रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 10 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 10

रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 10

काव्य संकलन-

समर्पण-

देश की सुरक्षा के,

सजग पहरेदारों के,

कर कमलों में-

समर्पित है काव्य संकलन।

‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।

आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वा.-(म.प्र)

बुद्धि का पुतला,इसी से,आदमी को कह रहे,

कर सका नहीं कोई,आदमी ने किया जो-जो।

जिंदगी को भोगते,सब यों ही रहे,

आदमी ने ही किये,बस हाथ दो-दो।।451।।

कह रहे है सभी तो,सत्य ही भगवान है,

नहीं गवाही सत्य की,सत्य ही उसका सबूत।

सहम जाती है कभी,सच्चाई भी सौ झूठ से,

पर गिरा नहीं आजतक,जान लो उसका बजूद।।452।।

कर सके नहीं सामना उसका,सुनो-

सैंकड़ो ही झूठ हारे,झूठ तो झूठ ही रहे।

वे भला कुछ भी कहे,कहते रहे,

समय के हर आइने में,बद सदा,बद ही रहे।।453।।

क्या कभी जाना है तुमने,दोस्ती का हश्र क्या,

दोस्ती कैसी दिखी है,दोस्ती के अक्श पर।

दोस्त होना अति कठिन है,सोच लो-ऐ दोस्तों,

क्या कभी कसके भी देखा,दोस्ती की निकष पर।।454।।

आओ समझो और सोचो,दोस्ती की राह में,

सैंकड़ो की नाव डूबी,कर जहाँ में दोस्ती।

कहीं गहरी दोस्ती का हश्र यह देखा गया,

डुबो देते चंद सिक्के,चंद क्षण में,दोस्ती।।455।।

सैंकड़ो ही दोष वाला,दोस्ती का ये कफन,

हर जगह फैंका गया है,किसी ने ओढा नहीं।

खुदा हाफिज था,जो तुम पार भी यों हो गए,

बरना इन्होंने किसी को भी,आज तक छोड़ा नहीं।।456।।

इनका चौगा,नफरतों के धागों से बना है,

गुलाबों के पौधे नहीं,नागफनियाँ ही बोई है।

ये कितने भले है,तुम्हें इनका पता नहीं,

इन्होंने,हजारों कश्तियाँ,साहिल पर डुबोई है।।457।।

क्या लोग इसकी हकीकत को,समझे नहीं,

नासमझ,हीरों को पत्थर समझते-ज्यों।

जिंदगी एक यात्रा थी,जो आज पूरी हो गई,

फिर बताओॽ इस तरह-मातमी ध्वनि,क्यों।।458।।

तूफन का रुकना अधिक,क्या भला होता-कहो,

यदि नहीं तो,यह सब कहानी,क्या सही।

सोचलो,इक तूफान थी,यह इनकी जिंदगी,

कुछ समय आकर,इस तरह यहाँ से चलती भई।।459।।

पत्रकार हो या वे-पेंदी के इक लोटा बस,

तुम्हें लुड़कने में,कोई भी देर नहीं लगती।

क्यों करके,विश्वास जमाना तुम पर करले,

कुछ तो साही बनो,जमाने की यह फब्ती।।460।।

इस क्षणिक से जीवन को,क्यों नहीं तपते हो,

सही में,चमक जाओगे,खरे सोने की तरह।

यारों,कुछ तो,सही-सही पहिचान बनाओ अपनी,

क्यों कर बिक रहे हो,भटा भाजी की तरह।।461।।

संभलकर-अपना कद बढ़ाओ तो कुछ,

सुनार भी देखता है,सोने को,कसकर निकष पर।

तुम अपनी जगह रहो तो,कीमत ही होगी,

चाहते हो-वो भी,भड़भूजे की इस छोटी दुकान पर।462।।।

वहाँ अँधेरा ही अँधेरा,रहेगा सदां,

न निकलेगा सूरज,न होगे सबेरे।

मिल पाएगा क्या कभी,वहां पर न्याय,

मुंशिफ बने हो जहाँ पर,सातिर लुटेरे।।463।।

सूख करके हो गया है,मुँह छुआरो,

नियति को भी बदल पाया,कोई अब तक।

इस सिकन से तो सभी को दिख रहा है,

ये बुढ़ापा है सही में,रंगोगे बाल कब तक।।464।।

लोग सबकुछ देखते है,तुम्हें तो दिखता नहीं,

कब करोगे बंद बोलो,यह नकली छापा।

गेसुओ का रंग,रंगत रात भर की,

भोर जड़ में,झांकता है,देख लो ये बुढ़ापा।।465।।

तुम भलां छुपते रहो,कब तक छुपोगे,

खोलकर के यह सभी,कह रही नानी-कहानी।

दे रहे धोका,रंगे इन गेशुओ से,

कह रहा है तन सभी,देख लो बुढ़ी कहानी।।466।।

तुम जो ठहरे,रोकते हो इसे,ऐसे,

वो हिमालय भी कभी,झुकते झुका है।

साफ दिखता है,बुढ़ापे का नजारा,

आ गया तो फिर नहीं,रोके रुका है।।467।।

अंग सारे-दे रहे इस्तीफा-देखो,

यह बुढ़ापा है,इसे हँस-स्वीकार कर लो।

तुम भलां सोचो न सोचो, नियति का क्रम,

मान जाओ आज भी,इसके साथ चल लो।।468।।

हो गई यह आज दुनियाँ,किधर से किधर को,

न छोड़ी आज तक,उल्लू अंधेरी कंद्रा तुमने।

तुम्हारी सब करामातें,सभी ने जान लीं,फिर से,

सलीका नहीं बदल पाया,पुराना आजतक तुमने।।469।।

लगो ज्यों,चैन से रहते,मगर बैचेन हो अंदर,

तुम्हारे नाज-नखरों को समझते है सभी,खालिक।

तुम्हारी ही बदौलत है,हमारी हालतें ऐसी,

कसर कुछ भी नहीं छोड़ी,हमारा ईश है मालिक।।470।।

सहारा कौन देता है,समय गर्दिश का आने पर,

पहल से जानते हम है,पराय होएगे अपने।

मगर फिर भी भरोसा कर,जी रहे जिंदगी अपनी,

नहीं कुछ हो सके,लेकिन सजाएगे सभी सपने।।471।।

न हारा जिंदगी में वो,चला जो राह पर अपनी,

सफलता मिलेगी इक दिन,दिखाते काय को-ठैगा।

नहीं कमजोरियाँ इतनी,जितनी सोचते तुम हो,

भले ही सड़ गया मुंसल,धान तो कूट ही लेगा।।472।।

उड़ेगे सब कबूतर से,तुम्हारे अहम मंसूवे,

इसे तुम आज ही समझो,नहीं तो सल्तनत।

किनारे ही चले होगे,कभी क्या धार को काटा,

नहीं है खेल बच्चों का,हकीकत और ही होगी।।473।।

इधर से उधर हो जाना,तुम्हारी चाल,कब अच्छी,

इसे तुम नहीं समझते हो,लगा है कालिखी-टीका।

तपा जो आग में गहरा,बना फौलाद है सच में,

भले ही टूट सकता है,मगर झुकना नहीं सीखा।।474।।

चल पड़ोगे जब तो,मुकाम आ ही जाऐगा,

राह आसान होती है,बढ़ते कदम के आगे।

और तुम-जो जी रहे हो,बैठ कर छाया में,

चादर फट गई समझो,झीने हो गए धागे।।475।।

नहीं मुड़ा था कोई पन्ना,हँसकर के यूँ बोल उठा,

क्यों घबराते,मैं हूँ बचपन,जीवन के ये धक्के है।

सोचा था,जो बीत गए दिन,कभी लौट नहीं आऐगे,

किन्तु पुराना बस्ता खोला,तो देखा सब रक्खे है।।476।।

पलटकर देखने होगे,तुम्हें इतिहास के पन्ने,

सफा-दर-सफा को पढ़लो,काले अक्षरों बारे।

इंसानियत के ही लिए,इंसान मरते है,

हैवान को जिंदा,किसी ने कब कहा प्यारे।।477।।

उनकी कद्र,कहीं भी नहीं होती,जनाव,

उन्हें फटकारते ही तालियाँ,हर कहीं देखो।

मर्दों में रहोगे तो,मर्दानगी ही होगी,

जुर्रतवान कब होते,शिखण्डी आज भी देखो।।478।।

आदमी होना बड़ी ही बात है रहवर,

मुर्दों की तरह ही,जी रहे है बहुत सारे।

उन्हें अभी तक पता ही नहीं है,जीवन का,

दस्तक दे रहे है बस,समझो मौत के द्वारे।।479।।

छप रहा जो बहुत कुछ,साहित्य कब होता,

सब प्रकाशन बिक गए है,देखलो तुम आजकल।

वो हकीकत का सफर,हो गया व्यापार अब,

चंद सिक्कों के लिए ही,होड़ मचती आजकल।।480।।

बदलकर आज सबकुछ ही,नकाबी बन रहे तुम तो,

तुम्हारी इन हरकतों पर,हँस रहा आसमां अब भी।

नजाकत लख बुढ़ापे में,जवानी को शर्म आती,

मगर तुम हो अजब,गजब ही ढाह रहे अब भी।।481।।

तुम अभी भी,बदल न सके अपने आप को,

आदमी हो तो नहीं,लगा यों घाम में बुढ़े भए।

कई मौसम भी बदल गए है,देखते-देखते,

बहारों के पैगाम तुमसे,अब तक सुने भी नहीं गए।।482।।

इस तरह,इंसान तुमको कौन कह सकता भलां,

यहाँ उजालो में खड़े हो,अब अंधेरा है नहीं।

सफर का अंतिम किनारा,तुम नहीं संभले अभी,

व्यर्थ की बकवास करते,बात बजनी है नहीं।।483।।

सीखना है तुम्हें सबकुछ,पेट से कब अकल आती,

सभी तो सीखते आए,नियति की पाठशाला में।

तुम तो आज भी बैठे,बने गूँगे औ बहरे ही,

आजाद होकर भी न समझे,बंद क्यों आज ताला में।।484।।

कोई दिशा होती नहीं,भीड़ और शैलाब की,

कौन करता है फिकर,देश की परिवेश की।

अकलबंदो की फजीहत,मूर्खों की भीड़ में,

दर्द होता है जिगर-हालात लखकर देश की।।485।।

संभलकर चल लो जरा,भीड़ का माहौल है,

कब किधर मुड़ जाए ये भी,तय दिशा कोई नहीं।

उनके भरोसे अब मत रहो,संभलना खुद पड़ेगा,

समझ लो इसको सही से,कौन कितना है सही।।486।।

है अंधेरो के बंबंडर,रोशनी घबरा रही,

देखकर चलना तुम्हें ही,जमाना ये क्या कहेगा।

इस भरे संवाद में,कब किधर खो जाओगे,

हाथ का परिचम कहाँ तक यों,साथ देता रहेगा।।487।।

जुल्मों से भरीं है राहें,बहुत कुछ-मगर,

विजय होने की रखना है तुम्हें,अभिलाषा तो।

जिंदगी भी एक तुनहरा सा आफताब है,

यदि तुमने उसे सही करीने से,तरासा तो।।488।।

जिंदगी हँसने,हँसाने को मिली,

रो-रोकर काटने को,कौन कहता जिंदगी।

अपने लिए तो सोचलो,सभी जीते रहे है,

मगर औरों को जिओ,तो सही है जिंदगी।।489।।

जिंदगी का सही आनंद,बालपन में ही है

बुढ़ापा तो जान लो,ढोने के लिए है केवल।

इसे सही जीने के लिए,गुद-गुदाना पड़ेगा,

नहीं तो,जिंदगी की लगी होगी,सिर्फ लेवल।।490।।

जिंदगी है इम्तहान की एक अनूठी कक्षा,

असफल होने पर,हर घड़ी पछताओगे।

जिओ तो,शेरों की तरह ही,जिओ,

बरना,कुत्तों की मौत ही,मारे जाओगे।।491।।

क्या जमाना है,न समझे अभी तक,

आराम पर भी लोग,यों शक करने लगे।

मंजिल-दर-मंजिल,वह खूब ही चला,

जरा आराम किया तो,लोग यूँ रोने लगे।।492।।

लोग हँसने के लिए,चौराहो पर ही खड़े थे,

हमने चौराहे ही मिटा डाले,भरोसा कर-बाँहो पर।

राहों ने हमें भटकाने की खूब कोशिश की,

मगर हम जो थे,गए ही नहीं,उन राहों पर।।493।।

वैसे ही डरते है उनसे तो सब लोग,

सताए जाते है तो,हमेशा भले लोग ही।

उन्हें दी जाती है,हर जगह ही मौहलत,

फैला हुआ है हर कहीं पर,झूठ का ये रोग ही।।494।।

इस तरह कैसे खींचोगे,प्रगति की रेखा तुम,

बता सकते हो क्या,तो करैं कुछ इस पर जिरह।

हिलना डुलना तो होती ही है,गति जनाव,

पर आप तो ऐसे रहे,सिर्फ पैडल की ही तरह।।495।।

खुदा की अमानत को,वे नकाब मत करो,

इन्हें बदल पाना भी होगा,तुम्हें बड़ा मुश्किल।

कितना और सजाओगे इन्हें,ये रंग देकर,

मगर वो चकम आना तो,बड़ा ही मुश्किल।।496।।

बदलाव लाने होऐगे तुम्हें,अपने उसूलों में,

इस तरह कुछ कर दिखाओ,हाथ कोरे नहीं मलें।

खैर,तुम्हारीं सारी हरकतें,तो माफ की जाती है,

अगर आप अभी भी,मानवी राहों पर,फिर से चलें।।497।।

वो जमाना था,जो अब तो गुजर गया,

चंद पैसे में तो आज,बच्चे भी नहीं खेलते।

और तुम हो जो,इतने नादान बनते हो,

लोग तो न जाने,कितना क्या-क्या झेलते।।498।।

तेरी इस नासमझी ने,तुझे बरबाद ही किया है,

अब भी कुछ बोल,है तो नहीं तूँ,गूँगा भी।

अब तक तूँ खूब दौड़ा,कस्तूरी मृग की तरह,

मगर-तूँ ने अपने आप को,कभी सूँघा भी।।499।।

तूँ भटका हुआ है,अपने आप से,

इसे गर दूर कर दे,तो तूँ ही,तूँ है।

समझने भर की बात है,इसमें केवल,

जो कुछ वो है,वहीं तो तूँ है।।500।।