रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 2 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 2

रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 2

काव्य संकलन-

समर्पण-

देश की सुरक्षा के,

सजग पहरेदारों के,

कर कमलों में-

समर्पित है काव्य संकलन।

‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।

आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वा.-(म.प्र)

बदल सकते,इक तुम्हीं बस,जहाँ की तस्वीर को,

क्या कभी खंजर टिकें है,इस कलम के सामने।

पर तुम्हीं ने तो इसे बेशर्म हो,गिरवी रखा है,

शर्म कुछ लाओ,तुम्हें मानव बनाया राम ने।।51।।

देख सकते हो इसे तुम,विश्व की तस्वीर में,

आज भी रुह काँपती ही,गद्दियाँ शर्माएगीं।

इस पसीने में जो ताकत,है नहीं शमशीर में,

एक होने की जरुरत,मंजिले हिल जाएगीं।।52।।

जान जाओगे जभी जुम,हाथ की तासीर को,

बस---तुम्हारे सोचने पर,ताज भी झुक जाएगें।

विश्व की सब मंजिले भी,है तुम्हारे हाथ में,

तुम,तुम्हीं हो,बस खड़े हो,सब तुम्हें अपनाएगें।।53।।

हो रही ईमान की,कितनी फजीहत देख लो,

बेईमानों की तिजोरी,भर रही है आजकल।

पर न समझो यह हमेशां ही,सभी कुछ चलेगा,

ये जहाँ भी नहीं रहेगा,बिन पिए ईमान बल।।54।।

कोई भलाँ समझे न समझै,हादसे है हादसे,

मत कहो ऐसी कहानी,टूटते इन दिलो कीं।

बस यही सब,बदलने का सोच लाना है तुम्हें,

एक नई दुनिया बसा दो,नींव रखकर मिलों की।।55।।

दर्द वो ही जानता है,दर्द जिसने हो पिया,

याद आते ही मिली है,दर्द की परछाईयाँ।

दर्द की पैमाइस होगी,स्वर्ण सिक्को से कहींॽ

सिर्फ मुझसे ही नपैगीं ये मेरी उँचाइयाँ।।56।।

इस कलम के सामने,सब भौंथरे है,

रोक सकती है कलम ही,उमड़ते इस दौर को।

कर सको इसकी हिफाजित,तो करो बस आज ही,

कलम को समझे नहीं तो,पाओगे नहीं ठौर को।।57।।

ठानते हो ठान अपनी,लग रहा कमजर्फ हो,

आदमी होना कठिन है,होश कब तक आएगा।

प्यार से झुकते दिखें है,ये शिखर भी पावँ में,

इस तरह से क्या कभी भी,आसमाँ झुक पाएगा।।58।।

कह रहा ये जमाना,बात तो सुन लो जरा,

होश में आ जाओ अब भी,फस रहे क्यों जाल में।

हैं नहीं कमजोर इतने,तुम भलाँ समझो नहीं,

जी रहे अपनी तरह से,जमाने की चाल में।।59।।

जानते हो सब हकीकत,कह नहीं सकते मगर,

है नहीं मुजरिम,बंधे पर समय की जंजीर में।

आज भी तुम पा सकोगे,समय की सौगात को,

पीर बनना चाहते तो,तीर आओ पीर में।।60।।

यदि नहीं तो सोच लेना,समय के उल्लू तुम्हीं,

मात खाते दिख रहे हो,खुद-खुदी की चाल को।

बहुत कुछ छुपकर रहे हो,और कब तक रहोगे,

फैंक दो अब भी समझकर,इस रंगीनी खाल को।।61।।

बहुत कुछ करते रहें हो,ओट में तुम बैठकर,

फटेगी चादर तुम्हारीं,चार दिन के बाद भी।

क्या नहीं दिल में खटकता,ठौंग ये इंसाफ का,

आदमी की तरह रह लो,आदमी हो,आदमी ।।62।।

क्यों समय खोते हो प्यारें,ये छली बहकाब में,

जिंदगी भर जिंदगी को,सीखते आए सभी।

तुम अधूरें हो अभी तक,हो नहीं पूरे सके,

ख्वाव में भटकें हुए हो,ख्वाव टूटेगा कभी।।63।।

समझ बैठे हो जिसे तुम,तुम्हारीं औकाद है,

आदमी को समझना,आसान होता है नहीं।

है कसम तुमको खुदा की,कसर कोई नहीं छोड़ना,

सब तरह से तौल लेना,मैं बाजारु हूँ नहीं।।64।।

क्या कहैं तुमसें भलाँ,तुम जिगर के ही टूक हो,

इस तरह से देख तुमको,हाथ हम मलते रहे।

भूल जाओ तुम भलां,पर मैं तुम्हें भूला नहीं,

तुम भलाँ समझो न समझो,अस्क में पलते रहे।।65।।

धार कितनी तेज होती,इस शैलावे-अस्क की,

रोक नहीं पाया कहीं कोई,ढह गए सब साथ में।

और तुम इतने निठुर कि,ठूठ बनकर खड़े हो,

अस्क की तासीर समझो,मिल रहे क्यों खाक में।।66।।

है कहानी अस्क की,बस अस्क में ही समझ लो,

अस्क के मारे,मरे जो,क्या पुरे है घाव वे।

लौटकर आना पड़ेगा,इक मेरे ही वास्ते,

सूख नहीं सकते कभी भी,अस्क के दरियाव ये।।67।।

मूदकर के आँक अपनी,और कब तक रहौगे,

बंद हौगे एक दिन सब,आपके छरछंद ये।

क्या अभी तक समझ पाए,देख इस तस्वीर को,

जिंदगी की हर हकीकत,कह रहे पैबंद ये।।68।।

है नहीं मरहम कहीं भी,इस उधड़ती पीठ की,

मोल तुम कैसे करोगे,ये सदा,वे-मोल है।

है तुम्हारी भूल यह,सोचा नहीं है आज तक,

आदमी हो जाओ अब भी,ये बड़ा भूगोल है।।69।।

है समय अब भी,बदल लो,इस तरह की चाल को,

शीघ्र कर लो शल्य क्रिया,सुख भरा दस्तूर है।

जिस खनक के वास्ते,चैन तज,वेचैन हो,

वह तुम्हारी जिंदगी का,उभरता नाशूर है।।70।।

चन्द ये चाँदी के टुकड़े,जहर है,नासूर है,

इस सलौनी जिंदगी को,क्यो हवाले कर रहे।

सुख नहीं इनकी चमक में,यह तुम्हारी भूल है,

दूर हो लो इस कहर से,मौत बिन क्यों मर रहे।।71।।

है वहाँ नाचीच दौलत,जिस जिगर संतोष है,

खाक में हस्ती मिलाने,जाए क्यों दरबार में।

जो गए,जाने उन्हें दो,हम रहैं अपनी जगह,

संतोष दौलत से बड़ा है,जाए दुनिया भाड़ में।।72।।

जो चलें मेहनत की राहैं,स्वर्ग लाए धरा पर,

माँगते नहीं भीख कोई,ये न उनके रास्ते।

हाथ है पारस ही जिनके,वो कहाँ कंगाल है,

हाथ फैलाए किसी के,द्वार फिर किस वास्ते।।73।।

है अजूबाँ देख सकते,जिंदगी के खेल ये,

किस तरह करते कलोलें,चाँदनी के नीड़ में।

पर रहेगी चंद दिन ही,यह चमकती चाँदनी,

अधिकतर खोते दिखे है,इस सुनहरी भीड़ में।।74।।

है यही औकाद ओछी,चाँदनी के चौक की,

आज यहाँ तो कल वहाँ है,कब टिकी एक नीड़ में।

सुबह होते ही चली है,पक्षियों की दौड़ ज्यौं,

क्या पता कहाँ ठहर जाए,किस सुनहरे नीड़ में।।75।।

हो नहीं सकते सहारे,ये नकाबी गिद्ध है,

दौड़ते ज्यौं पीर लेकर,नौचते पर चाम को।

समझना इनको कठिन है,ये भरोसे बंद कब,

सुबह कुछ कहते दिखे,पर बदल जाते शाम को।।76।।

दूर ही रहना है इनसे,आस्तीनी साँप है,

और है बहुरुपीय भी,हर ह्रदय को बेधते।

लग रहै हमदर्द जैसे,आँसुओं की बाढ़ से,

ये नहीं होते किसी के,नाव तल जो छेदते।।77।।

पर निराली चाल इनकी,हम समझ पाए नही,

लगाकर येही,बुझाने दौड़ पड़ते,आग को।

समझना बिल्कुल कठिन,इस दौर के संवाद को,

हम रहे मनमस्त सुनते,इनके मोहक राग को।।78।।

मतलबी दोस्ती,सोचो,कभी क्या काम आई है,

गिरे सब की निगाहों में,वो इंसा है नहीं,लानत।

तभी तो सब कहै प्यारे,दोस्त से दुश्मन ही अच्छे,

मारकर छाँव में डारत,बात यह सभी तो जानत।।79।।

जमाना कह रहा तुमसे,संभलकर राह चलने को,

इसारा समझदारों को,कभी नहीं खाओगे धोका।

ये दौलत कौन की होती,न भूलो बीतते कल को,

सिकन्दर बन नहीं सकते,ख्वावी दौर है थोथा।।80।।

तुम्हारी इन निगाहों ने,न अब तक तौल पाया है,

अलग है रास्ता मेरा,बात कुछ ज्यादा है गहरी।

इसी से लोग सब कहते,टेड़ी चाल है इनकी,

झुककर छू नहीं सकता,तुम्हारी खून की दैहरी।।81।।

यही है खून में खूबी,बदलना है कठिन इसको,

भलां यह जान जा सकती,कदम नहीं मुड़े द्वारे पै।

ऐसे देखते क्यों होॽ मैं इंसा हूँ,नहीं मुजरिम,

तहीं नाराज हो लगता,गया नहीं दर तुम्हारे पै।।82।।

छुपाए छुप नहीं सकते,खूनी हाथ के धब्बे,

पानी ठहर कब सकता,रहा हो छेद पैदी में।

दिल में पाप का दरिया,तीरथ तुम भलां कर लो,

कभी क्या बदल पाई है,ये कालिक भी सफेदी में।।83।।

ये चहरा साफ कहता है,तुम्हारे दिल दुराबों को,

कहाँ तक तुम छुपाओगें,दिलों का कालखी बस्ता।

कभी जुगुनू दिखे करते,अंधेरी रात को रोशन,

दिल में चोर है जिसके,वो इंशा हो नहीं सकता।।84।।

भय का यह तकाजा है,कि अपनी राह पर आओ,

ये जीवन किस लिए पाया,हिलाते क्यों रहे दुम को।

जब तक रुह में नफरत,कैसे क्या नबाजी हो,

अंधेरा बिन उगे सूरज,कभी हटता दिखा तुमको।।85।।

लगा लो अब भी सीने से,न हलका जान तूँ इनको,

हिमालय से भी ऊँचा है,समध से भी अधिक गहरा।

अकेले में,बहुत रोया है,ये दर्दे दिल कहूँ किससे,

हकीकत और ही कुछ थी,जमाना था मगर बहरा।।86।।

जनाजा उठ गया युग का,समझ-नासमझ बनती है,

जो हीरा कोहनूरी था,उसे पाषण ही समझे।

जमाने की ही सूरत पर,हजारों बार रोया हूँ,

कहाँ तक क्या कहूँ किस से,लोग कमजोरियाँ समझे।।87।।

समय क्यों खो रहें यूही,अपनी राह को बदलो,

ये जीवन ही तो जन्नत है,करो फौलाद-पानी को।

इबादत में भरी नफरत,औ जन्नत की तमन्ना ये,

कहो क्या आज तक समझे,ये जीवन की कहानी को।।88।।

बाँध लो साहस,बहारैं लौट आएगी,

सिर्फ चलना बस तुम्हारा,क्यों अंधेरा ढो रहे।

घुप अंधेरी रात भी,रोशन लगैं जब तुम चले,

तुम उजालों में कहानी,रात की क्यों कह रहे।।89।।

कब समझ आएगी तुमको,शाम होने को चली,

क्या संभालौगे बिरासत,रेत पर जब बह रहे।

तुम उजालो में,अंधेरी रात के सपने लिए,

हम अंधेरों में,उजालों की कहानी कह रहे।।90।।

रोशनी में खा रहे है ठोकरें,वे लोग कैसेॽ

लड़खड़ाए हम नहीं,चलकर घने अंधियार में।

बस-यही तो जिंदगी में,जिंदगी का राज है,

तैरना जिनने न सीखा,क्या तरै मझधार में।।91।।

जमाना चल रहा टेढ़ा,मगर हम तो नहीं हारे,

काटते ही हम रहे मझधार को,लेकर कठौटा।

क्या कहै तकदीर में भी,थे कही कुछ अंधेरे,

रोशनी भी आ गयी,अंधियार का लेके मुखौटा।।92।।

यूँ तो,अंधेरों में भी,अंधेरे ही खड़े थे,

क्या कहै इस रोशनी को,जो अंधेरों को बढ़ाए।

हम नहीं हारे,चले है आपने पथ पर,

इन बुलंदी हौसलों से,अंधड़ो के घर ढहाए।।93।।

आज तक तुमने,बघारा है कही कुछ,

दिल रुबा थे,हो गए दिलगार कैसेॽ

हो रहा है शक,तुम्हें यौं देख कर के,

हो जलधि,पर जल बिहीने जलधि कैसे।।94।।

खाक क्या समझा,गबायी जिंदगी यों,

व्यर्थ ही जीना रहा,इस इल्म के संसार में।

कौन सी,वे दिल रुबा,रात को जो जिन बनाती,

दिन तुम्हारे बीतते जब,इल्म के दरबार में।।95।।

इस तरह शक में रहा बलिदान प्यारा,

तुम भलां मानो न मानो,हम सच्चाई पै मरते।

हम पतंगों की तरह न्यौछावर होते,

तुम बुझाने में हमें इस तरह,बदनाम करते।। 96।।

हम चले है विश्व में,अपने पथों पर,

आपको अपना समझते,नहीं दूजे।

तुम भलां नफरत के सौदागर रहो,

पर दिल हमारा,आपकी तस्वीर पूजे।।97।।

टूटकर भी हम तुम्हारे ही रहेगें,

और टूटेंगे तुम्हीं पर,पतंगों से।

तुम सदां आराध्य बनकर ही रहोगे,

सीख हमने ही लई,इन पतंगों से।।98।।

तुम रहो अब भी सुह्रद,अपनी हदो में,

बात थोड़ी में,तुम्हें सब कुछ जनादे।

शिष्टता का पाठ,नित पढ़ते रहे हम,

ये तुम्हारे जुल्म,कब खंजर थमा दें।।99।।

सिलसिलें ये कारनामों के बदल दो,

कह रहें है बहुत कुछ,तुमसे ही हजरत।

इल्म की तासीर दिल में है,मगर-

कब थमा दें हाथ में,खंजर,ये नफरत।।100।।