रेत बँधे पानी -श्याम विहारी श्रीवास्तव ramgopal bhavuk द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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रेत बँधे पानी -श्याम विहारी श्रीवास्तव

रेत बँधे पानी का प्रवाह

रामगोपाल भावुक

डॉ. श्याम विहारी श्रीवास्तव की कृति ‘रेत बँधे पानी’ के प्रवाह का अवलोकन करते हुए मैंने जैसे ही पढ़ना शुरू किया तो गेयता का स्वर अन्तस् से स्वतः ही फूट पड़ा।

..... और उसके बाद तो मैंने सभी गीतों को अपनी लय में गाकर कृति का आनन्द लिया।

यह सेंतालीस गीतों का संग्रह है। इसमें कवि स्वयं यह स्वीकरता है‘काल की भयंकरता के बीच आशा की किसी धूमिल किरण की उम्मीद न होते हुए भी गीतों में कहीं कहीं भावी सुख और आशा की कोई खिड़की खुली नजर आती है।

स्ंग्रह के पहले पारम्परिक तरीके से श्याम के नाम गीत से स्पष्ट हुआ श्याम जी के करुणाकर श्याम ही इष्ट हैं। उन्हीं की इस गीत में बंदना की गई है।

उनके गीतों में गाते समय किसी शब्द की अथवा भाव की खटकन नहीं आती। उनके प्रतीक गढ़े हुए न होकरस्वतः निस्सृत होते हुए महसूस होते हैं।

कवि को इतना सब करने के बाद भी अपनी जिंदगी अधूरी सी लगी है-

घरी दो घरी नहीं जिंदगी पूरी ही।

ऐसे कही कि लगती रही अधूरी ही।।

इसका हिसाब कवि गणित की भाषा में यों व्यक्त करता है-

समीकरण के सूत्र जोड़ते,

अनुमानों की प्रकृति मोड़ते।

साध्य नहीं हो सकी सिद्ध

आकृति बन सकी न पूरी ही।।

और बिना पते के पाती में-

अपना जीवन विना पते की पाती जैसा है।

प्रश्नों के घर में उलझी परिपाटी जैसा है।।

.और कवि जब व्यवस्था से निराश होता है तो-

अब उम्मीद नहीं दिखती है,

कुछ भी यहाँ उजाले की।

हर घर एक अंधेरी तह में,

बड़ा अजूवा लगता है।

लेकिन यही निराशा अगले ही गीत में-

लौ न बुझ पाये इसी से नेह नित भरते रहो।

रुक न पायें पाँव, साथी अनवरत चलते रहो।।

किन्तु कवि ‘ हम समय है’ में-

हम न आये गये हम जिए न मरे।

सिर्फ आगत विगत के बहाने हुए।।

और वे गहरे अंधेरे में-

चल चुका गहरे अंधरेरों में

आदमी वेहद थका होगा।

झरती हुई चाँदनी में भी-

अब उम्मीद नहीं दिखती है,

कुछ भी यहाँ उजाले की।

इस सब के बाद भी-

रुक न पायें पाँव, साथी अनवरत चलते रहो।

बंध न पांए हाथ, साथी काम कुछ करते रहो।।

इस तरह काम करने का विश्वास लेकर कवि आगे बढ़ना चाहता है-

विपदाओं को आमंत्रण हमने ही भेजे हैं।

अतिशय सहनशीलता उर में रहे सहेजे हैं।।

कैसी ऋतु आई, छाया हुआ है तम।

आँधी का क्रन्दन, बड़ा नहीं सागर है।।

जैसी रचनाओं में भी कवि का यही अर्न्तद्वन्द दिखाई देता है।-

यूँ तो अगस्त ने इसे पिया था एक दिन।

किन्तु उगलना ही पड़ा उन्हें तत्काल ही।।

कवि स्वीकार करता है कि उन्हें वेदना धरोहर में मिली है।

फैल गई धूप में भी नागफनी।

डग आई यहाँ गाँव- गाँव में।

किन्तु जब कवि का ‘अर्न्तमन जाग गया’ में-

कसे हुए छूट गये, नियम और बंधन।

हिलमिल के बैठ गय कुंकुम और चंदन।

इससे आगे की रचना में-

बाहर से जुड़े- जुड़े लगते हैं हम।

भीतर से टूट गये हैं।

कवि को अपने शब्दों पर भी भरोसा नही है-

शब्द अपने अर्थ खो बैठे।

भावना से हाथ धो बैठे।।

किन्तु अगली रचना भी शब्दों के ही सिलसिले में-

शब्दों के सिलसिले नये।

युगबोध देते गये।।

वे अखबारी युग के सम्बन्ध में गा उठते हैं-

रंगों का नकलीपन लिए हुए।

पोस्टर से जिन्दगी के दिन हुए।।

किन्तु जब सत्य विज्ञापन हुए में’-

शोर केवल बढ़ गया है भोपुओं का।

जगरण के पथ अचानक रुक गये।।

शायद इसी कारण कवि को सूरज बदनाम होगया वाला गीत लिखना पड़ा होगा-

तम के वैभव से उजियारे का समझौता।

चाहे कवि का पहला-पहला व्यवहार हो, बचपन के दिनों हो अथवा पुराने दिन हों सभी में कवि को आदमी के मंसूबे बौने दिखाई देंते हैं-

काल की हथेली के हम तो खिलौने हैं।

जितने मनसूबे हैं सब के सब बौने हैं।।

कवि की व्यथा कथा कहें में-

खोजों तो, मेरा साया और मेरी अमर कथा के बाद दृष्टि रेत बँधे पानी पर ठहर जाती है-

जीवन रस क्या बचता है? रेत बँधे पानी हैं।

लहरें हैं न हलचल है, कोई न रवानी है।।

और इसी गीत में-

पुरखों के पन्द्रह दिन

शेष गुमनामी है। वाली बात हमें विचार करने के लिये मजबूर कर देती है। इसके बाद तो कवि सबको प्रणाम करतें हुए आगे बढ़ता है किन्तु अपनेपन के बिना खटकन सालती है। उजाले नहीं भाये कविता में-

हो गया मजबूत अपना तंत्र इतना।

हमसे डर जनतंत्र ने भी सिर झुकाये।

अबकी बार बड़ी बाधायें के साथ यह कैसा बदलाव में-

कैसे लौटेगी समरसता आज विचार करो।

यदि किसी ने छल किया तो जीवन की लय है कविता में-

प्रेम न हो तो ईश्वर का कोई अर्थ नहीं।

क्वि यही विश्वास लेकर उड़ रहा पंछी गगन में अथवा मौसम की मार से-

विधवा जैसी माँग, नहीं सिंदूर वहाँ रोली। में कवि कचपचाकर रह जाता है। हम भारत के कविता में-

मानव हैं हम सब, मानव ही जाति, दीन, ईमान है। के बाद गर्म हो गई हवा में-

ऊपर ऊपर पुती सफेदी नीचे काले चेहरे दिखाता। हुआ कवि ये इस सदी के अंतिम पड़ाव पर पहुँच जाता है।

कवि अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से कहने में पूरी तरह सफल रहा है। आपके नवगीतों में, शोषण है, पोषण है, भ्रष्टाचार है, बेईमानी कें साथ में उससे निकलने की आदमी में छटपटाहट भी है। कहीं कहीं आदर्श की बातें मन को बोझिल करने लगतीं हैं। कवि निराषा को हटाकर आशा का संचार करता भी दिखाई देता है। कवि जीवन की ऊहापोह में संघर्ष करता भी दिखाई देता है।

भाषा सहज सरल पाठक को बाँधे रहने में सफल है। इन रनाओं को पढ़ा जाना चाहिए। श्रेष्ठ गीत संग्रह के लिये डॉ. श्याम विहारी श्रीवास्तव जी बधाई स्वीकार करें। धन्यवाद।

कृति का नाम- रेत बँधे पानी

कृतिकार- डॉ. श्याम विहारी श्रीवास्तव 00000

वर्ष-2007

मूल्य- 150 रु मात्र

प्रकाशक-अक्षर प्रकाशन सेंवढ़ा

समीक्षक- रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- रामगोपाल भावुक कमलेश्वर कालोनी डबरा भवभूति नगर जिला ग्वालियर म. प्र. 475110 मो0 9425715707