रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 4 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 4

काव्य संकलन- रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 4

समर्पण-

देश की सुरक्षा के,

सजग पहरेदारों के,

कर कमलों में-

समर्पित है काव्य संकलन।

‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।

आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वा.-(म.प्र)

ये अदालत और कचहरी,न्याय के अड्डे नहीं,

लोग इनसे ही,तबाही दौर में जीते रहे।

रोज चढ़ते ही रहे,इंशाफ की ये सीढ़ियाँ,

पाँव में छाले पड़े और गुदड़ियाँ सीते रहे।।151।।

क्या करे फरियाद उनकी या इबादत,

सब तरफ उनके ही न्यारे,काफिले ही जा रहे।

माँग कर भी मिल सके,ऐसा ना मुमकिन,

वे धडल्ले माँग कर ही, इस तरह से खा रहे।।152।।

आज कल तूँ माँगना ही बंद कर दे,

वो जमाना चुक गया,अनमोल था।

खा जिगर अपनी कमाई की ही रोटी,

द्वार जिनके तूँ खड़ा,उन्हीं का भूगोल था।।153।।

यह धरा की आन है,शान औ शोकत,

हाट में मिलती नहीं है,जिंदगी की यह पहल।

दिल लगी यदि रख सको दिल में ही राखो,

ये बजारु चीज ना है,आज भी पगले संभल।।154।।

जानते हो,घाव वे नासूर बनते,

है दवा कोई नहीं,टीभन भरे है।

लग गई जिनके दिलों में चोट गहरी,

घाव उनके मरहमों से नहीं पुरे है।।155।।

जिंदगी की दास्तां लम्बी है मित्रों,

सुन सको तो,काम आएगी कभी भी।

है कल्प वृक्षी सी छाया,सुखद सुन्दर,

इस लिए ही कह रहे है,वह सभी भी।।156।।

इस दोपहरी में,बुलाओगे समा को,

फिर कहो,क्यों कर, डरेंगे आत्मा में।

जिंदगी की साँझ हो,होले भलां ही,

हौसलों का सूर्य तो है,आसमां में।।157।।

आज लगा हम,अपनों में ही,अपनों को ही भूले थे.

सभी जगह पर,मथुरा काशी और अजाने मक्के है।

सोचा मैंने,बीत गए दिन,फेर कभी नहीं आएगें,

किन्तु पुराना बक्शा खोला,तो देखा सब रक्खे है।।158।।

होएगा एहसास,कुछ गुजरे समय पर,

स्वांस पर है नाम तेरा,नांचती मन की शिखी।

फाड़ सकते,चिठ्ठियाँ मेरी-मगर तुम,

इस जिगर में,बहुत गहरीं,लाल स्याही से लिखीं।।159।।

मोड़ते हो जहाँ सफा,कुछ है वहाँ पर,

लग रहा वह जिंदगी का नूर औ दस्तूर है।

तुम भलां कहते नहीं,पर है एहीं,

जिंदगी के आइने में,वो खरा कोहनूर है।।160।।

आइए उस ठौर पर कुछ गौर कर लें,

जहाँ किसी की जिंदगी का,दमकता सा नूर है।

पृष्ठ का मुड़ना,नया एक मोड़ होता,

मुड़ गई यदि जिंदगी, तो हो गई कोहनूर है।।161।।

तय किया उनने सफर,किस हालते कैसे कहाँ,

गौर से सुनना पड़ेगी,बात है सब काम की।

पक्षियों को सुन सको तो,मिलेगी जीवन कथा,

सुबह की चहकन भी उनकी और लौटे शाम की।।162।।

कह रही क्या ये समां,नदियों की कल-कल,

क्या कभी भूले औ भटके,गुफ्त-गू उनसे करी।

यदि नहीं तो,कुछ समय अब भी निकालो,

दास्ताने है अनूठी,मंजिलें सुख दुख भरीं।।163।।

जाग गए अंदर अगर तो,बन गए मानव खरे,

जिंदगी की सुबह का,शाम का अंतर यही।

तुम पिओ हर रोज,हम मदहोश योही,

क्या नशा हैॽ जान लो अंतर सही।।164।।

बदल लो महफिल,बने जीवन सफर ये,

याद वे आते सदां ही,जिंदगी को जिन कशा।

वह नशा क्याॽ रोज जो पीकर उतरता,

बिन पिए,मदहोश हो,सच नशा है,वो नशा।।165।।

और कब तक ढोओगे, इस जिंदगी को,

लोग पहुँचे उस तरफ,तुम इधर हो आज भी।

ये क्षणिक सी जिंदगी, सामा इते,

लद रहे क्यो- ऊँट बनकर इसतरह तुम आज भी।।166।।

सँभल लो अब भी, समय क्यों खो रहे,

दास्ताँ जीवन हकीकत, बात नहिं चौपाल की।

राह लम्बी और ये, मरूस्थल बड़े,

सर खपाई किस लिये,ये जिंदगी कै साल की।।167।।

नफरतों के बीज मत बोओ कभी,

नागफनियों सी धरा बन जाएगी।

और कुछ जमने न पाएगा यहाँ,

मौत के सामां सजे, मानवी पछताऐगी।।168।।

मातृ भू तो है स्वर्ग के तुल्य सी,

जहन्नुम हो जायेगी, जन्नत कहाँ।

क्यो बनाते हो धरा, श्मशान-सी,

नफरतों की जंग, मत छेड़ो यहाँ।।169।।

द्वेष के तूफान जब-जब यहाँ उठे,

ये धरा भी-सागरों में खो गई।

देखने को क्या मिला- सब जानते,

जिंदगी ही वेदनओं वत हो गई।।170।।

नियति के होंगे अनूठे खेल, यहाँ पर,

मातमी की धुनि जमाना गाएगा।

प्यास इतनी बढ़ गई,सूखे समंदर,

इस धरा पर और क्या रह पाएगा।।171।।

इस जहाँ में, जब जिसे मत भ्रम हुआ,

चाटता ही रह गया, वो चासनी।

जिदगी तो खुश-गमों का दौर है,

मत समझ इसको सुहानी चांदनी।।172।।

मिलेंगी बहुत सी तुमको, जख्म जोखिम भरी राहें,

सुगम उनको बनाना है,समझ लो बात कुछ ऐसी।

पसीने की कहानी को,पसीना बहाकर जानो,

नहीं कुछ जान सकते हो,कभी-भी बैठकर ऐ.सी.।।173।।

दूर के ये ढोल, अच्छे लग रहे,

जिंदगी का यह तमाशा,जान लो।

और तुम नचते इन्ही की ध्वनों पर,

कदम धरना है संभल के,मान लो।।174।।

अनूठा यहाँ रहा किस्सा, पसीने की कहानी का,

हकीकत बात कुछ ऐसी, कई उपवास भी झेले।

झाँखकर सिर्फ खिड़की से,हमें पहिचान नहिं सकते,

नजारा बहुत है उल्टा,कभी क्या धूप में खेले।।175।।

तुम्हारे संगमरमर महल भी, किस काम के बोलो।

हमारी झोंपड़ी के घोंसलों में, चहकते बच्चे।

तुम्हारे आँगनों में मूक-सा सुनसान पसरा है,

स्वप्न की है नहीं बातें, किस्से मान लो सच्चे।।176।।

बड़े है महल जो जितने, आँगन नहीं वहाँ मिलते,

सुनहरी धूप को तरसे, तुलसी का खड़ा बिरवा।

बसीयत वहाँ मिलै केवल, उल्लू-चामगीदड़ के,

अब भी देख लो प्यारे,अपने झाँखकर गिरवा।।177।।

जहाँ सुख साज बजते हों, नही वे झोंपड़ी छोटी,

छोटे महल होते है,जहाँ किलकारियाँ सूनी।

तुम्हारी चाल यह फिर भी,उन्ही की ओर जाती है,

तुम्हारे सोच में नफरत, तुम्हारे हाथ भी खूनी।।178।।

मगर-सोचा कभी तुमने, कहानी की कहानी क्या,

सभी कुछ बाँटता जो है,कभी क्या मांगकर लेता।

क्षणो-क्षण घट-बढ़े नित ही, कभी क्या चाँद से पूँछा,

कैसी जिंदगी जी कर, मीठी चाँदनी देता।।179।।

मगर अफसोस होता है, तुम्हारे सोच बौने पर,

कभी क्या सुन सके उसकी,गीत वो, कौनसे गाता।

जिसने बाँट दी खुशियाँ,जहाँ में वो बड़ा होता,

कालिख सा भरा चहरा, कभी क्या चाँद कहलाता।।180।।

उजड़ा शहर जो जितना,उजली रोशनी नहाता,

कहीं कुछ दूध में काला, तुम्है चलना संभलकर के।

इतना जानकर भी, जो गये, लौटे नहीं अब तक,

खड़े हैं प्रश्न कुछ ऐसे, उन्हैं लाना है हल करके।।181।।

मिलेंगी बहुत कुछ ऐसी, नकाबों से भरी बस्ती,

उन्हैं क्यों भूल-यौं बैठे,मगर वे जाने माने है।

ऊपर साफ सुथरे जो,उनकी गंजियां मैली,

लेपें इत्र कितनी भी, बदबू के खजाने है।।182।।

ये सफर है,गले मिल,कट ही जायेगा,

वरना-खो देंगीं तुम्हें, ये गहरी पगडण्डी।

संभलकर स्वयं ही चलना,चाल अपनी से,

दुनिया बहुत है गहरी,गाढ़े द्वेश की झण्डी।।183।।

नहीं मिलेगी फिर सुनहरी जिंदगी,

खोल ले आँखें अभी, जाता कहाँ।

चाल टेढ़ी क्यों- साथ कुछ जायेगा,

काट ले हँस बोलकर, जीवन यहाँ।।184।।

किस लिये आया यहाँ, सोचा कभी,

बात गहरी है,मगर कुछ मान ले।

चल संभल के,मद भरा क्यों डोलता,

यह सुहानी जिंदगी,कुछ जान ले।।185।।

सब जहाँ, नाचीज होगा, उस समय,

इस कलम के सामने,शमशीर नहीं टिकी।

जब चले,फौलाद-कुब्बत ले कलम,

स्वर्ग होगा इस धरा पर, करलो यकीं।।186।।

सुखमयी संसार इससे ही बने,

बहुत सारे खेल देखे,कलम के।

तीर और तलवार,तौपें,बम्ब भी,

चले है जब भी,इसारे कलम के।।187।।

नहीं बदला है धरा का नक्श-नक्शा,

हर तरफ नाकाम होते,सपन भी।

इतना सताना ठीक तो होता नहीं,

ये खड़े जब भी हुए,नहीं मिले है कफन भी।।188।।

क्या कभी देखीं है इनकी,कुब्बते-शम्शीर को,

कफन भी बेतार होगे,इस पसीने से डरो।

हैं अनेको सागरो की शक्ति का,तूफान ये,

विश्व का भू-चाल इनमें,बन्दगी इनको करो।।189।।

बूँद में सागर थमा है,लख पसीना टपकते,

शर्म से शरमा गई हैं,चिल चिलाती धूप भी।

क्या कभी देखा है तुमने,खौलते इस जोश को,

धूल सा उड़ता हिमालय,मारते इक फूक भी।।190।।

कौन अब तक कह सका,उनकी कहानी विश्व में,

अनकहे सब कहीं जाती,कुनमुनाती भूख में।

इस पसीने से महक लें,धूल जब-जब है सनी,

स्वर्ग बन जाते अनेकों,इस धरा की कूख में।।191।।

हैं अनूठे स्वपन सा,संसार इनका जान लो,

आचरन अपने बना लो,अब उसी की नाप के।

उठतीं हुई ये उगलियाँ,स्वयं ही मुड़ जाएगीं,

बनो तो,थोड़े से इंशा,खुदा के इंसाफ के।।192।।

आऐगीं फिर लौटकर,गुजरीं बहारैं सब यहाँ,

इस कहानी की हकीकत,नए सिरे मोसम लिखेगें।

इस दर्द की पीर जब,गाने लगेगी गीत कुछ,

सच समझ,हर हाल में,मौसम बदलते दिखेंगे।।193।।

गीत जब गाए पसीना,सूर्य भी शीतल लगें,

खलबलाते जेष्ठ में,बरसात होने लगेगी।

बहुत है इसकी कहानी,और कितनी हम कहैं,

सुन इसी की लोरियों को,धूप सोने लगेगी।।194।।

कौन सी है राह वो,बदलकर जिस पर चलूँ,

कोई बतलाए मुझे,सब हकीकत जान लूँ।

जब मैं उसूलों पर चला,सब कहें पाषाँण दिल,

समझ में आता नहीं सोचकर हैरान हूँ।।195।।

आस्तीनी साँप को,कब तक खिलाते हम रहैं,

दर्द ही देते रहें हैं,और कितना अब सहूँ।

समय की तस्तीफ में,हो रहे अपने-पराए,

तुम बताओ तो मुझे,अब किसे अपमा कहूँ।।196।।

उठती हुई उस ज्वाल में,संसार ही जलने लगें,

फिर बताओ किस तरह से,सामने तुम आओगें।

सुलगना भर है उसे,धधकता अंगार है,

जब तपें अपनी तपन पें,टिक नहीं तुम पाओगें।।197।।

नियत में बदलाब लाओ,समय अब भी है,

रुप इसके जान लो,श्रंगार है,संहार है।

चूस मत इसको तूँ ऐसे,ये सही हीराकनी,

यदि लिया तरतीब से,तो यहीं श्रंगार है।।198।।

दे रहे धोका सभी को,जानकर भी,जान लो,

होश में आना पड़ेगा,इस समय मैं मौन हूँ।

खून मेरा चूसकर ही,सब बने इतने बड़े,

पर तुम्हें नहीं होश है,जाना नहीं,मैं कौन हूँ।।199।।

मैं अभी तक जानता था,खून यह नाचीज है,

मगर ये क्यों पी रहे है,स्वाद इसमें है जरुर।

समझना हमको पड़ेगा,खून की तासीर को,

होश उनके उड़े ऐसे,ज्यों उड़े,कर से कपूर।।200।।