो वो बोलते कि "अपनी कमर को बिल्कुल सीधी रखकर ही अगर हम पढ़े तो नींद नजदीक ही नहीं आएगी और अगर एक बार आराम के बहाने कमर को तकिए से सटा दिया तो समझो नींद आई।" उनके सूत्र बताने के उपरांत भी मैं अपनी कमर तकिए से सटाये बिना न रह पाता और हाथ में किताब लिए ही नींद के आगोश में चला जाता और उस किताब को गुरुदेव ही सही रखते।
प्रातः के समय गुरुदेव ने ही योग और प्राणायाम करना शुरु करवाया और भ्रामरी प्राणायाम से मस्तिष्क को कितनी शांति मिलती है यह मैंने तभी जाना।
शाम को जब कोचिंग से वापस आते तो अधिकतर हमें किरण पथ वाली बस नसीब नहीं हो पाती फिर हम दूसरी बस में जाते जो हमें गुर्जर की थड़ी उतारती या सीतामाता पेट्रोल पंप और वहाँ से हमारा रूम काफी दूर पड़ता लेकिन हम कभी वहाँ से रिक्शे में नहीं जाते पैदल ही जाते और धीरे धीरे हमनें अपने चलने की स्पीड इतनी कर दी कि इससे एक सेकंड कम समय लेना दौड़ने की श्रेणी में आ जाता। इस चलने वाली दौड़ में अक्सर मैं गुरुदेव से पीछे रह जाता था।
शुरुआत के दिनों में एक बार मेरे होठों पर न जाने किसी जीव ने काट लिया था और तब मेरे होठ प्रभु श्री हनुमान जी के सूर्य निगलने के पश्चात जैसे हुए थे वैसे ही मेरे हो गए। बहुत बार तब जब गुरुदेव के साथ हॉस्पिटल गया तो लगा कि उन्हें भी मैं डिस्टर्ब कर रहा हूँ अध्ययन करने से ; परन्तु गुरुदेव हमेशा मेरे साथ ही रहे चाहे खुशी का अवसर हो अथवा तकलीफ की घड़ी।
मिशन कोचिंग में उन दिनों गुरुदेव के बेच में लेवल -2 के करीब पाँच सौ से भी ज्यादा विद्यार्थी थे और हर सप्ताह के अंत में होने वाले टेस्ट में गुरुदेव, भूराराम जी और भूराराम जी के रूममेट और मित्र मेघाराम जी ही पहले तीन स्थानों पर आते और इनका ही आपस में पहले स्थान के लिए कॉम्पिटिशन होता। प्रथम तीन विद्यार्थियों को पुरस्कार के तौर पर पेन मिलते थे और सबसे सामने ऐसे पुरस्कार प्राप्त करना हौसला बढ़ाने वाला ही होता है। गुरुदेव के संग और आशिर्वाद से मैं भी मेरे लेवल -1 के बेंच में प्रथम तीन स्थानों में आने लगा और इस प्रकार कोचिंग के उस बेंच में हम जैसलमेरी सब से आगे थे।
पढ़ाई और इसके अलावा भी कई मजेदार यादें जो गुरुदेव के साथ हुई उसे अगले अध्याय आपसे कहूँगा।

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