रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 1 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 1

काव्य संकलन-

रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 1

समर्पण-

देश की सुरक्षा के,

सजग पहरेदारों के,

कर कमलों में-

समर्पित है काव्य संकलन।

‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।

आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वा.-(म.प्र)

श्री गणेशाय नमः

आओ ! इसपर ही करै कुछ,आज चिंतन,

है समस्या आज की,इसपर विचारों।

आदमी हो ! आदमी से नहीं बड़ा कुछ,

जिंदगी के मार्ग में,बिल्कुल न हारों।।1।।

टेशुओं की भीड़ है,भारी यहाँ पर,

जानना उनका कठिन है,आज भी।

कौन-क्या रंग ले खड़े है,वे सफर में,

नहीं मिला है आजतक,वो राज भी।।2।।

हैं बड़े अड़ियल,अडंगों में बड़े भी,

कब-कहाँ,किस हाल में,बेहाल कर दें।

अनचाही चाहत लिए,हर समय ठाड़े,

वेदना से,जिंदगी को,कभैं भर दें।।3।।

हर कदम,चौराहें,इनसे ही पटे है,

अटपटे हैं,खटपटे है,बहुत भारी।

हैं अयावर,घूमते संसार भर में,

क्या पता,लें आए कहाँ से,वे महामारी।।4।।

हो सजग,रहना हैं साथी-टेशुओं से,

टेशुओं का दौर है,भारत धरा पर।

जिंदगी मनमस्त रखना,बड़ा मुश्किल,

काँपतीं है,सुबह-शामें,यहाँ थरा-थर।।5।।

इस तरह के खेल को,खेलें खिलाड़ी,

अड़गए तो,मान लों-कुछ कर हटैंगे।

होएगा आगत सुनहरा अथवा काला,

रट लगीं है जो जिगर,ही कर हटैगें।।6।।

आदमी की हरकतों से,बाज आकर,

पशु-पक्षी दूरियाँ रख,आज चलते।

आदमी ही रंग बदलता है हमेशां,

व्यर्थ में बदनाम गिरगिट-रंग बदलते।।7।।

आचरण अपनें संभालें,पक्षी चलें है,

पक्षी हैं हम-आदमी नहिं,सोच लेंना।

बद से बदतर हो गए है,आदमी यहाँ,

कुछ इशारे समझ लो,क्या लैंना देना।।8।।

सोचते ! अफसोस होता है बड़ा ही,

आदमी बनकर,नहीं भये आदमी भी।

और सब चलते नियति की राह पर ही,

बहुत कुछ व्यवहार बदले,आदमी ही।।9।।

क्या कहैं,किससे अधिक अब और कितनाॽ

जन्म लैंना ही व्यर्थ,लगता हमारा।

चाल नहिं बदली अभी भी आदमी ने,

आदमी कैसा हुआ,ईश सिद्धांत हारा।।10।।

कुछ समय के बाद,लगता सोच लो अब,

होएगा क्या और कैसा,इस धरा पर।

आदमी पहिचान खोएगा,निजी की,

हिंसको का राज होगा इस धरा पर।।11।।

आदमी के,आज के इस चलन को लख,

भेड़ियों ने शर्म से,आँखें झुकाई।

पक्षियों से बात मत पूछो,अभी कुछ,

पक्षी है वे-आदमी नहीं,कहानी सुनायीं।।12।।

कूकरों ने-मौसमी दावत दई है,

क्या कहैं अब,आदमी बारहमासी हुआ है।

बहुत कुछ कहना-मगर कितना कहैं अब,

आदमी को शर्म ने,नहीं कहीं छुआ है।।13।।

आदमी की नीयत का निकला जनाजा,

इस जनाजे ने-कभी दिल को छुआ हैॽ

रंग बदलता आदमी-बदनाम गिरगिट,

सोच का पैगाम,ऐसा क्यों हुआ है।।14।।

सोच लो ! गिरगिट प्रकृति के साथ चलता,

प्रकृति के अनुकूल,अनकूलन रहा है।

आदमी की बात मत पूछो कभी-भी,

सब नियम धर ताक,बारहमासी हुआ है।।15।।

इस जहाँ में बशर करना,बहुत ही दुश्वार है,

पर बुलंदी के कदम ये,लौटना सीखे नहीं।

हो गयीं आसान राहैं,उन्हीं की हर दौर में,

चल पड़े जो अडिग पथ में,हार नहीं मानी कहीं।।16।।

हर कहानी में मिली थी,आपकी वह जिंदगी,

ढूँढ़ता अब तक रहा,नहिं मिली उस नाप की।

याद आते ही तुम्हारी,याद वह सब आ गया,

किस कदर रोता रहा था,याद करके आपकी।।17।।

किन्तु उनसे आज तक भी,नहीं किये सिंकवे कोई,

ये कहानी है उन्ही की,जो आस्तीनी सर्प है।

दोस्तो के हौसले,किस मर्ज की तासीर है,

जख्म पर ही नमक छिड़कें,लग रहे कमजर्फ है।।18।।

अभी तक नहीं समझ पाए,झूठ की रंगत है कैसी,

वो सफेदी झूठ भी तो,रंग बिरंगे हो गए।

ओढ़कर आए है चादर,ये सियासी चाल है,

कौन समझेगा इन्हें,पारखी सब सो गए।।19।।

दोस्तों को समझ पाना,कठिन है रहवर मेरे,

दोस्तों की दास्तानें,बाँटती है ये-खिताब।

अभी तक आपने लगता,समय को व्यर्थ ही खोया,

लगा ज्यों,पढ़ नहीं पाए,दोस्ती की ये-किताब।।20।।

दर्द में देखी गई है,हर छुपी तासीर सब,

दर्द को झेला जिन्होंने,पा गया सौगात को।

दर्द से सच में कलेवर,आफतावे बन गया,

हर किसी ने नहीं जानी,दर्द की औकाद को।।21।।

रंगे है हाथ लोहू से,तुम्हारे दोस्तो कब से,

यकीनन मान लो इतना,कि कोई शक नहीं करता।

मगर ये जान लो इक दिन,नकाबी रंग बदलेगा,

कहानी और कुछ होगी,कि मरता क्या नहीं करता।।22।।

तुम्हारे कारनामों पर,कभी विस्वास रोयेगा,

तुम्हारी दोस्ती का,हर कहीं पैगाम ये होगा।

निभाई दोस्ती कैसी,कि घौपें पीठ में खंजर,

ऐसे कातिले रंग का,कोई दुस्मन नहीं होगा।।23।।

विराजी हो जिगर अंदर,बनी एक दिव्य मूर्त सी,

भुलाए भूल नहीं सकता,हटाऊँ किस कदर उर से।

तमन्ना थी यही मेरी,तुम्हें आगोस में ले लूँ,

मगर दिल काँपता थर-थर,जमाने के किसी डर से।।24।।

तुम्हारी इस सरारत पर,रोयेगी दोस्ती कितनी,

ये सागर सूख जाएगें,तवे की बूँद से,छन-छन।

घौपें पीठ के खंजर,हमें भूले नहीं अब तक,

अभी इतना समझ पाए,कि होते दोस्त ही दुश्मन।।25।।

यदि हमारे कत्ल से,तुमको कही कुछ मिल सके,

तो शुकूनी है मुझे भी,काट दो शमशीर से।

करुँगा कोई नहीं सिकवा,गिला भी इस जमाने से,

नहिं कराहूँगा भी बिल्कुल,जख्म की उस पीर से।।26।।

गुनाहे दौर के मंजर,हमीं ने काट कर भोगे,

समय पर कौन हो मेरा,नहीं सिकवा गिला मुझको।

सजाए जिंदगी तो,हर खुशी में काट ली अब तक,

अगली स्वाँस क्या होगी,यही दरकार है मुझको।।27।।

मुझे अफसोस है इतना,कि तेरा कद घटा कैसेॽ

कहीं चाँदी के टुकड़ो पर,जो बेची आवरु अपनी।

इसी दस्तूर पें दुनिया,कहाँ से कहाँ जाती है,

सुना है लोग तो क्षण में,बदलते राह है अपनी।।28।।

गुनाहे गमे शिकवे,जो न होते जिंदगी पथ में,

चुनांचे-ये जिंदगी चमकती चाँदनी होती।

इन्हीं ने कर दिया बदनाम,इसकी बेशकीमत को,

संभालो दास्ता इसकी,न होवै हद कहीं ओछी।।29।।

टुकड़े कर दिये दिल के,खपा होकर दरिंदों ने,

कोसते हम उन्हीं को यों,ढो रहे आज है बक्शा।

कातिलों ने पोत दी,तस्वीर पर कालिख,

बरना,गुलिश्ताँ होता हिदुस्तान का नक्शा।।30।।

आज देखो जहाँ तहाँ,लड़ रहें है वो यहाँ,

बद से बदतर चलन हो गए,बस्तियों के।

कुर्सियों ने भर दए नफरत समंदर,

हौसले ही पस्त हो गए,कस्तियों के।।31।।

चोर कुर्सी में चिपक रहे,खटमलों की ही तरह,

खाक में मिलती दिखीं,तस्वीर हिन्दुस्तान की।

है नहीं कोई शर्म भी,आँख मीचे चल रहे,

मानवी पन नहीं कोई,चिंता नहीं है आन की।।32।।

गिरहकटों ने राह का चलना,कठिन ही कर दिया,

नहिं फूल सी खुशबूह होती,देश की इस धूल में।

जो सदाँ चंदन रही थी,गंध से अनुबंध कर,

भर दयीं नफरत उसी में,तब्दिली कर,शूल में।।33।।

हर तबाही दौर लेकर,जिंदगी भर वे जिये,

जो गए इस ओर,उनके द्वार जाकर देखिए।

थाने,कचहरी,सफाखाने,भूलकर मत जाइए,

जिंदगी की राह में,कंटक इन्होने वो दिए।।34।।

रोशनी घर की दुल्हनें,भूल मत रहवर मेरे,

इनको जलाकर,जिंदगी मावसी हो जाएगी।

विश्व के हर द्वार कीं,तोरण इन्हीं को मान लें,

सोचना है हर तरह,नहीं मानवी पछताएगी।।35।।

किश्त पर लेकर तराजू,तौल सकते क्या सहीॽ

आदमी मजबूर है,बस आज के बाजार में।

ढो रहा है जिंदगी,किस कदर इस दौड़ में,

घिर गया चारौं तरफ से,उलझनों की मार में।।36।।

इन तबाही मंजरों में,फस गया वो इस कदर,

भूला हुआ है आज खुद को,विश्व की पहिचान था।

आदमी जीने की खातिर,बेचता इंसाफ को,

बस,मुशीवत तो यही,बरना वही भगवान था।।37।।

लूट के अड्डे जमे है,हर कहीं चौराहे पर,

राहगीरो का निकलना,बहुत ही दुशवार है।

हर कदम पर वे खड़े,कितना चलोगे संभलकर,

घिर गए हो सब तरह,चारौ तरफ दीवार है।।38।।

इस मुखौटे को हटा दो,जो छलाबौ से भरा,

आपकी बख्शीष,सच में विष भरी शमशीर है।

तुम भलां समझौ न समझौ,लोग सब कुछ समझते,

और कितना क्या कहै,यही तो बस,पीर है।।39।।

बहुत कुछ तुमने,हकीकत ले,समंदर से कहा,

दे सका नहीं,बूँद मीठी,किस कदर कंजूस था।

और तुम बैठे उसी की,आश लेकर आज भी,

क्या कभी उससे मिलेगाॽजो सदाँ मनहूस था।।40।।

घाव की गहराईयों पर,नहीं टिकी मरहम कोई,

ये जुबाँ ही,सच समझ लो,कलम या शमशीर है।

इसलिए बोलो संभलकर,बात को खुद तौल लो,

बहुत कुछ संग्राम इसके,देख लो गंभीर है।।41।।

सुनते नहीं हो तुम,मगर यह बोलती है बहुत कुछ,

शूल भी येही बनी और,फूल इससे भी खिले।

कलम की ताशीर को,समझे नहीं हो आज तक,

वे-जुवाँ पर घाव गहरे,देखने इससे ही मिले।।42।।

पर तुम्हारी सोच में ही,आज दीमक लग रही,

लिख रहा है,यह कंलंकी दौर,तुमरे नाम ही।

कौन कहता है,तुम्हाकी कलम में ताकत नहीं,

जब चली है जोश लेकर,हो गए संग्राम ही।।43।।

हौसले बौने तुम्हारे,चाँद छूने को चले,

भेड़िए कब शेर छौने,अकल के मारे लगे।

बदल लो खुद को अभी भी,क्यो अंधेरे में खड़े,

है समय अब भी संभल लो,जब जगे,तब ही जगे।।44।।

होश कुछ अपना संभालो,जोश को ले साथ में,

ये समंदर भी तुम्हारे,पैर तक आ जाएगा।

शिखर छूने की तमन्ना,संग ले बैशाखियाँ,

पालने लेटा शिशू कब,चाँद को छू पाएगा।।45।।

समय को समझो,ये सारा उसी का तो खेल है,

नहीं कभी बख्शा है उसने,इस जहाँ के खुदा को।

और तुम सोए हुए हो,ओढ़कर चादर यहाँ,

बिन किए कोशिश किसी ने,पा लिया गुमशुदा कोॽ।।46।।

यदि खड़े,तो खड़े रहना,ठीक अपनी जगह पर,

भूलकर,जाना उधर नहीं,भीड़ में खो जाओगे।

खो गए जो,इस समय में,आज तक भी नहीं मिले,

इसलिए रहना संभलकर,नहीं तो पछताओगे।।47।।

हम चले थे आज तक,इंसानियत की राह पर,

हाथ ये फौलाद के है,काम फिर कब आएगें।

क्या समझ रक्खा है तुमने,भेड़ के बच्चे हमें,

ये तुम्हारे तेवरों से,हम कहीं डर जाएगेॽ।।48।।

इस शवै महताव में,मुमकिन नहीं छुप पाओगे,

सब हकीकत की कहानी,ये जमाना कह रहा।

सभी ने जाना तुम्हारा,नंगपन का ये सफर,

भूल मत जाना अभी भी,आखिरी यह,कह रहा।।49।।

लड़ते रहे हो आज तक,खूब ही देते दुलत्ती,

रक्त की बूँदे लिखेंगी,लेख सारे पदों के।

भूल गए औकाद सारी,कुर्सियाँ क्या मिल गई,

सींग ही उगने लगे है,लग रहा इन गधो के।।50।।